नक्सली हमलें में हुए शहीदों की क्यों नहीं चर्चा

Why not discuss Naxal attack

महाराष्ट के गढ़ी चिरौली में नक्सलियों ने बारूदी सुरंग बिछाकर 15 पुलिस जवानों को मौत के घाट उतार दिया। जानी नुक्सान के हिसाब से देखें तो यह घटना पुलवामा हमले की श्रेणी में ही आती है। फिर भी सरकार नक्सलियों के प्रति आधी सदी से नरम रवैया अपना रही है। यदि यही नुक्सान पाकिस्तान से आए आतंकियों ने किया होता तब राजनीतिक प्रतिक्रियाओं का दौर चरम पर होना था। आज भाजपा की पूरी लीडरशिप पुलवामा हमले की जवाबी कार्रवाई का लोक सभा चुनावों में जोर-शोर से प्रचार कर रही है, लेकिन भाजपा शासित प्रदेश महाराष्टÑ में नक्सलियों ने देश के कानून को चुनौती दी है। भाजपा इस हमले पर चुप है। सवाल यह है कि माओवादियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई करने की घोषणा कब होगी? यदि हम विदेशी दुश्मनों को सबक सिखाने का दम रखते हैं तब आंतरिक दुश्मनों को हराना कितना कठिन है, माओवादी हिंसा से निपटने में भाजपा भी पिछली सरकारों की तरह नाकाम रही।

पांच सालों में न तो बातचीत से इस समस्या का हल निकाला गया है और न ही माओवादियों की हथियारबंद ताकत को खत्म करने में ही कामयाबी मिली। नक्सलियों के सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ एक सवाल हमेशा उठता रहा है कि क्या सरकार और नक्सली वार्ता की मेज पर नहीं आ सकते? हिंसा किसी भी समाज या देश के हित में नहीं और हिंसा का कोई भी रूप बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। माओवादी आंदोलन में दो धाराएं चल रही हैं। आंदोलन का एक चेहरा पीड़ित आदिवासियों को समर्पित है और दूसरा चेहरा बुरी तरह कुरूप है, जो आदिवासियों और जंगलों के नाम पर पूंजीवादियों की तरह कमाई कर रहा है दूसरी श्रेणी के माओवादी जंगल में अपना अलग साम्राज्य चला रहे हैं।

केंद्र सरकार माओवादियों के लुटेरातंत्र का पदार्फाश करने व इसे सामाजिक तौर पर हराने में बुरी तरह नाकाम रही है। वर्ष 2004 नक्सली-सरकार चर्चा की राजनीति का भी गवाह बना, उस वक्त लोकसभा चुनाव के साथ ही आंध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू पर एक बड़े नक्सली हमले के बाद नक्सलवाद आंध्र के चुनाव में बड़ा मुद्दा था। पाकिस्तान, चीन और अन्य देशों से लोहा लेने की क्षमता रखने का दावा करने वाली मोदी सरकार को पुलिस के जवानों की शहादत से सबक लेने की आवश्यकता है। हिंसा को रोकने के लिए सरकार को ठोस मापदंड व स्पष्ट रणनीति अपनानी होगी।

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