बिहार में राजनीति के निर्णायक दो ही पात्र हैं। एक राजनीतिक पात्र हैं नीतीश कुमार और दूसरे राजनीतिक पात्र हैं लालू प्रसाद यादव। इन्ही दो राजनीतिक पात्रों के बीच बिहार की राजनीति घूमती-फिरती है, उफान मारती है, नैतिकता और अनैतिकता की कहानी लिखती है। दोनों राजनीतिक पात्रों की तुलना बदबूदार और अप्रिय तथा लोमहर्षक प्रतीकों से होती है। बिहार की जनता ने इन दोनों राजनीतिक पात्रों के लिए लोमहर्षक, अप्रिय और अपमानजन प्रतीक गढे हैं। जहां नीतीश कुमार को कुशासन के प्रतीक के तौर पर जाना जाता है वहीं लालू प्रसाद यादव को जंगलराज के प्रतीक के तौर पर जाना जाता है। ऐसा भी नहीं है कि ये दोनों प्रतीकें हवाहवाई हैं, या तथ्य से परे हैं, या फिर इन प्रतीकों को गढ़ने में बिहार की जनता ने कोई चूक की है। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने ऐसे प्रतीकों को गढने के लिए बिहार की जनता को एक तरह से बाध्य किया है।
इस बिहार विधान सभा चुनाव में आज भी वहीं राजनीतिक प्रश्न खड़े हैं जो राजनीतिक प्रश्न लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के राजनीतिक उदय काल से खड़े हैं और ये दोनों राजनीतिक बदबूदारों ने इन्ही प्रश्नों की शक्ति से अपनी-अपनी सत्ता कायम की थी, अपनी-अपनी राजनीतिक स्थापित की थी। अब यहां यह प्रश्न खड़ा होगा कि ये राजनीतिक प्रश्न क्या थे जिन पर लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने अपनी-अपनी सत्ता कायम की थी और बिहार की जनता के भाग्यविधाता बने थे। एक प्रश्न यह है कि बिहार की जनता इन दोनों बदबूदार और अप्रिय तथा लोमहर्षक राजनीतिक प्रतीकों से छुटकारा क्यों नहीं लेना चाहती है, बिहार की जनता कोई नया राजनीतिक विकल्प क्यों नहीं खोजती है? इस विधान सभा में कोई तीसरी शक्ति का उदय और तीसरा विकल्प बनने की कोई संभावना है या नहीं?
बेरोजगारी, काम का अभाव, बाढ़ की समस्या का समाधान, सुखाड़ की समस्या का समाधान, उद्योग धंधे विकसित नहीं होने का दर्द, पलायन का दर्द, जातीय गोलबंदी, अपराध, शिक्षा में अराजकता और भ्रष्टाचार जैसे प्रश्न ही आज बिहार की जनता की जबान पर हैं। अपनी-अपनी विजय के लिए राजनीतिक पार्टियां भी इन्हीे प्रश्नों पर अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन कर रही हैं। यह प्रश्न तो उस काल से अब तक खड़ा है जिस काल में बिहार के ऊपर कांग्रेस का शासन होता था और कांग्रेस के नेता जगरन्नाथ मिश्र बिहार की जनता का चेहरा होते थे।
सबसे बड़ी समस्या पलायन की है। बिहार ही क्यों बल्कि पूरे देश की जनता यह जानती है कि बिहार में पलायन की समस्या प्रमुख है, पलायन करने वाले मजदूर और छात्र बिहार से बाहर रोज-रोज प्रताड़ित होते हैं, अपमान सहते हैं, तिरस्कार का पात्र बनते हैं। अगर बिहार में ही मजदूरों को काम मिलता, बिहार में ही छात्रों की सभी प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था होती तो फिर मजदूर या छात्र बिहार से पलायन कर दूसरे राज्यों में क्यो जाने के लिए विवश होते? लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की पार्टी कहती है कि हम रोजगार देंगे, नौकरियां देगे, सम्मान देंगे पर जब ये प्रश्न खड़ा किया जायेगा कि पिछली सरकार जब आपकी थी तब आपने हजारों-लाखों बिहारी समाज को रोजगार क्यों नहीं दिया, नौकरियां क्यों नहीं दी, सम्मान क्यों नहीं दिया? ऐसे प्रश्नों पर आपको पिछड़ा विरोधी या फिर सांप्रदायिक कह कर अपमानित कर दिया जायेगा, किसी राजनीतिक दल का एजेंट घोषित कर दिया जायेगा।
लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने कोई एक, दो साल नहीं बल्कि पूरे तीस साल बर्बाद किये है, इन तीस सालों में बिहार की जनता के सपनों को न केवल कुचला गया है बल्कि उनके सपनों को कब्र में दफनाया भी गया है। बिहार में 15 सालों तक लालू प्रसाद यादव के परिवार का शासन रहा है तो फिर पन्द्रह साल तक नीतीश कुमार का शासन रहा है। दोनों ने जनता के मसीहा होने के नाम पर सत्ता स्थापित की थीं। पर लालू प्रसाद यादव का राज जंगलराज में तब्दील हो गया। यादव और मुस्लिम गुंडागर्दी सरेआम नंगा नाच करती थी। शिक्षा जगत अराजक हो गया था, विश्वविद्यालयों का सत्र तीन से पांच-पांच साल तक पीछे हो गये थे, इस कारण बिहार के छात्रों का भविष्य चौपट हुआ, विश्वविद्यालयों के कुलपति और प्राचार्य के पदों पर बोली लगती थी।
बिहार को जातीय गोलबंदी में कैद कर दिया गया था, पिछड़ा उत्थान की बात छलावा थी। दुष्परिणाम स्वरूप यादव विरोधी पिछड़ी जातियों की जागरूकता बढ़ी और जंगलराज का पतन हुआ। जंगलराज के पतन के लिए सुशासन का नारा दिया गया था। कुछ समय तक नीतीश कुमार सुशासन के प्रतीक जरूर बनें पर उनका सुशाासन भी धीरे-धीरे कुशासन में तब्दील हो गया। नीतीश कुमार जैसा अनैतिकबाज भारतीय राजनीति में खोजने से भी नहीं मिलेगा। जिस जंगलराज और लालू के विरोध के नाम पर सत्ता पायी थी उसी जंगलराज और लालू की गोद में जा बैठे। फिर वे लालू से धोखाधड़ी कर भाजपा को फिर से गले लगा लिया। नीतीश कुमार ने जिस भाजपा को लात मारी थी उसी भाजपा ने नीतीश कुमार की चरणवंदना करने के लिए तैयार हो गयी।
आज का बिहार भी जंगलराज के आस-पास ही खड़ा है जहां पर अपराध चरम पर है, जातीय गोलंबदी भी उसी प्रकार की है, भ्रष्टचार चरमपर है, नौकरशाही बेलगाम है। केन्द्रीय मद से आने वाली राशि से सड़कें जरूर बनी हैं पर शिक्षक स्कूल नहीं जाते, अस्पतालो का बुरा हाल है। हर सरकारी कार्यालयों में बिना भ्रष्टचार का कोई काम होता नहीं। बिहार को नॉलेज हब बना कर बिहार की छवि चमकायी जा सकती थी, नॉलेज हब से बिहार में लाखों रोजगार सृजित होते, बिहार की अर्थव्यवस्था भी नॉलेब हब से गुड फील करती। सिर्फ और सिर्फ नशाबंदी के भरोसे नीतीश कुमार अपनी गाल बजा रहे हैं।
बिहार में औद्योगिक निवेश क्यों नहीं होता, कोई बड़ी-बड़ी कंपनी बिहार क्यों नहीं आती। जबकि बिहार में सस्ता और मेहनती मजदूर हैं। बिहार में इजीनियर और प्रबंधन क्षेत्र के विशेषज्ञों की कोई कमी नहीं है। अगर बिहार में औद्योगिक क्रांति होती तो फिर बिहार की जनता दूसरे राज्यो में अपमानित होने क्यों जाती? लालू प्रसाद यादव हों या फिर नीतीश कुमार, ये दोनों अपनी मूर्खता और अंहकार से एक तरह से बिहार को बर्बाद करने का काम किया। औद्योगिक क्रांति के लिए और वर्तमान समय के अनुसार निवेश के लिए जरूरी प्राथमिकताओं के प्रति उदासनीता टूटती नहीं है। कानून व्यवस्था की स्थिति कभी भी ठीक नहीं हुई, राजनीतिक स्थिरता की गारंटी भी नहीं मिली। राजनीतिक हस्पक्षेप की कुप्रथा से कोई बिहार की ओर देखने का अपराध क्यों करेगा?
बिहार की जनता की मजबूरी समझी जा सकती है। बिहार की जनता के पास विकल्प कहां हैं। लालू प्रसाद यादव के परिवार या फिर नीतीश कुमार के गठबंधन में ही से किसी का चुनाव करना है। अब यहां यह भी प्रश्न है तीसरा विकल्प क्यो नहीं बन सकता है। तीसरा कोई विकल्प ही नहीं है। कथित सांप्रदायिकता के नाम पर वामपंथी और कांग्रेस लालू परिवार की गोद में ही बैठे हुए हैं। कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों का अति मुस्लिम प्रेम भी बिहार के चुनावी राजनीतिक फैसले को प्रभावित करेगा। दुर्भाग्य बिहार की जनता का ही है। चाहे जीत जंगलराज की होगी या फिर चाहे जीत कुशासन की होगी, नुकसान तो बिहार की जनता का ही होना है। बिहार एक बार फिर वर्षो से पीछे चला जायेगा। बिहार के लोग आगे भी पलायन और अपमान का दंश झेलने के लिए विवश होंगे, बिहार में विकास छलावा ही साबित होगा।
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