तो क्या अब अपराधविहीन होगी राजनीति!

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राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए देश की शीर्ष अदालत ने एक अहम फैसला दिया है। सभी राजनीतिक दल अपनी वेबसाइट पर दागी उम्मीदवारों को टिकट देने के कारण का उल्लेख करेंगे साथ ही यह भी बताना होगा कि आखिरकार वो क्यों किसी बेदाग छवि वाले प्रत्याशी को टिकट नहीं दे पाये। यदि इस नियम का पालन करने में दल असफल रहते हैं तो चुनाव आयोग इसे शीर्ष अदालत के संज्ञान में लाये। ऐसा नहीं किये जाने पर पार्टी के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही की जायेगी।

सुप्रीम कोर्ट ने विधि आयोग की रिपोर्ट के जरिये देश के सामने बीते कुछ वर्ष पहले राजनीति के अपराधीकरण की जो तस्वीर रखी वह होश फाख्ता करने वाले हैं।  अपराधियों की श्रेणियों में बंटवारा किया जाय तो सर्वाधिक 31 फीसदी हत्या या हत्या के प्रयास व गैर इरादतन हत्या के आरोप से लिप्त थे। 14 फीसदी ऐसे हैं, जिन पर महिलाओं के अपहरण का मामला था और इतने ही जालसाजी के आरोप से घिरे थे। दुराचार से जुड़े अपराध जहां चार फीसदी बतायी गयी वहीं चुनाव में कानून तोड़ने वाले पांच फीसदी बताये जा रहे थे।

राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए देश की शीर्ष अदालत ने एक अहम फैसला दिया है। सभी राजनीतिक दल अपनी वेबसाइट पर दागी उम्मीदवारों को टिकट देने के कारण का उल्लेख करेंगे साथ ही यह भी बताना होगा कि आखिरकार वो क्यों किसी बेदाग छवि वाले प्रत्याशी को टिकट नहीं दे पाये। यदि इस नियम का पालन करने में दल असफल रहते हैं तो चुनाव आयोग इसे शीर्ष अदालत के संज्ञान में लाये। ऐसा नहीं किये जाने पर पार्टी के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही की जायेगी। जाहिर है सुप्रीम कोर्ट का यह फरमान हर हाल में जीत की चाहत रखने वाले दल के लिए बड़ी मुसीबत बनेगी। अब महज जीत ही टिकट का आधार नहीं होगा बल्कि साफ-सुथरी छवि इसकी मेरिट होगी।

जब देश की शीर्ष अदालत यह कहती है कि राजनीति में अपराधीकरण का होना विनाशकारी और निराशाजनक है तब यह सवाल पूरी ताकत से उठ खड़ा होता है कि अपराधविहीन राजनीति आखिर कब? साथ ही यह भी कि इसकी स्वच्छता को लेकर कदम कौन उठायेगा? गौरतलब है सितम्बर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और संसद को ही एक प्रकार से इसकी सफाई की जिम्मेदारी दे दी थी पर मामला जस का तस बना रहा। हालिया स्थिति को देखें तो साल 2019 की लोकसभा में 233 सांसद ऐसे हैं, जिन पर कोई न कोई केस है।

जिसमें सत्ताधारी भाजपा के 116 सांसद शामिल हैं। कांग्रेस के 29, जदयू के 13, द्रमुक के 10 और तृणमूल कांग्रेस समेत अन्य दल भी इसमें शामिल है। इसके अलावा राज्यों की भी स्थिति कमोबेश इसी प्रकार की है। उत्तर प्रदेश विधानसभा में 143 विधायक ऐसे हैं, जिन पर आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत आपराधिक मुकदमें दर्ज हैं, जिसमें से 101 विधायकों पर गम्भीर धाराओं में केस दर्ज हैं। 70 विधानसभा वाली उत्तराखण्ड में भी 22 विधायकों पर केस है, जो पिछली विधानसभा की तुलना में दोगुना है।

इससे भी ज्यादा गम्भीर चिंता का विषय यह है कि सत्तासीन भाजपा के जनप्रतिनिधि इस मामले में सबसे ऊपर हैं, जबकि मुख्य विपक्षी कांग्रेस इसके बाद आती है। सवाल दो हैं पहला यह कि अपराध को राजनीति में किसने प्रवेश कराया, दूसरा इसे फलने-फूलने का अवसर किसने दिया। कांग्रेस को सबसे अधिक करीब पांच दशक से अधिक सत्ता चलाने का अनुभव है। जाहिर है अपराध का वास्ता और समतल रास्ता इन्हीं के दौर में खुला। भाजपा कई बार गठबंधन के साथ सत्ता में रही पर मौजूदा मोदी सरकार के काल में अपराध मुक्त विधायिका की संकल्पना थी पर हकीकत कुछ और है। पड़ताल बताती है कि 16वीं लोकसभा के 542 सांसदों में 179 के विरूद्ध अपराधिक मामले हैं।

इनमें 114 गम्भीर अपराध की श्रेणी में आते हैं। इसी तरह राज्यसभा में 51 के खिलाफ अपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, यहां भी 20 गम्भीर अपराध की सूची में शामिल हैं। चौंकाने वाला तथ्य यह है कि भाजपा के सांसदों में सर्वाधिक 107 ने अपराधिक मामलों की घोषणा की है और 64 पर गम्भीर मामले चल रहे हैं। कमोबेश कांग्रेस, एआईडीएमके, सीपीआईएम, आरजेडी, टीडीपी, एनसीपी, बीजेडी, इनेलो, सपा व बसपा के इक्का-दुक्का ही सही किसी न किसी सदस्य पर इसी प्रकार का आरोप है।

इससे भी बड़ा चौंकाने वाला सत्य यह है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में महाराष्ट्र के सांसद और विधायक सबसे ऊपर रहे हैं। भड़काऊ भाषण हत्या, अपहरण समेत कई मामलों में माननीय इसमें लिप्त देखे जा सकते हैं। उच्चत्तम न्यायालय की यह बात गौर करने वाली है कि 1993 के मुम्बई धमाके में अपराधी, पुलिस, कस्टम अधिकारी और नेताओं का गठजोड़ सबसे ज्यादा महसूस हुआ। ऐसे में सम्भव है कि कहीं न कहीं ऐसे गठजोड़ ने राजनीति में अपराधीकरण को संबल प्रदान करने का काम किया, जो लोकतंत्र के लिहाज से बहुत घातक है।

सुप्रीम कोर्ट ने विधि आयोग की रिपोर्ट के जरिये देश के सामने बीते कुछ वर्ष पहले राजनीति के अपराधीकरण की जो तस्वीर रखी वह होश फाख्ता करने वाले हैं। अपराधियों की श्रेणियों में बंटवारा किया जाय तो सर्वाधिक 31 फीसदी हत्या या हत्या के प्रयास व गैर इरादतन हत्या के आरोप से लिप्त थे। 14 फीसदी ऐसे हैं, जिन पर महिलाओं के अपहरण का मामला था और इतने ही जालसाजी के आरोप से घिरे थे। दुराचार से जुड़े अपराध जहां चार फीसदी बताए गए, वहीं चुनाव में कानून तोड़ने वाले पांच फीसदी बताये जा रहे थे।

रोचक यह है कि 2004 में निर्वाचित लोकसभा में दागी सांसदों की संख्या 24 फीसदी थी, जो 2009 में बढ़कर 30 फीसदी हो गयी। वर्तमान में तो यह एक तिहाई से अधिक है। सवाल तो फिर उठेंगे कि संसद और विधानसभाएं दागियों से कब मुक्त होंगी। जब कोई भी राजनीतिक दल सत्ता की फिराक में अपने एजेण्डे को जनता के सामने रखता है तो यह बात पूरे मन से कहता है कि दागियों से न उसका वास्ता है और न उसे टिकट दिया जायेगा। फिर आखिर इतने खेप के भाव सदन में दागी क्यों पहुंच जाते हैं।

सम्भव है कि जनता से बहुत कुछ छुपाया जाता है इसलिये शीर्ष अदालत ने उम्मीदवारों का इतिहास जनता के सामने रखने का फरमान सुना दिया। सवाल यह रहता है कि दागियों को राजनीति से खत्म करने के लिये कानून कहां है? जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 की उपधारा 1, 2 और 3 ऐसे अपराधों की सूची है, जिसमें अयोग्यता की दो श्रेणियां हैं। पहला भ्रष्टाचार निरोधक जैसे कानून जिसमें दोषी पाये जाने पर व्यक्ति अयोग्य हो जाता है जबकि दूसरी श्रेणी में सजा की अवधि अयोग्यता तय करती है।

दर्जन भर ऐसे कानून हैं जिनमें सिर्फ जुर्माने पर 6 साल और जेल होने पर सजा पूरी होने के 6 साल बाद तक चुनाव पर पाबंदी है। लालू प्रसाद यादव, सुरेश कलमाड़ी, रसीद मसूद, ओमप्रकाश चौटाला, अजय चौटाला, ए राजा समेत दर्जनों ऐसे प्रतिबंध के दायरे में मिल जायेंगे। सवाल इसका नहीं है सवाल उसका भी है जो दल जात-पात, क्षेत्रवाद और जिताऊ उम्मीदवार को ध्यान में रखकर अपनी सियासी चाल चलते हैं और उन्हें टिकट देते हैं जो दर्जनों अपराधिक कृत्यों से आरोपित हैं। मौजूदा मोदी सरकार से लोगों को यह उम्मीद थी कि कम से कम इनके दौर में पारदर्शी और अपराधविहीन राजनीति होगी पर यहां भी निराशा और अंधकार ही है।

सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश से राजनीति का अपराधीकरण फिर चर्चे में भले आया हो पर इस पर ठोस कार्यवाही होगी इसे लेकर उम्मीद कम ही है। हालांकि इस बार सुप्रीम कोर्ट के फरमान को हल्के में लेना राजनीतिक दलों को भारी पड़ सकता है। सुप्रीम कोर्ट की यह चिंता नई नहीं है। पड़ताल बताती है कि तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यों की संविधानपीठ ने विधायिका के दायरे में घुसने से स्वयं को रोक दिया मगर कई प्रमुख बिन्दुओं की ओर संकेत देकर यह भी जता दिया कि राजनीति में वर्चस्व को प्राप्त कर चुके अपराध से शीर्ष अदालत कहीं अधिक चिंतित है।

अदालत के सुझाये बिन्दु जिसमें हर उम्मीदवार को नामांकन पत्र के साथ शपथ पत्र में अपने खिलाफ लगे आरोपों को मोटे अक्षरों में लिखने की बात निहित है साथ ही पार्टियों को उम्मीदवारों पर लगे आरोपों की जानकारी वेबसाइट पर मीडिया के माध्यम से जनता को देनी होगी। इसके अलावा उम्मीदवारों के नामांकन दाखिल करने के बाद कम से कम तीन बार पार्टियों की ओर से ऐसा किया जाना जरूरी है।

अदालत ने यह भी सुझाया कि जनता को यह जानने का हक है कि उम्मीदवार का इतिहास क्या है? पर इस पर गम्भीरता से पालन नहीं किया गया। फलस्वरूप जिताऊ उम्मीदवार को दल टिकट देते रहे, जिसके कारण संसद और विधानसभा में दागियों का जमावड़ा लगता रहा। यह एक गम्भीर विषय है कि देश की राजनीति में बाहुबल, धनबल समेत अपराध का खूब मिश्रण हो गया है। देश की सबसे बड़ी पंचायत में अगर एक तिहाई से अधिक सदस्य अपराधिक आरोपों से लिप्त है तो नागरिकों का भविष्य क्या होगा इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।