क्या नई सरकार गरीबों पर ध्यान देगी?

Will the new government focus on the poor?

2019 के आम चुनावों के लिए चुनाव प्रचार और मतदान संपन्न हो चुका है। मतदान करने वालों ने ऐसा बेहतर भविष्य की आशा में किया है और जिन्होंने मतदान नहीं किया उनको कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन गठबंधन सत्ता में आता है। दुर्भाग्यवश भारत का राज्य तंत्र व्यावसायिक घरानों से प्रभावित है जो इस बात का ध्यान रखता है कि उनके हित पूरे हों। राजनेताओं और नौकरशाहों को अपने वश में करने के लिए धन बल महत्वपूर्ण भमिका निभाता है। राजनेताओं और व्यावसायिक घरानों के बीच सांठगांठ के चलते राजनीतिक पार्टियों की भावी भूमिका के बारे में निराशा बनी हुई है और इसीलिए आज शिक्षित लोगों का एक बड़ा वर्ग राजनीतिक कार्यकलापों से दूर है। उनका मानना है कि उनकी नीतियां गलत हैं, भ्रष्टाचार सर्वत्र व्याप्त है और नैतिक मूल्यों का अभाव है।

गत वर्षों में नीतियों में धनी और उच्च मध्यम वर्ग का ध्यान रखा गया है। इसीलिए महानगरों में निवेश बढ़ा तथा ग्रामीाण क्षेत्रों की उपेक्षा हुई है। न केवल राजनीतिक दल अपितु कुछ समय से शीर्ष न्यायपालिका भी इससे प्रभावित हुई है। हाल ही में न्यायमूर्ति अरूण मिश्रा की खंडपीठ ने इस बात पर हैरानी जतायी कि भवन निर्माता आम्रपाली के विरुद्ध आदेश को कैसे बदला गया। उनका कहना था कि इसका तात्पर्य है कि कुछ प्रभावी कारपोरेट घरानों ने न्यायालय के कर्मचारियों को वश में करने के लिए न्यायपालिका में घुसपैठ कर ली है। किंतु खंडपीठ ने आश्वासन दिया कि उसने उसकी जांच के आदेश दे दिए हैं। इससे पूर्व एक खंडपीठ द्वारा अनिल अंबानी अवमानना मामले में दिए गए आदेश में न्यायालय के कर्मचारियों ने बदलाव किया जिसके चलते दो कर्मचारियों को बर्खास्त किया गया और उनके विरुद्ध आपराधिक मामला दर्ज किया गया है। इसके अलावा मुख्य न्यायधीश की खंडपीठ ने इस पर हैरानी जतायी कि राफेल निर्णय की समीक्षा का मामला कार्यक्रम के अनुसार सूचीबद्ध नहीं है। यह बताता है कि धनी और शक्तिशाली लोग किस सीमा तक जा सकते हैं।

सरकार लक्ष्यों की प्राथमिकता निर्धारित करने में विफल रही है और आम जनता की उपेक्षा हो रही है। स्वास्थ्य क्षेत्र को ही लें। कोई भी सरकार इसमें सुधार करने में सफल नहीं रही है। स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए कम आवंटन किया गया है। इंटनरेशनल जर्नल आॅफ ड्रग पॉलिसी में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार शराब की खपत से देश की अर्थव्यवस्था को उससे अधिक नुकसान हो रहा है जितना प्रति वर्ष सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च करती है। अध्ययन में पाया गया कि शराब की बिक्री से प्राप्त कर के समायोजन के बाद शराब की खपत के कारण आर्थिक हानि सकल घरेलू उत्पाद के 1.45 प्रतिशत पर पहुंच गया है जबकि स्वास्थ्य क्षेत्र पर व्यय सकल घरेलू उत्पाद का 1.1 प्रतिशत है। इससे स्पष्ट होता है कि सरकार का ध्यान शराब की बिकी से कर राजस्व प्राप्त करने पर है न कि स्वास्थ्य पर इसके खराब प्रभावों पर। अध्ययन में कहा गया है कि 2050 तक शराब के चलते स्वास्थ्य समस्याओं के कारण आर्थिक भार 3228 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाएगा जो 2018 में भारत के स्वास्थ्य बजट से अधिक है।

देश में अभी भी सिर पर मैला ढोने की प्रथा है। ऐसा कार्य करने वाले अक्सर अनुसूचित जाति/जनजाति के लोग होते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 26 लाख शुष्क शौचालय थे हालांकि स्वच्छ भारत अभियान के चलते इनकी संख्या में कुछ कमी आयी है। सर पर मैला ढोने वाले कर्मचारियों के लिए संघर्ष कर रहे संगठन सफाई कर्मचारी आंदोलन ने जीवन का अधिकार कार्ड की मांग की है जिससे उन लोगों को नि:शुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आजीविका और अन्य लाभ मिल सकें। संगठन ने इन कर्मचारियों के लिए 6 हजार रूपए प्रति माह पेंशन की मांग भी की है किंतु किसी भी राजनीतिक दल ने चुनाव प्रचार के दौरान इसे मुद्दा नहीं बनाया है। ये दो उदाहरण बताते हैं कि सत्ता में चाहे कोई भी आए नीतियां वही रहती हैं और गरीब लोगों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता है।

यदि सरकार कार्य नहीं कर सकती है तो क्या हमें अर्थव्यवस्था में निजी निवेश की मांग करनी चाहिए? किंतु ऐसा नहीे होना चाहिए क्योंकि प्राइवेट सेक्टर केवल तब निवेश बढाता है जब उसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मुनाफा दिखायी देता है। इसी के चलते आज प्राइवेट अस्पतालों की संख्या बढ रही है किंतु वे आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं। ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही है कि वर्तमान में चल रहे कृषि और ग्रामीण संकट के कारण भारत में रोजगारविहीन वृद्धि होगी और ग्रामीण जनसंख्या का शहरों की ओर पलायन होगा। इसलिए ग्रामीण क्षेत्र के पक्ष में नीतियां बनायी जानी चाहिए। नई सरकार को इस बात पर ध्यान देना होगा कि गरीब और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के हितों की किस प्रकार रक्षा की जाए। जब तक वास्तविक स्थिति की समझ न हो और राजनीतिक इच्छाशक्ति न हो नियोजन और विकास प्र्िरक्रया में बदलाव नहीं आ सकता है। जब तक नेतृत्व गांधीवादी भावना के अनुसार सामुदायिक हित के लिए कार्य करने की नहीं सोचता तब तक ऐसा नहीं हो सकता है।

भारत में वामपंथी दल सामुदायिक भावना में विश्वास करते हैं किंतु नई सरकार में उनकी कोई भमिका नहीं होगी। भाजपा के नेतृत्व में राजग को अनेक लोग व्यावसायिक घरानों का पक्षधर मानते हैं और कांग्रेस इस बात पर बल दे रही है कि किस प्रकार जनता को लुभाने की रणनीति अपनायी जाए और इसलिए उसने न्याय, स्वास्थ्य का अधिकार और अन्य योजनाओं की बात की है जिन्हें बहुत पहले अपनाया जाना चाहिए था। कांग्रेस द्वारा एक अलग राष्ट्रीय कृषि विकास और नियोजन आयोग के गठन के सुझाव पर ध्यान दिया जाना चाहिए जो सरकार को यह सुझाव देगा कि कृषि को किस प्रकार अर्थक्षम, प्रतिस्पर्धी और लाभदायक बनाया जाए और उसके साथ ही कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम को रद्द किया जाए। इसका ग्रामीण क्षेत्रों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अगले कुछ दिनों में नई सरकार बनने वाली है और राजनीतिक दल इस बात का विश्लेषण अवश्य करेंगे कि उनके पक्ष में कौन सी बातें गयी और विरुद्ध कौन सी बातें गयी।

प्रत्येक दल में ऐसे विश्लेषकों की कमी नहीं है किंतु आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए नीतियों पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। शायद सभी राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणा पत्र के अध्ययन से इस मामले में कुछ सहायता मिलेगी। इसके अलावा चुनाव प्रचार के दौरान जो हिंसा और घृणा देखने को मिली उस पर भी नियंत्रण किया जाना चाहिए और प्रत्येक समुदाय के हितों की रक्षा के लिए समाज का समेकन किया जाना चाहिए। क्या जनता द्वारा की गयी यह मांग बहुत बड़ी होगी?
धुर्जति मुखर्जी

 

Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।