परमाणु हथियारों पर विभाजित दुनिया

Nuclear War

परमाणु हथियारों पर प्रतिबंध लगाने से जुड़ी पहली वैश्विक संधि की स्वीकृति के लिए संयुक्त राष्ट्र में 122 देशों के मतदान व समर्थन से भले ही परमाणु हथियारों पर रोक का प्रस्ताव पारित हो गया हो, लेकिन भारत, अमेरिका समेत नौ परमाणु संपन्न देशों के बहिष्कार से कहना मुश्किल है कि दुनिया को परमाणु हथियारों से मुक्त रखना संभव होगा। इस वैश्विक संधि में शामिल न होने के लिए अमेरिका ने तर्क दिया है कि ये संधि उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम से उपजे संकट और अन्य सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का समाधान पेश नहीं करती है।

समझना कठिन नहीं है कि जब परमाणु संपन्न देश इस संधि के पक्ष में नहीं हैं, तो फिर इस संधि का कितना महत्व रह जाता है। उचित होता कि दुनिया के सभी देश इस मसले पर विभाजित होने की बजाए, परमाणु हथियार मुक्त विश्व निर्माण की दिशा में आगे बढ़ते। इसलिए कि आज विश्व में 70 हजार से अधिक परमाणु शस्त्र हैं और प्रत्येक शस्त्र की क्षमता हिरोशिमा और नागासाकी जैसे किसी भी शहर को एक झटके में मिटा देने में सक्षम है। इन शस्त्रों के जरिए दुनिया को एक-दो बार नहीं, बल्कि दर्जनों बार मिटाया जा सकता है।

आंकड़ों पर गौर करें, तो अमेरिका ने 1945 के बाद से हर नौ दिन में एक के औसत से परमाणु परीक्षण किए हैं। 1945 के बाद से दुनिया में कम से कम 2060 ज्ञात परमाणु परीक्षण हो चुके हैं, जिनमें से 85 फीसद परीक्षण अकेले अमेरिका और रुस ने किया है। इसमें से अमेरिका ने 1032, रुस ने 715, ब्रिटेन ने 45, फ्रांस ने 210, चीन ने 45 परीक्षण किए हैं। भारत और पाकिस्तान द्वारा भी 6 परमाणु परीक्षण किए जा चुके हैं। गौरतलब है कि अमेरिका ने 16 जुलाई, 1945 को मैक्सिको के आल्मागार्दो रेगिस्तान में परमाणु बम का परीक्षण किया और उसके बाद से ही परमाणु युग की शुरुआत हुई।

अमेरिका की देखा-देखी सोवियत संघ ने 1949 में, ब्रिटेन ने 1952 में, फ्रांस ने 1958 में तथा चीन ने 1964 में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया। इस बिरादरी में भारत भी सम्मिलित हो गया, जब उसने 18 मई, 1974 को पोखरन में अपना प्रथम भूमिगत परीक्षण किया। अब हालात यह है कि समूची दुनिया कभी न खत्म होने वाली परमाणु परीक्षणों की घुड़दौड़ में शामिल हो गयी है।

परमाणु अस्त्रों के उत्पादन को सीमित करने तथा उनके प्रयोग एवं उनके परीक्षण पर रोक लगाने के संबंध में संसार की दो महाशक्तियों के बीच 1967 की परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी), जिसे 12 जून 1968 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भारी बहुमत से स्वीकृति प्रदान की और 5 मार्च 1970 से प्रभावी हो गयी। इस संधि के अंतर्गत यह व्यवस्था दी गयी कि कोई भी परमाणु संपन्न देश अकेले या मिलकर अपने अस्त्र किसी भी राष्ट्र को नहीं देंगे। संधि पर हस्ताक्षर करने वाला प्रत्येक राष्ट्र आणविक अस्त्रों की होड़ समाप्त करने एवं आणविक नि:शस्त्रीकरण को प्रभावशाली बनाने के लिए बाध्य होगा। लेकिन यहां उल्लेखनीय तथ्य यह कि इस संधि के प्रारुप पर आपत्ति जताते हुए फ्रांस, इटली, जर्मनी और भारत ने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया।

भारत के अनुसार यह संधि भेदभावपूर्ण, असमानता पर आधारित एकपक्षीय एवं अपूर्ण है। हालांकि भारत को इस नीति के कारण परमाणु क्लब के सदस्यों की कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा। लेकिन भारत अब भी अपने पुराने तर्क पर कायम है कि आणविक आयुधों के प्रसार को रोकने और पूर्ण नि:शस्त्रीकरण के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्षेत्रीय नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किया जाना चाहिए। भारत के इस तर्क से विश्व के कई देश सहमत हैं।

भारत हमेशा से परमाणु शस्त्रों के निषेध का पक्षधर रहा है। लेकिन विडंबना है कि भारत की परमाणु नीति को 1974 और 1998 के परमाणु परीक्षण से जोड़ते हुए उसे संदेह की परिधि में रखा जाता है। यह उचित नहीं है। वैश्विक समुदाय को समझना होगा कि यह भारत की आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति और आत्मसुरक्षा के लिए बेहद आवश्यक था। भारत परमाणु कार्यक्रम का उपयोग अंतरिक्ष में उपग्रह छोड़ने, उपग्रह से एकत्रित आंकड़ों को बेचने, दूर संचार व दूर संवेदन जैसे कामों में कर रहा है। भारत वैश्विक शांति के लिए प्रतिबद्ध है।

भारत हमेशा से परमाणु शस्त्रों के निषेध का पक्षधर रहा है। लेकिन विडंबना है कि भारत की परमाणु नीति को 1974 और 1998 के परमाणु परीक्षण से जोड़ते हुए उसे संदेह की परिधि में रखा जाता है। यह उचित नहीं है।

अरविंद कुमार सिंह

 

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