अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस सिर्फ उत्सव मनाने के लिए नहीं, बल्कि आदिवासी अस्तित्व, संघर्ष, हक-अधिकारों और इतिहास को याद करने के साथ-साथ जिम्मेदारियों और कर्तव्यों की समीक्षा करने का भी दिन है। आदिवासियों को उनके अधिकार दिलाने और उनकी समस्याओं का निराकरण, भाषा संस्कृति, इतिहास आदि के संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा 9 अगस्त 1994 में जेनेवा शहर में विश्व के आदिवासी प्रतिनिधियों का विशाल एवं विश्व का प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय आदिवासी सम्मेलन आयोजित किया। इसके बाद विश्व के सभी देशों में अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस को मनाया जाने लगा, पर अफसोस भारत के आदिवासी समुदाय आज भी उपेक्षित हैं।
आदिवासी बहुल क्षेत्र में आदिवासी समाज का अपनी धरोहर, अपने पारंपरिक सामाजिक मूल्यों और अधिकारों के साथ ही विकास हो, इसके लिए भारतीय संविधान ने प्रावधान किये गये हैं। आदिवासी समाज को जल-जंगल-जमीन विहीन होने से बचाने के लिए कानून भी बनाये गये। ये कानून न तो अंग्रेजों का उपहार है और न ही भारत के शासकों की आदिवासी हित-चिंता के प्रमाण हंै। बल्कि यह आदिवासी नायकों जैसे बिरसा मुंडा, तात्या टोपे के संघर्ष की देन है। आजाद भारत में आदिवासी समुदाय को वोट बैंक मानते हुए सरकारें उनके कल्याण की योजनाएं एवं कानून तो बनाती रही हैं, लेकिन हर बार आदिवासी समाज ठगा ही गया है, उसके प्रतिकूल ही हुआ है।
जल, जंगल और जमीन के मालिक आदिवासी हैं, इससे इनका अस्तित्व जुड़ा है। यूएनओ ने भी माना है कि इस पर आदिवासियों का हक है। यही नहीं, जमीन के अंदर के खनिज के मालिक भी आदिवासी हैं। भारत सरकार एवं प्रांतों की सरकारें आदिवासियों के हितों की बात तो बहुत करती हैं, लेकिन इनके भविष्य को बचाने के लिए गंभीरता नहीं दिखाती।
आदिवासी समुदाय की जमीनों पर ही सरकारों की नजरें टिकी रहती हैं। जंगल के जंगल उजड़ रहे हैं। आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल हो रहे हैं सरकार मानने के लिए तैयार ही नहीं है कि आदिवासियों का भविष्य जमीन से जुड़ा है। आजादी के बाद देश का विकास हुआ, विकास होना भी चाहिए, लेकिन इसकी सबसे ज्यादा कीमत आदिवासियों ने चुकायी, बोकारो स्टील हो, एचइसी हो, राउरकेला स्टील प्लांट हो, सभी जगह उस क्षेत्र के आदिवासी विस्थापित हुए, आज इनकी हालत कोई इन गांवों में जाकर देखे, जमीन से बेदखल होने के बाद आदिवासी कहीं के नहीं रहे, विस्थापन का ख्याल सरकारों ने नहीं किया।
बल्कि सरकारें इसके विपरीत रणनीतियां बना रही हैं। ऐसी ही कुचेष्ठा गुजरात में होती रही है। असंवैधाानिक एवं गलत आधार पर गैर-आदिवासी को आदिवासी सूची में शामिल किये जाने एवं उन्हें लाभ पहुंचाने की गुजरात की वर्तमान एवं पूर्व सरकारों की नीतियों का विरोध इनदिनों गुजरात में आन्दोलन का रूप ले रहा है। सौराष्ट्र के गिर, वरड़ा, आलेच के जंगलों में रहने वाले भरवाड़, चारण, रबारी एवं सिद्धि मुस्लिमों को इनके संगठनों के दवाब में आकर गलत तरीकों से आदिवासी बनाकर उन्हें आदिवासी जाति के प्रमाण-पत्र दिये गये, इस ज्वलंत एवं आदिवासी अस्तित्व एवं अस्मिता के मुद्दे पर सत्याग्रह हो रहा है।
अनेक कांग्रेसी एवं भाजपा के आदिवासी नेता भी उसमें शामिल हैं। गुजरात के आदिवासी जनजाति से जुड़े राठवा समुदाय में उनको आदिवासी न मानने को लेकर गहरा आक्रोश है। इन विकराल होती संघर्ष की स्थितियों पर नियंत्रण नहीं किया गया तो यह न केवल गुजरात सरकार बल्कि केन्द्र सरकार एवं अन्य प्रांतों की सरकारों के लिये एक बड़ी चुनौती बन सकता है।
हाल ही में सम्पन्न गुजरात विधानसभा के चुनाव में आदिवासी समाज की नाराजगी का साफ असर दिखाई दिया। अन्यथा भाजपा जिस शानदार जीत का दावा कर रही थी, वह संभव हो सकता था। हर बार चुनाव के समय आदिवासी समुदाय को बहला-फुसलाकर उन्हें अपने पक्ष में करने की तथाकथित राजनीति इस बार असरकारक नहीं रही। क्योंकि गुजरात का आदिवासी समाज बार-बार ठगे जाने के लिए तैयार नहीं है। इस प्रांत की लगभग 23 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। देश के अन्य हिस्सों की तरह गुजरात के आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवन-यापन करने को विवश हैं। यह तो नींव के बिना महल बनाने वाली बात हो गई।
आदिवासी समुदाय को बांटने और तोड़ने के व्यापक उपक्रम चल रहे हैं जिनमें अनेक राजनीतिक दल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए तरह-तरह के घिनौने एवं देश को तोड़ने वाले प्रयास कर रहे हैं। आदिवासियों के उज्ज्वल एवं समृद्ध चरित्र को धुंधलाकर राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों के खिलाफ हो रहे आन्दोलन को राजनीतिक नजरिये से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
तेजी से बढ़ते आदिवासी समुदाय को विखण्डित करने का यह बिखरावमूलक दौर देश के लिये गंभीर समस्या बन सकता है। एक समाज और संस्कृति को बचाने की मुहिम के साथ कोई अभिनव योजना या घोषणा अन्तर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस पर केन्द्र सरकार करें जिससे आदिवासी समुदाय के लिये कोई सकारात्मक जमीन तैयार हो सके, ऐसी अपेक्षा है।
आजादी के सात दशक बाद भी देश के आदिवासी उपेक्षित, शोषित और पीड़ित नजर आते हैं। राजनीतिक पार्टियाँ और नेता आदिवासियों के उत्थान की बात करते हैं, लेकिन उस पर अमल नहीं करते। आज इन क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वरोजगार एवं विकास का जो वातावरण निर्मित होना चाहिए, वैसा नहीं हो पा रहा है, इस पर कोई ठोस आश्वासन इन निर्वाचित सरकारों से मिलना चाहिए,
वह भी मिलता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। अक्सर आदिवासियों की अनदेखी कर तात्कालिक राजनीतिक लाभ लेने वाली बातों को हवा देना एक परम्परा बन गयी है। इस परम्परा को बदले बिना देश को वास्तविक उन्नति की ओर अग्रसर नहीं किया जा सकता। देश के विकास में आदिवासियों की महत्वपूर्ण भूमिका है और इस भूमिका को सही अर्थों में स्वीकार करना वर्तमान की बड़ी जरूरत है।
मूल बात है कि आज भी आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवनयापन क्यों करने को विवश हैं। जबकि केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी 7 दशक में उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएँ, पीने का साफ पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं। जिस प्रांत से प्रधानमंत्री एवं भाजपा अध्यक्ष आते हों, उस प्रांत में आदिवासी समुदाय की उपेक्षा और उनकी स्थिति डांवाडोल होना एक गंभीर चुनौती है।
आदिवासी जन-जाति के साथ हो रहा सत्ता का उपेक्षापूर्ण व्यवहार गुजरात के समृद्ध एवं विकसित राज्य के तगमे पर एक प्रश्नचिन्ह है। देश में यह कैसी समृद्धि है और यह कैसा विकास है जिसमें आदिवासी अब भी समाज की मुख्य धारा से कटे नजर आते हैं। सरकार आदिवासियों को लाभ पहुंचाने के लिए उनकी संस्कृति और जीवन शैली को समझे बिना ही योजना बना लेती है। ऐसी योजनाओं का आदिवासियों को लाभ नहीं होता, अलबत्ता योजना बनाने वाले जरूर फायदे में रहते हैं। महँगाई के चलते आज आदिवासी दैनिक उपयोग की वस्तुएँ भी नहीं खरीद पा रहे हैं। वे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। अत: देश की बहुसंख्य आबादी आदिवासियों पर विशेष ध्यान देना होगा।
गणि राजेन्द्र विजय
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