क्यों जरुरी है ‘निजता का अधिकार’?

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सर्वोच्च न्यायालय के नौ न्यायाधीशों की पीठ इन दिनों नागरिकों के ‘राइट टू प्राइवेसी’ यानी निजता के अधिकार के संबंध में दायर की गई एक याचिका पर अहम सुनवाई कर रही है। संभव है, आगामी 27 अगस्त को आने वाले फैसले से स्पष्ट हो जाए कि निजता का अधिकार वास्तव में नागरिकों का मौलिक अधिकार है या नहीं?गौरतलब यह है कि भारत सरकार इसकी संवैधानिक वैधता से पहले से ही इंकार करती आई है, जबकि दायर याचिका में कहा गया गया है कि यह प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 21) का ही एक उपबंध है।

दरअसल, पिछले कुछ समय में आधार कार्ड की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली करीब बीस याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की गई हैं। याचिकाकतार्ओं का कहना है कि आधार कार्ड बनाये जाने के दौरान बायोमेट्रिक पद्धति द्वारा शारीरिक चिन्हों जैसे ऊंगलियों के निशानों अथवा आँखों की पुतलियों की ली जाने वाली निजी जानकारी नागरिकों की निजता का उल्लंघन है। जबकि, सरकार आधार के माध्यम से अनेक जनकल्याणकारी योजनाओं को पारदर्शी और उद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए नागरिकों से जुड़ी संवेदनशील सूचनाओं को इकट्ठा करना उनकी निजता का उल्लंघन नहीं मानती।

अदालत में केंद्र सरकार की तरफ से दलील पेश करने वाले महान्यायवादी केके वेणुगोपाल ने पीठ के समक्ष कहा, ‘निजता का कोई मूलभूत अधिकार नहीं है और यदि इसे मूलभूत अधिकार मान भी लिया जाए तो इसके कई आयाम हैं। हर आयाम को मूलभूत अधिकार नहीं माना जा सकता। ‘याचिकाकतार्ओं की तरफ से वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रमण्यम, श्याम दीवान और सोली सोराबजी ने जिरह की है। इस संदर्भ में गोपाल सुब्रमण्यम ने कहा, संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 को अगर एक साथ देखा जाए तो नागरिकों के मौलिक अधिकारों का दायरा बहुत बड़ा हो जाता है। अगर यह कहा जाए कि निजता कोई अधिकार नहीं है तो यह बेमतलब है। हालांकि, दोनों पक्षों को सुनकर अब यह सुप्रीम कोर्ट को निर्धारित करना है कि निजता, नागरिकों का मौलिक अधिकार है या नहीं।

भारत में ‘निजता का अधिकार’ को लेकर हो रही बहस वर्षों पुरानी है, लेकिन आजतक यह स्पष्ट नहीं हुआ कि यह अधिकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों की श्रेणी में आती है नहीं?आजादी के बाद जब संविधान बना तब भी नागरिकों की निजता संबंधी अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई। फलस्वरुप 1950 के दशक से ही निजता के अधिकार को परिभाषित करने की मांग होती रही है। इस संबंध में, सर्वोच्च न्यायालय ने 1954 में एमपी शर्मा तथा 1962 के खड़ग सिंह केस में क्रमश: 8 और 6 जजों की बेंच द्वारा दिये गये फैसले के तहत निजता के अधिकार की संवैधानिक अस्तित्वता को स्वीकार नहीं किया। लेकिन, उसके बाद भी इस तरह की अनेक याचिकाएं दायर की गईं और सुप्रीम कोर्ट ने सदैव नपा-तुला फैसला ही दिया, जिसकी वजह से यह अस्पष्टता बनी रही। सुप्रीम कोर्ट कभी यह कहती रही कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है, तो कभी यह कि यह संपूर्ण मौलिक अधिकार नहीं है, इसलिए कुछ मामलों में राज्य नागरिकों की निजता में दखल दे सकती है।

अगर, भारतीय संविधान की बात करें, तो उसमें ‘निजता का अधिकार’ का स्पष्ट लिखित उल्लेख नहीं है, लेकिन भारतीय समाज में वर्षों से इसे नैसर्गिक अधिकार माना जाता रहा है। दरअसल, निजता हर मानव-व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है और इसके बिना अन्य मौलिक अधिकारों की कोई प्रासंगिकता नहीं है। रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसे अनेक अवसर आते हैं, जहां हमें निजता चाहिए होती है। हम किसी को चिट्ठी लिखते हैं, तो नहीं चाहते कि उसे कोई दूसरा पढ़े। हम अपना बैंक, फेसबुक, ईमेल अकाउंट की निजी जानकारी किसी से साझा नहीं करते, क्योंकि इससे हमारी गोपनीयता खत्म होती है। जाहिर है, निजता को मौलिक अधिकार से अलग नहीं किया जा सकता। इसे अलग करने का अर्थ, किसी शरीर से आत्मा को अलग करने की तरह होगा। निजता का प्राकृतिक अधिकार नागरिकों की गोपनीयता सुनिश्चित व सुरक्षित करती है। बिना निजता के जीवन का आनंद भी तो नहीं लिया जा सकता!

बेशक, हमारे संविधान में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन भारतीय संविधान की तरह अमेरिकी संविधान में भी ‘निजता का अधिकार’ का उल्लेख नहीं है लेकिन, वहां की सुप्रीम कोर्ट इसके अस्तित्व को स्वीकारती है। अमेरिकी सरकार निजता के अधिकार को काफी गंभीरता से लेती है और नीति-निर्माण के समय नागरिकों की निजता का विशेष ख्याल रखा जाता है। वहीं जापान की बात करें, तो वहां के नागरिकों के पास भी ऐसा कोई अधिकार नहीं है, लेकिन निजी जानकारियों की सुरक्षा के लिए वहां, ‘एक्ट आॅन द प्रोटेक्शन आॅफ पर्सनल इन्फोर्मेशन’ नाम से एक ठोस कानून जरुर है, जिसके मुताबिक व्यक्ति की अनुमति के बिना सरकार या कोई संस्था उसकी निजी जानकारियों का इस्तेमाल नहीं कर सकती। इसी तरह, विश्व में पहली बार नागरिकों को व्यक्तिगत पहचान संख्या जारी करने वाले स्वीडन में भी एक ठोस कानून बनाकर नागरिकों से जुड़े गोपनीय सूचनाओं की सुरक्षा सुनिश्चित की गई है। मौजूदा समय में, इंटरनेट प्रयोग के तौर पर भारत एक विशाल बाजार के रुप में परिणत हो चुका है। लेकिन, यहां की सरकार ने एक ठोस डेटा प्रोटेक्शन लॉ पर कभी गंभीरता नहीं दिखाई!

‘निजता के अधिकार’ पर हो रही बहस मुख्य रुप से ‘आधार’ पर आकर ठहर जा रही है। दरअसल, बैंक से लेकर मोबाइल-सिम तक बहुत सारी सेवाओं में आधार को अनिवार्य किया जा रहा है। ऐसे में अगर देश में ठोस डेटा प्रोटेक्शन एक्ट ना हो, तो नागरिकों की निजी सूचनाओं के हैक होने तथा उसके दुरुपयोग की संभावनाओं को बल मिल सकता है। याद हो, बीते साल के अक्तूबर महीने में भारत के 32 लाख ग्राहकों के डेबिट कार्ड की गोपनीय जानकारी अचानक से हैक हो जाने से सनसनी फैल गई थी। वहीं, पिछले दिनों ‘रैनसमवेयर’ वायरस ने एक साथ विश्वभर के सौ से अधिक देशों के दो लाख से ज्यादा कम्प्यूटरों को नुकसान पहुंचाया था। आधार को अन्य सेवाओं जैसे कि बैंक, सिम आदि से जोड़ने से बायोमेट्रिक प्रणाली से ली गई नागरिकों की निजी सूचनाओं की गोपनीयता खत्म होने तथा साइबर क्राइम के मामलों में वृद्धि की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

चूंकि भारत में इंटरनेट से जुड़ी अधिकांश कंपनियां मसलन, गूगल, फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप इत्यादि विदेशी हैं, इसलिए संभव है कि ये कंपनियां भविष्य में हमारी निजी सूचनाओं का दुरुपयोग करे!अत: निजता के अधिकार के साथ-साथ देश में एक ठोस डेटा प्रोटेक्शन कानून भी होना चाहिए;ताकि इन कंपनियों की गतिविधि तथा अनियंत्रित आजादी को नियंत्रित किया जा सके। फिर, कानून का उल्लंघन करने वाली देशी या विदेशी सभी कंपनियों के लिए कठोर दंड की व्यवस्था भी हो। पुनश्च, सरकार को नागरिकों की निजी सूचनाओं की गोपनीयता सुनिश्चित करने पर जोर देना चाहिए, ताकि तकनीकी रुप से भारत का वर्तमान और भविष्य सशक्त तथा उज्ज्वल बन सके।

-सुधीर कुमार

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