एक जादू की झप्पी ने प्रधानमंत्री मोदी को अचंभित कर दिया। इस झप्पी से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने नमो को मोदी शैली में ही उत्तर दे दिया और यह स्पष्ट किया कि हालांकि राजनीतिक दृष्टि से वे भाजपा का विरोध करते हैं किंतु वे मोदी से घृणा नहीं करते हैं। आप इसे पप्पू की बात भी कह सकते हैं, मुन्ना भाई की हरकत भी कह सकते हैं और इसे संसदीय मर्यादा के विरुद्ध भी कह सकते हैं किंतु उनकी यह झप्पी न केवल सुर्खियों में रही अपितु इससे राजनीतिक हिन्दू परेशान हो गए। भाजपा राहुल के इस कदम को बचकाना कहती है और केवल दिखावा बताती है तथा शुक्रवार को लोक सभा में अविश्वास प्रस्ताव पर लंबी चली बहस में चिपको आंदोलन शुरू करना बताते हैं। यह निश्चित था कि अविश्वास प्रस्ताव गिरेगा क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्ष के पास संख्या नहीं थी और मतदान ने भी इसे स्पष्ट कर दिया था। अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में 126 और विपक्ष में 325 मत पड़े। विपक्ष ने बेरोजगारी, राफेल सौदा, किसानों की दुर्दशा, अर्थव्यवस्था आदि के मुद्दे पर सरकार को घेरा। इस अविश्वास प्रस्ताव पर भाजपा की जीत सुनिश्चित थी और विपक्ष के हौसले गिराने के लिए अनेक बातें कही गयी। किंतु भाजपा की सहयोगी शिव सेना ने रंग में भंग डाल दिया और उसने चर्चा में भाग नहीं लिया।
क्या राहुल की यह झप्पी सरकार और विपक्ष के संबंधों में एक नए अध्याय की शुरूआत करेगी? क्या कांग्रेस और भाजपा के बीच कोई नई खिचडी पक रही है? क्या मोदी और राहुल महिलाओं के लिए कुछ नया करने वाले हैं? विशेषकर इसलिए कि भारत को विश्व की बलात्कार राजधानी और महिलाओं के लिए असुरक्षित कहा जाता है। समाचार पत्रों में हर दिन खबरें छायी रहती हैं कि दो-चार-छह वर्ष की बच्चियों का बलात्कार किया गया है, चलती रेलगाडी में किशोरियों के साथ बलात्कार किया जा रहा है, चलती कारों में लडकियों और टैक्सी में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा है। हाल ही में असुरक्षित शहरों के बारे में एक सर्वेक्षण में 150 शहरों में नई दिल्ली का स्थान 139वां और मुंबई का 126वां है। हमारे राजनेता मेरा देश महान और ब्रांड इंडिया के बारे में बडी-बडी बातें करते रहते हैं किंतु महिलाआं और लडकियां असुरक्षित वातावरण में रह रही हैं। यदि मोदी और उनका राजग महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए बडी-बडी बातें करते हैं और वे तीन तलाक और निकाह हलाला के संबंध में उनके कल्याण के लिए कदम उठाने की बात करते हैं तो फिर वे संविधान 108वां संशोधन विधेयक अर्थात महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पेश क्यों नहीं करते जिसमें संसद और राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटों के आरक्षण का प्रावधान है।
इस विधेयक को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की पहल पर मार्च 2010 में राज्य सभा में पारित किया गया था। किंतु हमारे नेताओं ने इस व्यापक सुधार वाले विधेयक को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस विधेयक में ऐसा क्या है कि इससे हमारे सांसद अपना आपा खो देते हैं और इसे पारित नहीं होने देते हैं? पिछले आठ वर्षों से इसके बारे में बात तक क्यों नहीं हो रही है और इसे पारित करने में क्या अड़चन है? क्या यह एक बहाना है? क्या यह शिक्षित महिलाओं को खुश करने का एक बहाना है? क्या इसकी बात महिला मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए की जाती है? क्या राजनीतिक दृष्टि से ऐसा करना सही है? इस संबंध में कांग्रेस और भाजपा दोनों के अलग-अलग मत हैं। इस संबंध में सही बातें करने के बावजूद वे महिला सशक्तिकरण के मुद्दे पर आगे नहीं आते हैं और इस विधेयक को वास्तव में पारित नहीं करवाते हैं। इस विधेयक के मार्ग में अनेक अड़चनें हैं। उन्हें विश्वास है कि मायावती के नेतृत्व में दलित और पिछडा वर्ग ब्लॉक इस विधेयक को पारित होने नहीं देगा। इसीलिए वे सार्वजनिक रूप से इस विधेयक का समर्थन करते हैं। निश्चित रूप से वह विधेयक कभी कानून नहीं बनेगा। महिला आरक्षण का खुलेआम विरोध करने वाले लोगों का कहना है कि इस कानून के बनने से केवल शहरी उच्च वर्गीय महिलाएं सत्ता में आएंगी जबकि किसी भी आरक्षण में समान प्रतिनिधित्व नहीं होता है और यदि उनका तर्क सही भी हो तो क्या हम ये मानें कि भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व शहरी शिक्षित महिलाओं के बजाय अखिलेश और तेजस्वी जैसे नेता करें।
विडंबना देखिए। भारत ऐसा देश है जहां पर कहा जाता था कि इंदिरा गांधी अपने मंत्रिमंडल में केवल एक मात्र पुरूष सदस्य थी। महिला मुख्यमंत्री और ग्राम प्रधान यहां रहे हैं किंतु संसद और राज्य विधान मंडलों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के प्रयास विफल हुए हैं। संसद के दोनों सदनों में महिलाओं की संख्या 10 प्रतिशत से कम है। वस्तुत: गत वर्षों में विभिन्न लोक सभाओं में महिलाओं की संख्या कमोबेश एक ही रही है। उनकी संख्या 19 से 62 के बीच रही है। वर्तमान लोक सभा में सर्वाधिक 62 महिला सदस्य हैं। 15वीें लोक सभा में 58, 12वीं में 43, 11वीं में 40, नौंवे मे 28 और छठी में सबसे कम 19 महिला सदस्य थीं। संसद में महिला सदस्यों के मामले में भारत का रिकार्ड सबसे खराब है। 135 देशों में भारत का 105 वां स्थान है। महिलाओं के खराब प्रतिनिधित्व का क्या कारण है? क्या इसका कारण हमारा दृष्टिकोण है? या महिलाओं द्वारा राजनीति के उतार-चढ़ाव से दूर रहना है? अवसरों की कमी है या पुरूषों का प्रभुत्व है? इस सबका कारण ये सब हैं।
साठ के दशक में फ्री सेक्स की शुरूआत हुई तो सत्तर के दशक में ब्रा जलाकर महिलाओं की मुक्ति की शुरूआत की गयी। अस्सी के दशक में गर्भपात के अधिकार के साथ उन्हें समानता दी गयी और नब्बे के दशक में अधिकार और समानता के साथ उन्हें अधिकार संपन्न बनाया गया। वस्तुत: गत सदियों में महिलाओं की स्थिति में बदलाव आया है। प्रत्येक पीढ़ी और दशक में महिलाओं के प्रति भेदभाव को समाप्त करने के लिए कदम उठाए गए। एक महिला कार्यकर्ता के अनुसार महिलाएं पुरूषों की दासी हैं। उनका कार्य खाना बनाना, बच्चों को खाना खिलाना और अपने पति का गृहस्थ निभाना है और यह स्थिति तब है जब महिला-पुरूष अनुपात भी खराब है। देश में लड़कियों के बजाय लड़कों को प्राथमिकता दी जाती है। बालिकाओं की उपेक्षा, साक्षरता में अंतर आदि के कारण पुरूष प्रधान समाज में महिलााओं की कमी है और इन सभी करणों के चलते राजनीति, प्रशासन और आर्थिक कार्यकलापों में महिलाओं की भागीदारी कम रही है। संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को आरक्षण देने से उन्हें मुख्य राजनीतिक धारा में लाने में मदद मिलेगी साथ ही उन्हें प्रभावी राजनीतिक और आर्थिक शक्ति भी मिलेगी।
यह सच है कि राजनीति में ताकतवर महिलाओं की कमी है और पार्टी के आका भी उन पर चुनाव जीतने का भरोसा नहीं करते हैं। साथ ही अधिकतर निर्वाचित निकायों में महिलाओं के मुद्दे की उपेक्षा होती है। किंतु क्या इस एक विधेयक से महिलाओं के प्रति सदियों से चला आ रहा भेदभाव दूर होगा? क्या राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि से बालिका भू्रण हत्याएं कम होंगी, दहेज मृत्यु कम होंगी, बहुओं को कम जलाया जाएगा और महिलाओं की आकांक्षाओं को नहीं दबाया जाएगा? अनुभव बताते हैं कि कानून बनाकर लैंगिक भेदभाव दूर नहीं किए जा सकते हैं। महिलाओं के प्रति भेदभाव के विरुद्ध कठोर कानून बनाने से महिलाओं के विरुद्ध अपराधों मे कमी नहीं आयी है। अक्सर दोषी छूट जाता है या उसे बहुत कम दंड मिलता है।
महिलाओं को अधिकार संपन्न समाज के विकास के साथ बनाया जा सकता है। शिक्षा, परिवार नियोजन, आदि के माध्यम से महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाया जा सकता है। न केवल दिखावे के लिए अपितु वास्तव में इस बात को स्वीकार किया जाना चाहिए कि पुरूष और महिलाएं दोनों बराबर हैं। देखना यह है कि क्या महिलाओं के कल्याण के लिए नए कदम की बातें केवल सांकेतिक बनकर रहेंगी। लिंग विषमता के मामले में हमारा देश 134 देशों में से 114वें स्थान पर है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम महिलाओं के लिए समान अवसर सृजित करें। सुशासन लिंग आधारित नहीं है। अब मोदी और राहुल के लिए बड़ी चुनौती है कि वे इस दिशा में आगे बढें, महिला सशक्तिकरण पर बल दें और यह सुनिश्चित करें कि यह विधेयक पारित हो। क्या हम एक नए दौर की अपेक्षा कर सकते हैं?
पूनम आई कौशिश (इंफा)
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