क्या नई नीति लक्ष्य पूरे करने में कामयाब होगी?

Water policy

केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने योजना आयोग के पूर्व सदस्य और जल विशेषज्ञ मिहिर साह की अध्यक्षता में एक नई राष्ट्रीय जल नीति बनाने के लिए दस सदस्यीय समिति का गठन किया है जो छह माह के अंदर अपनी रिपोर्ट देगी। वर्तमान में राष्ट्रीय जल नीति 2012 का कार्यान्वयन किया जा रहा है। इस जल नीति में नए प्रयोगों में समेकित जल संसाधन प्रबंधन था जिसके अंतर्गत नदी बेसिनों और उप बेसिनों को जल संसाधनों के नियोजन, विकास और प्रबंधन के लिए एक इकाई माना गया था किंतु यह पर्याप्त साबित नहीं हुआ।

सितंबर में जल संसाधन मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने घोषणा की थी कि केन्द्र एक नई जल नीति बनाने पर विचार कर रहा है जिसमें जल प्रशासन ढांचे और विनियामक ढांचे में बदलाव किए जाएंगे और इसका उद्देश्य जल उपयोग के बढाने के कारण जल की कमी से निपटना है। राष्ट्रीय जल उपयोग कार्य कुशलता ब्यूरो के गठन का भी प्रस्ताव है।

यह भी प्रस्ताव किया गया है कि नदी के प्रवाह का एक भाग पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं के लिए अलग रखा जाएगा और इस दृष्टिकोण के चलते 2018 में गंगा नदी में वर्ष भर एक न्यूनतम जल स्तर बनाया रखा गया और जल विद्युत परियेजनाओं को एक सीमा से परे जल भंडारण से बचने के लिए कहा। हालांकि वर्तमान नीति में इस बात पर बल दिया गया था कि देश के सभी नागरिकों के स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिए पेयजल की न्यूनतम मात्रा प्रत्येक घर के लिए उपलब्ध करायी जाएगी किंतु यह उद्देश्य पूरा नहीं हुआ।

नदियों के बेसिनों में जल का अंतरण केवल जल की उपलब्धता में वृद्धि करना नहीं था अपितु इसका उद्देश्य न्यूनतम मानव आवश्यकताओं को पूरा करना और समानता तथा सामाजिक न्याय के लक्ष्यों को प्राप्त करना भी था। नदी बेसिनों के जल के अंतरण को प्रत्येक मामले की गुणवत्ता के आधार पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए। जल प्रबंधन न केवल भारत में अपितु विश्व के अन्य भागों में भी एक मुख्य मुद्दा बन गया है और जल को मूल अधिकार बनाने की मांग की जाने लगी है। 2001-2011 के दौरान भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता में लगभग 15 प्रतिशत की कमी आयी है।

भूमिगत जल का लगभग 22 प्रतिशत सूख गया है। देश में ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 30.80 और शहरी क्षेत्रों में केवल 70.60 घरों में नलों द्वारा जलापूर्ति की जाती है और जल की गुण्वत्ता की कोई गारंटी नहीं है क्योंकि वाटर प्यूरिफायर का कारोबार बढता जा रहा है और इसीलिए सरकार जल को मूल अधिकार घोषित करने से बच रही है और इसी के चलते 2022 तक 90 प्रतिशत ग्रामीण घरों में स्वच्छ जल पहुंचाने का कार्य असंभव सा लगता है। किंतु यदि हम घटनाक्रम और उच्चतम न्यायालाय के निर्णयों पर नजर डालें तो यह मांग उचित है।

भारत में वर्ष 2010 में संयुक्त राष्ट्र के एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे जिसमें स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता के अधिकार को मानव अधिकार माना गया था। इस समझौते में भारत और अन्य देशों से कहा गया था कि वे अपने अपने देश की जनता को सुरक्षित, स्वच्छ जल उपलब्ध कराए और इसकी सुगमता सुनिश्चित करें। उच्चतम न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों में स्पष्ट किया है कि संविधान के अनुचछेद 21 में वर्णित जीवन के अधिकार में स्वच्छ पेयजल का अधिकार भी शामिल है। उदाहरण के लिए केन्द्र सरकार के विरुद्ध नर्मदा बचाओ आंदोलन के मामले में न्यायालय ने सरकार द्वारा बांध के निर्माण को उचित ठहराते हुए कहा था कि जल संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित जीवन और मानव अधिकारों का हिस्सा है।

किंतु प्रश्न केवल जल को मूल अधिकार घोषित करने का नहीं अपितु लाखों लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने का भी है। जल दूषण और इसका प्रबंधन देश के समक्ष बडी समस्या है। किंतु इस संबंध में राष्ट्रीय स्तर पर कुछ नहीं किया गया है। वर्ष 2017 में जल की कमी या प्रदूषित जल के कारण औसतन 7 लोगों की मृत्यु हुई। वर्ष 2014 और 2018 के बीच जल जनित बीमारियों हैजा, आंत्रशोथ और टाइफाइड और वायरल हेपेटाइटिस के कारण 12000 लोगों की जान गयी। जल में आर्सेनिक फ्लोराइड और शीेशे का दूषण एक चिंता का विषय है। इसके अलावा नदियों, झीलों और नहरों का जल भी प्रदूषित हो रहा है जहां से ग्रामीण लोग पेयजल का सेवन करते हैं। देश के अनेक क्षेत्रों में लोग झीलों और तालाबों से नहाने और पीने के लिए पानी लेते हैं।

नदी विकास और गंगा पुनरुत्थान मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2017 में 60 लाख टन रासायनिक फर्टिलाइजर और 9 हजार टन कीटनाशकों का उपयोग गंगा बेसिन के कृषि क्षेत्र में किया गया और 260 मिलियन लीटर अशोधित औद्योगिक जल गंगा नदी में छोडा गया जिसके चलते कानपुर, इलाहाबाद और वाराणसी में गंगा विश्व की सर्वाधिक प्रदूषित नदी बन गयी है। नीति आयोग के अनुसार 70 प्रतिशत जल संसाधन प्रदूषित हैं। भारत को अभी जल की कमी वाला देश घोषित नहीं कर सकते किंतु अधिकतर गांवों और बस्तियों में स्वच्छ तालाब और पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षिज जल भंडारण सुविधाएं नहीं हैं।

देश में वार्षिक वर्षा और हिमपात 1200 मिमी है जो 1000 मिमी के विश्व औसत से अधिक है। इसलिए जल संसाधनों के उचित दोहन के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। वर्षा जल संचयन का विस्तार संपूर्ण देश में किया जाना चाहिए। इससे न केवल जल, खाद्यान्न और ऊर्जा की समस्याएं दूर होंगी अपितु सतत कृषि विकास भी सुनिश्चित होगा। इसके अलावा कृषि क्षेत्र में भी जल के कुशल प्रयोग पर बल दिया जाना चाहिए। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार कृषि क्षेत्र में जल की खपत 89 प्रतिशत है। सिंचाई क्षमता में कुशलता लाने की बात कही जा रही है।

वस्तुत: निर्मित सिंचाई क्षमता और उसके उपयोग में अंतर बढता जा रहा है। किसानों को धान और गेहूं के उत्पादन के बजाय मक्का, ईथनॉल आदि के उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जहां पर जल की खपत कम है। नई नीति में सुनियोजित ढंग से कृषि क्षेत्र में जल का उपयोग कम करने की रूपरेखा तय की जानी चाहिए। मूल्य वर्धित फसलों पर बल दिया जाना चाहिए जिनमें जल की खपत कम हो ताकि अगले तीन-चार वर्षों में जल की खपत में 8-9 प्रतिशत की कमी आए।

पंचायत और विकास खंड स्तर पर पेयजल तथा स्नान आदि के तालाब अलग अलग किए जाने चाहिए। यह भी सच है कि बडे बांध अधिक उपयोगी नही होते हैं और पानी के मामले में छोटे बांध अधिक उपयोगी हैं। महात्मा गांधी ने भी अर्थक्षम छोटे बांधों के निर्माण पर बल दिया था ताकि प्रत्येक गांव आत्मनिर्भर बन सके। इसलिए सभी के लिए जल उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु समिति की सिफारिशों में जिला स्तर पर ध्यान दिया जाना चाहिए तभी जल को मूल अधिकार बनाया जा सकता है।
धुर्जति मुखर्जी

 

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