जनता के पैसों की फिजूलखर्ची विधानपरिषद् के नाम पर क्यों?

Waste-Money
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विधानपरिषद् की भूमिका पर गहन मंथन इसलिए भी होना चाहिए, क्योंकि बीते दिनों जब आंध्रप्रदेश की जगनमोहन रेड्डी सरकार ने विधानपरिषद् को भंग करने का प्रस्ताव विधानसभा में पास किया तो कई यक्ष प्रश्न स्वत: उठ खड़े हुए। फिर वाईएसआर के नेतृत्व वाली सरकार भले ही इसे जनता पर बोझ की बात करके विधानपरिषद् को खत्म करने की बात करे, लेकिन उसके 58 विधानपरिषद् वाली व्यवस्था में सिर्फ नौ सदस्य हैं। जिससे उसके महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट भी अटक रहे। इस कारण भी वह इसे भंग करने का प्रस्ताव केंद्र को भेज चुकी है।

महेश तिवारी

Mahesh-Tiwari
Mahesh-Tiwari

हमारा देश बहु सांस्कृतिक देश है। यहां हर प्रकार की विविधता दृष्टिगोचर हो जाती है। इन्हीं विविधताओं में एक विविधता ऐसी भी है, जो संवैधानिक व्यवस्था को लचर साबित करती है। अब आप सभी सोच रहें होंगे ऐसी कौन-सी विविधता है? ऐसे में चौंकिए नहीं! आप सभी उस विविधता से भली-भांति चिर-परिचित हैं। वह है, आर्थिक विविधता की खाई। इक्कीसवीं सदी के आधुनिक भारत में एक तबका अमीरियत का आसमां छू रहा, तो दूसरा दो वक़्त की रोटी, सिर पर छत को मोहताज है। फिर जो संविधान समानता और स्वतंत्रता का हिमायती हो। उस देश में एक आंकड़े के अनुसार साढ़े उन्नीस करोड़ लोग दो जून की रोटी को मोहताज हो, फिर कहाँ गई संवैधानिक बातें और दावे? ऐसा तो नहीं कहीं यह फिल्मी गाने की तर्ज पर बातें हैं बातों का क्या… की स्थिति हो। कुछ भी हो। जिस लोकतांत्रिक देश के संविधान की प्रस्तावना हम भारत के लोग से शुरू होती है। वहां के प्रत्येक नागरिक को मूलभूत सुविधाएं तो मिलना ही चाहिए। ऐसा इस कारण भी क्योंकि लोकतंत्र को अब्राहम लिंकन ने जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन बताया है। इसके इतर जीवन जीने की स्वतंत्रता संविधान का अनुच्छेद-21 भी प्रदान करता है। फिर उसी जनता के जीवन में इक्कीसवीं सदी के भारत में अंधेरा क्यों?
यहां अवाम के हित की बात करने का वाजिब कारण है। जनता के बीच से जनप्रतिनिधियों की फौज निकलती है। अवाम की सेवा का संकल्प लेकर, लेकिन संसद और विधानसभा पहुँच वह अपने नैतिक कर्त्तव्य भूल जाते हैं, ऐसे में कहां रहा जनता का जनता द्वारा शासन? इतना ही नहीं देश के कुछ हिस्सों में आजादी के वक्त से एक रवायत और चली आ रहीं है। जो प्रत्याशी प्रत्यक्ष रूप से चुनाव न जीते उसे विधानपरिषद् द्वारा कुर्सी प्रदान कर दिया जाए। बात विधानपरिषद् तक ही नहीं राज्यसभा का कुनबा भी कुछ उसी तरीके का है। बनिस्बत उसके पास विधानपरिषद् से अधिक शक्तियां हैं और उसमें नामित सदस्य कम। जिससे उसकी प्रासंगिकता पर फौरी रूप से सवाल खड़े करना उचित नहीं। ऐसे में मानते हैं, कि विधानपरिषद् के गठन का जिक्र एक संवैधानिक व्यवस्था का हिस्सा है, लेकिन क्या इक्कीसवीं सदी के भारत में इसकी प्रसांगिकता पर विचार-विमर्श नहीं होना चाहिए? आखिर इसका संवैधानिक ढांचे में क्या योगदान है? कहीं भारत जैसे गरीब देश पर यह व्यवस्था सिर्फ बोझ का काम तो नहीं करती?
विधानपरिषद् की भूमिका पर गहन मंथन इसलिए भी होना चाहिए, क्योंकि बीते दिनों जब आंध्रप्रदेश की जगनमोहन रेड्डी सरकार ने विधानपरिषद् को भंग करने का प्रस्ताव विधानसभा में पास किया तो कई यक्ष प्रश्न स्वत: उठ खड़े हुए। फिर वाईएसआर के नेतृत्व वाली सरकार भले ही इसे जनता पर बोझ की बात करके विधानपरिषद् को खत्म करने की बात करे, लेकिन उसके 58 विधानपरिषद् वाली व्यवस्था में सिर्फ नौ सदस्य हैं। जिससे उसके महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट भी अटक रहे। इस कारण भी वह इसे भंग करने का प्रस्ताव केंद्र को भेज चुकी है। ऐसे में प्रथम दृष्टया विधानपरिषद् सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक महत्वाकांक्षा साधने का अड्डा ही समझ आता है।
इसके अलावा जब मध्यप्रदेश में विधानपरिषद् की मांग जोर पकड़ रही है। उस दरमियाँ उस पर आने वाले प्रतिवर्ष के कुल सरकारी खर्च का आंकड़ा 150 करोड़ रुपए आंका गया। जिसमें वाहन व्यवस्था पर 1 करोड़ रुपए और टेलीफोन व्यवस्था पर सालाना खर्च लगभग 25 लाख रुपए शामिल रहा। एक बात और विधानपरिषद् के गठन और समाप्ति का खेल आजादी के बाद से लगातार चलता आ रहा है। 1970 में पंजाब और 1986 में तमिलनाडु विधानपरिषद् को रद्द किया गया। ऐसे में अब आते हैं सवालों की लंबी फेहरिस्त पर। पहला सवाल बिहार विधानपरिषद् द्वारा नील किसानों के पक्ष में बनाए गए कानून के अलावा क्या विधानपरिषद् ने कोई बड़ा कदम उठाया है? उत्तर सकारात्मक मिलना मुश्किल है। दूसरा सवाल जब लोकतंत्र जनता के लिए शासन है, फिर उनके पैसों की व्यर्थ में बर्बादी क्यों? ऐसा इस कारण क्योंकि विधानपरिषद् सिर्फ सलाह देने तक सीमित है फिर अरबों करोड़ों रुपए सलाह लेने पर फूँकने का क्या औचित्य? कुछ लोग विधानपरिषद् के पक्ष में अगर तर्क देते कि यह विधानसभा की निरंकुशता पर रोक लगाने का काम करती है।
एक मिनट के लिए मान लेते ऐसा कुछ है। फिर तो इसे संघ के प्रत्येक राज्यों में होना चाहिए? उसको लेकर चर्चा आजतक क्यों नहीं? दूसरा तर्क यह भी दिया जाता कि यह राजनीतिक विविधता प्रदान करता। इसके द्वारा समाज के योग्य सदस्य चुनकर जाते है। योग्य सदस्य चुनकर जाते यहां तक ठीक लेकिन उनके द्वारा समाज के लिए कार्य क्या हुए? इसका आंकलन तो आजादी के सात दशकों में कभी होना चाहिए था। इन सब सवालों की फेहरिस्त के बीच सबसे सटीक कारण इसके गठन का जो आता वह है, अपनों को खुश करना। राजनैतिक तुष्टिकरण साधना। अगर ऐसे में अवाम के टैक्स का करोड़ों रुपए स्वहित की पूर्ति और जनता द्वारा नकार दिए गए सियासत के शूरवीरों को मुफ़्त की सुविधा देने के नाम पर खर्च हो। फिर न्यायिक दृष्टि से इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता।
वैसे ऐतिहासिक दृष्टिकोण से गौर करें तो साइमन कमीशन ने भी वर्ष 1927 में ही विधानपरिषद् की जटिलता और खर्च का हवाला देते हुए इसकी व्यवहार्यता के बारे शंका जाहिर की थी। ऐसी ही एक टिप्पणी उस समय भी आई। जब एक संसदीय समिति ने राजस्थान और असम में विधान परिषद् के गठन के प्रस्तावों को मंजूरी दी। उस समय यह टिप्पणी की गई कि केंद्र सरकार द्वारा राज्य विधानसभाओं में उच्च सदन बनाए जाने पर एक राष्ट्रीय नीति बनाई जाए, ताकि बाद की सरकार इसे समाप्त न करे। साथ ही साथ इसने परिषदों के लिए कानून में प्रावधान की समीक्षा का भी समर्थन किया। जिससे स्नातक और शिक्षक के लिए आरक्षित सीटों की समीक्षा हो।
यहां विधानपरिषद् की शक्तियों को देखें तो वह भी नगण्य ही है। विधानपरिषद् की विधायी शक्ति सीमित है। राज्यसभा के मुकाबले विधानपरिषद् के पास गैर-वित्तीय विधानों को आकार देने की पर्याप्त शक्तियाँ मौजूद हैं, लेकिन विधानपरिषद् के पास ऐसा करने के लिये संवैधानिक शक्तियों का अभाव है। इसके अलावा विधानपरिषद् के सदस्य राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के लिये चुनाव में मतदान भी नहीं कर सकते। साथ ही साथ विधानपरिषद् में नामित सदस्य ज्यादा होते। जिससे कभी-कभी आरोप यह भी लगता कि नामित करने के नाम पर सीटों की खरीद-फरोख्त के अलावा हारे हुए प्रत्याशी को खुश करने का काम भी होता। इन सभी बातों को मद्देनजर रखते हुए विधानपरिषद् की प्रसांगिकता पर गहन विमर्श होना अब वक्त की मांग है। अगर इसकी व्यापकता है, तो सभी सूबे में इसके गठन का प्रावधान हो। वरना जनता के पैसे फूँककर नेताओं को मलाई खिलाने की स्थिति में देश की हालत तो कतई नहीं है।

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