लौटेंगे देश में न्यायिक सक्रियता के दिन?

Country, Judicial Activism

न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के रिटायर होने के बाद आखिरकार सारी अटकलों पर विराम लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई ने 3 अक्तूबर को देश के 46वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदभार संभाल लिया। दरअसल जस्टिस गोगोई सुप्रीम कोर्ट के उन चार जजों में शामिल थे, जिन्होंने इसी साल 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार अदालती मुद्दों को लेकर एक प्रेस कांफ्रैंस कर चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की आलोचना करते हुए सुप्रीम कोर्ट के कामकाज के तरीके और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर गंभीर सवाल उठाए थे और यहां तक कह डाला था कि लोकतंत्र खतरे में है, जिसके बाद यही संदेश गया था कि देश की सबसे बड़ी अदालत में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और उसी के बाद से आशंकाएं जताई जा रही थी कि संभव है, सरकार जस्टिस गोगोई की वरिष्ठता के बावजूद सीजेआई के रूप में किसी और के नाम पर मुहर लगा दे।

दरअसल उनकी पहचान स्वतंत्र रहकर काम करने वाले जज की है और केन्द्र सरकार भी यह बखूबी जानती और समझती है, इसीलिए कहा जा रहा था कि सरकार किसी ऐसे व्यक्ति को इस पद पर स्वीकार नहीं करेगी, जिसकी छवि राजनीतिक दबाव के समक्ष न झुकने वाले शख्स की हो। इसी के चलते अटकलें लगाई जा रही थी कि उनकी नियुक्ति में सरकार द्वारा अड़ंगा लगाया जा सकता है लेकिन अंतत: संवैधानिक परम्परा का निर्वाह करते हुए जस्टिस गोगोई को ही देश का मुख्य न्यायाधीश बनाए जाने के बाद उनकी नियुिक्त को लेकर उपजी तमाम आशंकाएं और अटकलें पूरी तरह निराधार साबित हुई। स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभी तक सिर्फ दो बार ही ऐसे अवसर आए हैं जब वरिष्ठता को दरकिनार किया गया हो।

सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान जजों में सबसे मुखर और अनुशासनप्रिय जज तथा सादा जीवन, उच्च विचार की छवि वाले गोगोई को पारदर्शिता का पक्षधर माना जाता रहा है। 1997 में एक फुल कोर्ट मीटिंग के दौरान सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास किया गया था, जिसमें कहा गया था कि सुप्रीम कोर्ट में पारदर्शिता बनाए रखने के लिए सभी जजों को अपनी सम्पत्ति से जुड़ी जानकारियां उजागर करनी चाहिएं लेकिन जस्टिस गोगोई सहित सुप्रीम कोर्ट के सिर्फ 11 जजों ने ही अपनी सम्पत्ति से जुड़ी जानकारियां सार्वजनिक की हैं।

जस्टिस गोगोई असम के राजनीतिक परिवार से संबंध रखते हैं, जिनके पिता केशवचंद गोगोई कांग्रेस के एक दिग्गज नेता और 1982 में असम के मुख्यमंत्री भी रहे। बताया जाता है कि एक बार जब केशवचंद गोगोई से पूछा गया कि उनका पुत्र रंजन भी क्या उन्हीं की भांति राजनीति में प्रवेश करेगा तो उन्होंने कहा था कि उनका बेटा एक शानदार अधिवक्ता है, जिसके अंदर देश के मुख्य न्यायाधीश बनने की क्षमता विद्यमान है। बहरहाल, देश के मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी पर आसीन होकर जस्टिस रंजन गोगोई ने अपने पिता के इस कथन को साकार कर दिखाया है।

जस्टिस गोगोई ने मुख्य न्यायाधीश पद के लिए अपना नाम घोषित होने से पहले गोयनका मेमोरियल लैक्चर के दौरान कहा था कि न्याय व्यवस्था उम्मीद की आखिरी किरण है, जिसे निष्पक्ष रहते हुए संस्थागत गरिमा को बनाए रखना चाहिए। देश की न्यायिक व्यवस्था पर तीखी टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था कि इस समय न्याय व्यवस्था एक ऐसा मजदूर नहीं है, जो अपने औजारों को दोष देता है बल्कि एक ऐसा मजदूर है, जिसके पास औजार ही नहीं हैं। ऐसे में ये सवाल उठे थे कि इस मजदूर के औजार किन लोगों के पास हैं और उन्हें मजदूर के हाथों तक क्यों नहीं पहुंचाया जा रहा, आखिर बगैर औजारों के मजदूर काम कैसे करेगा? अब देखना यह है कि इस दिशा में जस्टिस गोगोई क्या कड़े कदम उठाते हैं।

अपना पदभार संभालते ही जस्टिस गोगोई ने जिस प्रकार प्राथमिकता के आधार पर मामलों की अविलम्ब सुनवाई की बात कही है और अपनी प्राथमिकताओं में स्पष्ट भी किया है कि वे गरीबों की जनहित याचिकाओं पर विशेष ध्यान देंगे, उससे उम्मीद की जाने लगी है कि देश की सर्वोच्च अदालत में न्यायिक सक्रियता के दिन लौटेंगे। उन्होंने कहा है कि कोई फांसी पर चढऩे वाला हो या किसी को उसी के घर से बेदखल कर दिया हो, ऐसे ही मामलों की तत्काल सुनवाई होगी अन्यथा हर मुकद्दमे की क्रमानुसार ही सुनवाई होगी। पहले ही दिन चुनाव सुधार को लेकर भाजपा नेता अश्वनी उपाध्याय की याचिका उनके बर्ताव के चलते खारिज कर नए चीफ जस्टिस ने स्पष्ट संकेत भी दे दिया है कि उनके कार्य करने का अंदाज क्या होगा।

जस्टिस गोगोई को करीब 13 माह का कार्यकाल मिला है, जो 17 नवम्बर 2019 को सेवानिवृत होंगे। जिन परिस्थितियों में उन्होंने अल्पावधि का यह कार्यकाल संभाला है, उसमें उनके समक्ष अनेक विकट चुनौतियां मौजूद रहेंगी। उन्हें अपने इस छोटे से कार्यकाल में कई अहम मुकद्दमों की सुनवाई करनी है और अदालतों से जुड़े कई महत्वपूर्ण मसलों का भी समाधान करना है। वैसे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल प्राय: छोटा ही होता है और इसी छोटे से कार्यकाल के दौरान ही उन्हें बहुत से महत्वपूर्ण फैसले लेने होते हैं।

उम्मीद की जानी चाहिए कि ईमानदारी, सादगी, उदारवादिता और न्यायिक मामलों में सख्त मिजाज के लिए जाने जाते रहे जस्टिस रंजन गोगोई अपने इस 13 माह के छोटे कार्यकाल के दौरान कुछ ऐसे कड़े फैसले अवश्य लेंगे, जो न्यायिक इतिहास में मिसाल बन जाएंगे। चीफ जस्टिस के लिए बहुचर्चित रामजन्मभूमि विवाद पर फैसला सुनाना बहुत बड़ी चुनौती होगी।

असम के नेशनल सिटीजन रजिस्टर मामले की सुनवाई तो पहले से ही उनकी अध्यक्षता वाली पीठ कर ही रही है। जस्टिस दीपक मिश्रा द्वारा सुनाए गए कुछ फैसलों पर आम राय नहीं बन पाने की स्थिति में ऐसे कुछ मामले भी पुनर्विचार के लिए सुप्रीम कोर्ट में आ सकते हैं, जिन पर जस्टिस गोगोई को फैसला देना होगा। इसके अलावा अदालतों में मुकद्दमों की बढ़ती संख्या और उनका निपटारा, न्यायपालिका और सरकार के बीच चल रहे टकराव से निपटते हुए जनमानस में न्यायपालिका की छवि मजबूत बनाना इतना आसान कार्य नहीं है किन्तु इस कार्य में एक न्यायाधीश के रूप में 17 वर्षों का लंबा अनुभव उनके काम आएगा।

जस्टिस गोगोई ने 1978 में गुवाहाटी में अपनी वकालत की शुरूआत की थी, वे संवैधानिक, कराधान और कम्पनी मामलों के विशेषज्ञ रहे हैं। 28 फरवरी 2001 को वे गुवाहाटी हाईकोर्ट के न्यायाधीश बने और 2010 में उनका तबादला पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में हो गया। 2011 में वे पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तथा 23 अप्रैल 2012 को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बने।

आज ईवीएम और बैलेट पेपर में ‘नोटा का जो विकल्प उपलब्ध है, वह जस्टिस गोगोई, पूर्व चीफ जस्टिस पी सदाशिवम तथा जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की खण्डपीठ की ही देन है। जस्टिस गोगोई वही जज हैं, जिन्होंने सौम्या मर्डर केस की सुनवाई के दौरान ब्लॉग लिखने पर रिटायर्ड जज जस्टिस काटजू को अदालत में तलब कर लिया था।

जस्टिस रंजन गोगोई के समक्ष विद्यमान वर्तमान चुनौतियों पर चर्चा करें तो उनके समक्ष इस समय सबसे बड़ी चुनौती है अदालतों में जजों की नियुक्ति की क्योंकि एक ओर जहां देशभर की अदालतों में मुकद्दमों का अंबार बढ़ता जा रहा है, वहीं अदालतें लंबे समय से जजों की कमी से जूझ रही हैं। अगर निचली अदालतों को छोड़ दें तो देशभर के कुल 24 हाईकोर्टों में ही वर्तमान में जजों के 427 पद रिक्त पड़े हैं और सुप्रीम कोर्ट में ही जजों के कुल स्वीकृत 31 पदों में से 7 खाली पड़े हैं। अदालतों में जजों की नियुक्ति के मसले पर अक्सर सरकार और न्यायपालिका के बीच तनाव की स्थिति बरकरार रही है।

हालांकि संविधान पीठ द्वारा करीब तीन साल पहले सरकार को सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुिक्त के लिए नई प्रक्रिया बनाने को कहा गया था किन्तु विड़म्बना है कि इसे अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है। जहां तक अदालतों में लंबित मुकद्दमों की बात है तो निचली अदालतों में करीब 2.78 करोड़, हाईकोर्ट में 32.4 लाख तथा सुप्रीम कोर्ट में 55 हजार से अधिक मुकद्दमे लंबित हैं।

पदभार संभालते ही चीफ जस्टिस गोगोई ने कहा है कि उनकी प्राथमिकता अदालतों में जजों की नियुक्ति और अदालतों के भार को कम करने की रहेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस दिशा में उनका अनुभव और उनके प्रयास रंग लाएंगे और देश की न्यायिक व्यवस्था के ढ़ांचे में सुधार के साथ देश में न्यायिक सक्रियता के दिन भी लौटेंगे।

योगेश कुमार गोयल

 

 

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