केन्द्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में दस हजार और सुरक्षा जवानों की तैनाती कर दी है। पीडीपी की नेता व राज्य की पूर्व मुख्य मंत्री महबूबा मुफ्ती ने इस निर्णय को गैर-जरूरी व कश्मीर मसले के हल की दिशा में आप्रसंगिक बताया है महबूबा मुफ्ती का यह पैंतरा राजनीतिक व वोट बटोरने वाला है। पहली बात तो यह है कि पीडीपी व अन्य पार्टियां पिछले 72 सालों में इस मसले का हल नहीं निकाल सकी। इस पार्टी को राज्य की जनता ने सरकार चलाने का भी मौका दिया। एक बार महबूबा व तीन बार उनके पिता राज्य के मुख्य मंत्री रह चुके हैं।
यह पीडीपी को बताना चाहिए कि क्या कारण है कि उनकी सरकार बनने के बावजूद भी आतंकवार में कमी क्यों नहीं आई? मुफ्ती जैसे लोगों की बयानबाजी आतंकवादियों को नरमी के साथ लेने की वकालत करती हैं। हैरानी तो इस बात की है जो नेता खुद आतंकवाद से पीड़ित है वही आतंकवाद के खिलाफ उठाए जा रहे कदमों पर हाल दुहाई दे रही है। मुफ्ती को आतंकवादी अगवा भी कर चुके हैं। यदि केन्द्रिय गृह मंत्री की बेटी को आतंकवादी अगवा कर सकते हैं तो आम कश्मीरी आतंकवाद से कितने महफूज हो सकते हैं।
इसका अंदाजा लगाना कोई कठिन नहीं। सरकार द्वारा अलगाववादियों को बातचीत का न्यौता कई बार दिया गया। इसके बावजूद बात आगे नहीं बढ़ी। वैसे भी सुरक्षा बलों की तैनाती में विस्तार आतंकवादियों के खिलाफ किया गया है न कि कश्मीरियों के लिए। राजनीतिज्ञों को आतंकवाद पर राजनीति करने की बजाय उन लोगों के दर्द को समझना चाहिए, जिनके पारिवारिक सदस्यों को आतंकवादियों ने मौत के घाट उतार दिया। आज लाखों लोग आतंकवाद के कारण ही राज्य छोड़कर देश के अन्य हिस्सों में दर-बदर जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं।
बातचीत द्वारा मसले का हल सबसे बेहतर तरीका होता है परंतु जब सभी तरीके फेल हो जाएं तो सख़्ती ही आखिरी रास्ता बचता है। निर्दोष महिलाओं, बुजुर्गों की हत्या करने वालों की कोई विचारधारा नहीं होती पैसे देकर पत्थर मरवाने का पर्दाफाश हो चुका है। अलगाववादी फंडिग के आरोपों में फंसे हुए हैं। अपराध करने की तरह ही अपराध सहना भी पाप है। भारतीय संस्कृति वीरता के गुणों से भरी हुई है। जहां गैरत के लिए हमलावर को मुंहतोड़ जवाब दिया जाता है। कश्मीर मसले का हल जब भी जो भी हो ठीक है, परंतु तब तक हिंसा को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।