खुश हैं वन्य जीव और प्रकृति मुस्काने लगी

Wildlife is happy and nature is smiling
देशव्यापी लाकडाउन के कई दिन बीत जाने के बाद भारतवर्ष के पर्यावरण में व्यापक सुधार देखने को मिला है। प्रकृति को नव जीवन मिला है। सुवासित इंद्रधनुषी सुमन खिलखिलाकर नित्य प्रात: बाल सूर्य का वंदन-अभिनंदन कर रहे हैं तो नदियां मां भारती के भाल पर निर्मल जल से पावन अभिषेक कर रही हैं। विषैले रसायन और कल-कारखानों का दूषित जल प्रवाहित न होने से सरिताएं स्वच्छ निर्मल जलराशि से तृप्त हुई हैं और जलीय जीव-जन्तुओं के जीवन के लिए वरदान सिद्ध हो उपयुक्त परिस्थितियों का निर्माण कर रही हैं। वन्य जीव निर्भय निशंक हो नगरों के राजपथ और गलियों में विचरण कर रहे हैं।
नोएडा में दिन में नीलगाय सड़क पर घूम रही है तो हरिद्वार में देर शाम को हिरन-सांभर टहलते दिखे और रात में हाथी घूमते हुए हर की पौड़ी तक पहुंच गये। मुम्बई के समुद्र तट पर हजारों की संख्या में कबूतर निर्भय किलोल कर रहे हैं तो कहीं सिंधु-जल में डाल्फिन अठखेलियां कर रही हैं। केरल के कोझिकोड शहर में लुप्तप्राय मान लिया गया गंधबिलाव विचरण करता दिखा तो कर्नाटक में गौर भी राजपथ पर शान से चहलकदमी करता मिला। उड़ीसा के समुद्र तट पर अंडे देने आई ओलिव रिडले मादा कछुवों की सात लाख तक की अनुमानित संख्या जीव विज्ञानियों के लिए आश्चर्यमिश्रित खुशी का आधार है तो सुखद भविष्य का विश्वास भी। एक सौ से अधिक शहरों की हवा के प्रदूषण में तेजी से कमी हुई और गुणवत्ता में वृद्धि हुई है जिससे वायु श्वसन के अनुकूल हो गई है। आकाश निर्धूम हुआ है जिससे पंजाब के शहर जालंधर से हिमाचल की पर्वतमालाएं दिखने लगी हैं। शहरों की छतों पर मयूर पंख फैलाकर नाचते हुए खुशी का इजहार कर रहे हैं और उन्हें देखकर मनुज-मन भी आनन्द के सरोवर में डुबकी लगा रहा है। मंद-मंद बह रही हवा शीतल और सुखदायी है। ग्रीष्मऋतु का आगमन हो चुका है पर दोपहर का ताप भी तन-मन के लिए कष्टकारी नहीं है। गत वर्षों में मध्य मार्च तक घरों की शोभा बन जाने वाले कूलर अभी टाड़ एवं तलघर में ही कैद हैं और पंखों की ही ठंढी हवा में मानव चैन की बंसी बजा रहा है।
मैं जिस पीढ़ी से ताल्लुक रखता हूं, वह पीढ़ी प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की उदात्त भावना और संकल्प के साथ जीवन निर्वाह करने वाली रही है। मैंने ग्राम, वन, गिरि एवं सर्वदा जल प्रवाही सरिताओं के तट पर प्रकृति के साथ लोकजीवन को राग-रंग के आनन्द के साथ न केवल जीते हुए देखा है बल्कि परस्पर पूरकता के नवल अध्याय रचने का साक्षी भी रहा हूं। यह समय का वह दौर था जब न ही कृषि विषयुक्त हुई थी और न ही मानव मन कलुषित। धरती माता हरीतिमा की चादर ओढ़े सुंदर और विषमुक्त थी, जिससे उपजे फल-फूल, सब्जियां, अन्न आदि संपूर्ण प्राणी जगत का पोषण करते हुए बल, आयु और आरोग्य प्रदान करते थे। नदियों एवं सरोवरों का पय पानकर पथिक तृप्त होता और समस्त लोक अपने दैनंदिन जीवन का निर्वाह कर माता समान आदर-सम्मान देता। गाय, बैल, सियार, लोमड़ी, हिरन, सांभर, खरहा, सेही, बिज्जू, कुत्ता, बिल्ली, लकड़बग्घा जैसे हिंसक-अहिंसक पशु घर एवं गांव के चतुर्दिक स्थित गिरि, कंदराओं और वन प्रांतर में सहजता से जीवन यापन करते थे। पक्षियों की मधुर रसमय चहचहाहट मानो संगीत के सप्त सुरों का उद्रेक ही थी। ऋतु अनुकूल वर्षा से सिंचित कानन-गिरि देव दुर्लभ जड़ी-बूटियों के संरक्षित भंडार थे। नदियों के शीतल जल में गांव का संपूर्ण निस्तार निर्वाह था तो वहीं कच्छप, मत्स्य एवं शंख प्रजाति के सैकड़ों जीवों के जीवन का आधार भी।
तथाकथित विकास की वाहक काली सड़क तब गांव तक नहीं पहुंची थी। आवागमन के साधन सस्ते, सर्वसुलभ और प्रकृति हितैषी थे। बहुधा पैदल चलना श्रेयस्कर था और उत्तम स्वास्थय की कुंजी भी। कृषि कर्म गोवंश आधारित होने से परम्परागत हल-बक्खर जुताई के सर्वमान्य साधन थे और ट्रैक्टर गांव से बहुत दूर था। यही कारण था सड़कों पर चलने वाले वाहनों से निकलने वाले धुंआ और कर्कश ध्वनि से रहित ग्राम्य परिवेश सुख-शांति का वह अभिराम स्थल था जहां पहुंचकर स्वर्ग का आनंद भी तुच्छ दिखाई पड़ने लगता था। लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि प्रकृति कुपित होकर रूठ गई। मानव तो इस चराचर जगत का सबसे बुद्धिमान प्राणी है। आखिर वह गलती कहां कर बैठा, क्योंकर अपने पैरों स्वयं कुल्हाड़ी मार ली। ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर यहीं हैं। क्योंकि जहां की समस्या होती है तो समाधान का पंथ भी वहीं से निकलता है। वस्तुओं के अपरिग्रह और त्यागपूर्वक भोग के उपनिषदों के शुभ संदेश की अवलेहना कर मानव स्वार्थी और केवल भोगों में लिप्त अविवेकी पशुवत मनुष्य बन कर रह गया। प्राकृतिक संसाधनों का शोषक केवल शोषक बन गये मनुष्य ने जैसे अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ लिया है।
कोरोना के कारण तालाबंदी से पिछले 33 दिनों की अवधि ने घरों में कैद मानवीय जीवन में आये बदलाव से प्रकृति को पुन: नवल रूप धारण करने का एक स्वर्णिम अवसर प्रदान किया है। संचार के तमाम संसाधनों में चित्र और समाचार प्रकाशित प्रसारित होते रहे कि अब किस प्रकार प्रकृति खिली-खिली नजर आ रही है। लाकडाउन के चलते कारखाने बंद हैं और न केवल दिल्ली बल्कि कानपुर, मथुरा प्रयाग, वाराणसी, लखनऊ आदि नगरों की नदियां गंगा, यमुना गोमती आदि निर्मल हुई हैं।
जीवन का जरूरी पक्ष विकास भी है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। विकास से विरोध भी नहीं। पर विकास प्रकृति की आहुति देकर तो नहीं किया जा सकता न। हमें प्रकृति के सह-अस्तित्व पर आधारित एक ऐसा विकासपरक मॉडल विकसित करना होगा जो दोनों को साध सके, जीवन को उमंग एवं उत्साह के साथ सदैव गतिशील करता रहे। इसके लिए जरूरी होगा कि हम भोगवाद एवं संग्रह करने की भावना एवं प्रवृत्ति से मुक्त हों। प्रकृति से उतना ही लें जितना जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक हो। कल-कारखानों के दूषित जल को बिना उपचारित किये सीधे नदी-नालों में प्रवाहित न किया जाये। बेहतर होगा दूषित जल निकासी की एक अलग समानान्तर व्यवस्था बना ली जाये। प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के साथ शाकाहार को प्रोत्साहित किया किया जाये। कृषि कार्य में रासायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों का प्रयोग योजनाबद्ध तरीके से सीमित किया जाये। चेतना सम्पन्न मानव ही प्रकृति का संरक्षक हो सकता है। कोरोना ने हमें जागने का एक संकेत और चेतावनी दी है। यदि हम वर्तमान संकट में ऐसे ही बेसुध सोये रहे तो आगामी पीढ़ी के सवालों के सम्मुख हम केवल सिर झुकाये मौन खड़े रहने को विवश होंगे।
प्रमोद दीक्षित ‘मलय’
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