इस चुनावी मौसम में महिलाओं के कल्याण के बारे में बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं। हिमाचल प्रदेश में चुनाव संपन्न हो गए हैं और गुजरात विधान सभा और दिल्ली नगर निगम के चुनाव होने वाले हैं। सभी पार्टियां महिला मतदाताओं को लुभाने का प्रयास कर रही हैं और अपने अपने चुनाव घोषणा पत्र में महिला सशक्तिकरण की बातें कर रही हैं। उच्चतम न्यायालय द्वारा महिलाओं के लिए आरक्षण विधेयक 2008 को फिर से पेश करने के बारे में एक जनहित याचिका पर केन्द्र को नोटिस जारी करने के बाद यह महत्वपूर्ण बन गया है। इस विधेयक में महिलाओं को संसद और राज्य विधान सभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान किया गया। किंतु जब महिलाओं के बारे में किए गए वादों को पूरा करने की बात आती है तो सभी राजनीतिक दल उदासीनता दिखाते हैं।
हैरानी की बात यह है कि हिमाचल प्रदेश में विधान सभा चुनावों में 412 उम्मीदवारों में से केवल 24 महिला उम्मीदवार थीं जबकि पुरूषों की तुलना में अधिक महिलाएं मतदान करती हैं। गुजरात में 192 निर्वाचन क्षेत्रों में से भाजपा की केवल 14 और कांग्रेस की केवल तीन महिला उम्मीदवार हैं। पिछले वर्ष चार राज्यों और एक संघ राज्य क्षेत्र में विधान सभा चुनावों में भी यही स्थिति थी। हमारी जनसंख्या में महिलाओं की हिस्सेदारी लगभग 50 प्रतिशत है और चुनावों में केवल 10 प्रतिशत महिला उम्मीदवार होती हैं जिसमें से केरल में 9 प्रतिशत, असम में 7.8 प्रतिशत, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुडुचेरी में 11 प्रतिशत महिला उम्मीदवार थीं। इससे पूर्व 13 विधान सभा चुनावों में 807 निर्वाचित विधायकों में से केवल 38 महिला विधायक थीं।
वर्ष 1970 के बाद 4845 पुरूषों के विरुद्ध केवल 197 महिलाओं ने चुनाव लड़ा। इसमें नई बात क्या है? यदि हम संसद को ही महिलाओं के प्रतिनिधित्व का पैमाना मानते हंै। तो आशा की कोई किरण नहीं दिखायी देती है। लोक सभा में सर्वाधिक महिला सांसद 59 रही हैं जो कुल सदस्य संख्या का मात्र 14.58 प्रतिशत है और यह विश्व औसत 24 प्रतिशत से बहुत कम है। त्रिपुरा, नागालैंड, अरूणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और पूर्ववर्ती जम्मू कश्मीर से आज कोई भी महिला सांसद नहीं है। वस्तुत: नागालैंड में कभी भी कोई महिला विधायक नहीं रही है। वर्ष 1950 में संसद में महिला सदस्यों की संख्या 5 प्रतिशत थी और पिछले 73 वर्षों में यह बढ़कर मात्र 9 प्रतिशत हुई है और यह दर्शाता है कि इस दिशा में कितनी धीमी गति से प्रगति हुई है। इस मामले में भारत बांग्लादेश, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सऊदी अरब और रवांडा से भी पीेछे है जिनमें क्रमश: 27.7 प्रतिशत, 20.6 प्रतिशत, 19.9 प्रतिशत और 62 प्रतिशत महिला सदस्य हैं। इसके अलावा आठ हजार में से केवल 724 महिलाओं ने चुनाव लड़ा है।
कांग्रेस ने 54 अर्थात 13 प्रतिशत महिला उम्मीदवार खड़े किए। भाजपा ने 53 अर्थात 12 प्रतिशत, मायावती की बसपा ने 24, ममता की तृणमूल ने 23 अर्थात 43 प्रतिशत, पटनायक की बीजद ने 33 प्रतिशत, माकपा ने 10, भाकपा ने 4 और पवार की राकांपा ने एक महिला उम्मीदवार को टिकट दिया जो स्वयं उनकी पुत्री थी। 222 महिलाओं ने निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा। चार ट्रांसजेंडर उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा। विधान सभाओं की स्थिति और भी बुरी है। सिक्किम, मणिपुर नागालैंड सहित छह राज्यों में कोई भी महिला मंत्री नहीं है। किसी भी राज्य में एक तिहाई महिला मंत्री नहीं है। इस मामले में सर्वाधिक 13 प्रतिशत तमिलनाडू में महिला मंत्री है। जबकि 68 प्रतिशत राज्यों में 10 प्रतिशत से कम महिला प्रतिनिधि नेतृत्व की भूमिका में है। स्थिति यह है कि 2014 के लोक सभा चुनावों में 67.09 प्रतिशत पुरूषों की तुलना में 65.63 प्रतिशत महिलाओं ने मतदान किया और देश के 29 राज्यों में से 16 राज्यों में पुरूषों की तुलना में महिलाएं अधिक मतदान करती हैं।
वस्तुत: 2009 के लोक सभा चुनावों में ममता द्वारा महिलाओं के लिए टिकट आरक्षित करना चर्चा में आया था और उनकी तृणमूल कांग्रेस ने 42 उम्मीदवारों में से 17 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया। तूणमूल कांग्रेस के 22 निर्वाचित लोक सभा सांसदों में से 9 महिलाएं हैं। आज कुछ गिनी-चुनी महिला नेता हैं जिनमें सोनिया गांधी, ममता, मायावती प्रमुख हैं। इसलिए सरोजनी नायडू, सुचेता कृपलानी, अरूणा आसफ अली, दुर्गाबाई देशमुख, सावित्री बाई फूले की तरह सुदृढ़ महिला उम्मीदवारों की उम्मीद कम है जिन्होंने न केवल पितृ सत्तात्मक मानदंडों को नकारा अपितु महिला सशक्तिकरण की ओर भी ध्यान दिया। वर्ष 2014 का महिला चुनाव घोषणा पत्र के रूप में स्वागत किया गया जिसमें सभी प्रमुख दलों ने संसद और विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का पक्ष लिया।
इससे प्रश्न उठता है कि भारत अपनी महिलाओं के प्रति इतना उदासीन क्यों है और अभी तक देश में महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान क्यों नहीं किया गया है जबकि महिला नेता भारत को गौरवान्वित कर रही हैं। इंदिरा गांधी एक सशक्त प्रधानमंत्री रही हैं जिन्हें मंत्रिमंडल में एकमात्र पुरूष का उपनाम दिया गया था। हाल के समय में उनकी बहू सोनिया, ममता, मायावती, स्व. जयललिता, पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल आदि महिला सशक्तिकरण के उदाहरण के रूप में उद्धृत किए जाते रहे हैं। यह सच है कि पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक तिहाई स्थानों के आरक्षण से महिला नेताओं की इन निकायों में राजनीतिक भागीदारी बढ़ी है। किंतु इस बात के भी अनेक उदाहरण हैं कि महाराष्ट्र से लेकर बिहार तक विभिन्न राज्यों में पुरूषों द्वारा महिलाओं का उपयोग चुनाव जीतने के लिए परोक्षी के रूप में किया जा रहा है।
राजनीतिक सशक्तिकरण उपसूचकांक में भी भारत जहां पिछले वर्ष 18वें स्थान पर था अब 51वें स्थान पर पहुंच गया है। केंद्रीय मंत्री परिषद में महिला मंत्रियों की संख्या पर्याप्त है फिर भी राजग ने 108वें संशोधन विधेयक को पुन: संशोधित करने के बारे में कुछ नहीं किया गया? क्या उन्हें यह इस सच्चाई का स्मरण कराने की आवश्यकता है कि प्रकृति ने पुरूषों और महिलाओ को समान माना है और संविधान ने इसका समर्थन किया है। यदि भारत वास्तव में विकास करना चाहता है तो उसे अच्छे कानून बनाकर इस संबंध में प्रावधान करने होंगे न कि केवल प्रतीकात्मक कदम उठाने होंगे। यदि हम अपने सर्वोत्तम संसाधनों का उपयोग करना चाहते हैं तो हमें सबसे पहले अपनी स्त्री शक्ति को गंभीरता से लेना होगा और उसमें निवेश करना होगा। समय आ गया है कि हमारे नेता महिलाओं को आगे बढाएं और समाज में उन्हें स्थान दें। संविधान में महिलाओं को समान अधिकार दिए गए हैं। आरक्षण से वे और आगे बढेंगी। इस संबंध में एक क्रांतिकारी बदलाव की आवश्यकता है। केवल बातें करने से काम नहीं चलेगा। समय आ गया है कि हम इस बात को ध्यान में रखें कि किसी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम पैमाना उसकी महिलाओं के साथ व्यवहार है। तब तक विश्व का कल्याण नहीं हो सकता जब तक महिलाओं की स्थिति में सुधार न हो। क्या महिलाएं अबला बनी रहेंगी? क्या हम सांकेतिकता को समाप्त कर नए अध्याय की शुरुआत करेंगे।
-पूनम आई कौशिश, वरिष्ठ लेखिका एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार
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