चुनाव की अंतिम बेला में तेज होते जुबानी हमले

Zubani assaults in final ball of election

लोकसभा चुनाव अपने चरम पर है। दो चरणों का मतदान अब बाकी है। ऐसे में राजनेताओं की जुबान तीखी से और तीखी होती जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस पर सबसे तीखा हमला बोला है। कांग्रेस के चौकीदार चोर है के शोर के बीच प्रधानमंत्री मोदी कांग्रेस की सबसे दुखती रग पर सोची समझी रणनीति के तहत हाथ रखा है। प्रधानमंत्री मोदी ने एक जनसभा में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भ्रष्टाचारी नंबर वन करार दे दिया। प्रधानमंत्री ने चुनावी लड़ाई को चौकीदार चोर है बनाम भ्रष्टाचारी नंबर 1 के जरिए शेष चुनाव को नया मोड़ देने की कोशिश की थी या यह मुद्दा प्रधानमंत्री की किसी बौखलाहट और कुंठा को दर्शाता है अथवा प्रधानमंत्री मोदी किसी भी सूरत में भ्रष्टाचार के मुद्दे को छोड़ना नहीं चाहते। प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर भारतीय युद्धपोत आईएनएस के दुरूपयोग के भी गंभीर आरोप लगाये हैं। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी भी लगातार प्रधानमंत्री मोदी पर पलटवार कर रही है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो भाषा व नैतिकता की मयार्दा लांघने के नित नये रिकार्ड बना रही हैं। वास्तव में इस बार के चुनाव में सभी पार्टी के लोगों ने अमर्यादित भाषा के उपयोग का रिकॉर्ड बना दिया है, जिस पर मुख्य चुनाव आयोग को कठोर संज्ञान लेने की जरूरत है। चुनाव अपने उद्देश्य से भटक कर मेरी कमीज तेरी कमीज से सफेद वाली मुहावरे को चरितार्थ करता नजर आता है।

प्रधानमंत्री मोदी ने दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का मुद्दा अचानक ही नहीं उठाया। राजीव गांधी की हत्या को 28 लंबे साल बीत चुके हैं। इस लंबे समय में राजनीति ने कई करवटें बदली हैं और प्रसंग भी बदल चुके हैं। इस दौर में बोफोर्स तोप सौदे का घोटाला भी प्रासंगिक नहीं है। आरोपित पक्ष या तो दिवंगत हो चुके हैं अथवा विदेश भगा दिए गए हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2004 में बोफोर्स केस ही खारिज कर दिया था, बेशक कारण कुछ भी रहे हों। उस अदालती निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती नहीं दी गई। मौजूदा आम चुनाव में पांच चरणों का मतदान हो चुका है। लोकसभा की 424 सीटों पर जनादेश ईवीएम में बंद हो चुका है। शेष दो चरणों में 118 सीटों पर मतदान 12 और 19मई को होने हैं। अंतत: 23 मई को जनादेश की निर्णायक घोषणा! सच तो यही है कि इन चुनावों में आरोपों-प्रत्यारोपों का जो घटिया स्तर दिखाई दे रहा है, और कुछ भी कहने की जो प्रवृत्ति उफान पर है, राजीव गांधी पर आरोप उसी का ताजा उदाहरण है- और यह दुर्भाग्य ही है कि देश के प्रधानमंत्री अप्रिय उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। पिछले एक साल से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जिस तरह से प्रधानमंत्री चोर है के नारे लगवा रहे हैं, वह भी हमारी राजनीति के घटिया होते स्तर का ही उदाहरण है और इस पर प्रधानमंत्री का क्षुब्ध होना स्वाभाविक है। लेकिन क्षोभ की अभिव्यक्ति का जो तरीका प्रधानमंत्री ने अपनाया है, वह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। फिर उनका कांग्रेस को यह चुनौती देना कि वह बाकी बचे चुनाव राजीव गांधी के नाम पर लड़ ले, एक तरह से मुद्दा बदलने की कोशिश ही माना जायेगा। देश के लगभग दो-तिहाई मतदाता वोट दे चुके हैं। बाकी बचे भी शीघ्र ही अपनी राय वोट-मशीन में दर्ज करवा देंगे। ऐसे में राजीव गांधी के नाम पर चुनाव लड़ने की चुनौती देकर प्रधानमंत्री क्या हासिल करना चाहते हैं, यह बात समझ आनी मुश्किल है।

सवाल यह है कि अंतिम दो चरणों के चुनाव के मद्देनजर प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस को चुनौती क्यों दी कि वह राजीव गांधी और बोफोर्स घोटाले पर चुनाव लड़े? कांग्रेस दिल्ली, पंजाब और भोपाल में पूर्व प्रधानमंत्री के मान-सम्मान के मुद्दे पर चुनाव लड़ ले? देखिए, क्या खेल खेला जाता है? प्रधानमंत्री की इसी चुनौती में उनकी रणनीति निहित है। अभी पूरे पंजाब, हरियाणा, हिमाचल और दिल्ली समेत उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों की 118 सीटों पर मतदान शेष है। प्रधानमंत्री और भाजपा की रणनीति के मुताबिक चूंकि कुछ राज्यों में तो सिखों की आबादी घनी है, लिहाजा 1984 के सिख-विरोधी दंगों पर शेष चुनाव लड़ा जाना चाहिए। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उन दंगों में 2733 मासूम सिखों का कत्लेआम किया गया था। यह आंकड़ा ज्यादा भी हो सकता है। भाजपा उस नरसंहार को भुनाना चाहती है और अंतत: सिखों को अपने पक्ष में लुभाते हुए लामबंद करना चाहती है। सिख-विरोधी दंगे कांग्रेस की नाजुक रग रहे हैं। यदि राजीव गांधी पर चर्चा शुरू होती है, तो वह बयान भी सामने आएगा कि जब बड़ा पेड़ गिरता है, तो जमीन हिलती ही है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या पर राजीव गांधी ने यह बयान दिया था और उसके बाद दंगे भड़के और फैले थे। इस मुद्दे ने नया मोड़ तब ले लिया, जब दिल्ली विश्वविद्यालय के कांग्रेस समर्थक अध्यापकों ने प्रधानमंत्री मोदी के मुद्दे का विरोध किया और खंडन भी किया, लेकिन प्रतिक्रिया में भाजपा समर्थक128 अध्यापकों ने एनडीए उम्मीदवारों को वोट देने का आह्वान किया। जब भी कोई चुनाव होता है, तब राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे को कामचोर ठहराने में लगी रहती हैं, लेकिन सवाल तो यह उठता है कि देश में कौन-सी राजनीतिक पार्टी आमजन की हितैषी है? किस पार्टी के सत्ताधारी या राजनेता आमजन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में रुचि दिखाते हैं? किस राजनीतिक पार्टी के लोग आमजन के घरद्वार तक जाकर लोगों की समस्याओं को सुलझाते हैं?

अगर देश के राजनीतिक दल यह मान कर बैठे हैं कि गड़े मुर्दे खोदकर, नेताओं व परिवारों पर गंदी, विवादित बयानबाजी करके जनादेश हासिल किया जा सकता है, तो निश्चित ही वे बड़ी गलतफहमी के शिकार हैं, क्योंकि आम जनता का इन मुद्दों से कोई सरोकार नहीं होता है। गरीब को रोटी, कपड़ा, मकान की जरूरत है। किसान को उत्पादन का उचित मूल्य चाहिए, बेरोजगारों को नौकरी, कर्मचारी वर्ग को पुरानी पेंशन बहाली, बैंक कर्मचारियों को पेंशन अपडेशन, महिलाओं को संसद और नौकरियों में अधिक भागीदारी व सुरक्षा चाहिए। व्यापारियों को इंस्पेक्टर राज से मुक्ति, अल्पसंख्यकों एवं दलितों को सम्मान, आम लोगों को महंगाई से छुटकारा और विकास व खुशहाली चाहिए। देश की जनता को जो वादे किए गए हैं, उनका हिसाब चाहिए। अत: दलों को जनता से संबंधित बात ही करनी चाहिए। विकास का मुद्दा गौण है। जनता हतोत्साह एवं परेशान है। अमर्यादित भाषा के खेल में भारतीय जनतंत्र का आये दिन धज्जी उड़ता दिख रहा है। कोई अपनी उपलब्धि भुना रहा है, तो कोई अपने सुनहरे अतीत की दुहाई दे रहा है। जनता मूक एवं किंकर्तव्यविमूढ़ है। चुनाव आयोग को चाहिए कि वह अमर्यादित भाषा का उपयोग एवं जनता को गुमराह करने वाले भाषाई घालमेल से सभी पार्टी को दूर रहने का एक सख्त नियम बनाये एवं इस को तोड़ने वाले दल या नेता को चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाये।
आशीष वशिष्ठ

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