बच्चों के अधिकार किसी दल की प्राथमिकता क्यों नहीं?

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भारत में गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, बाल मजदूरी और अंधविश्वास बचपन के बैरी तो हैं ही साथ में कुबेर तंत्र बनती राजनीति भी बचपन के दुश्मन ही बन गए हैं, क्योंकि सरकारी नीतियां बचपन को बचाने और सही दिशा देने में नाकाफी साबित हो रहीं हैं। सड़कों पर घूमते बच्चे बदलते भारत की तस्वीर है, जिस ओर एयरकंडीशन में बैठी हमारी लोकतांत्रिक राजशाही व्यवस्था शायद देखना नहीं चाहती।

इनका अपना कोई ठिकाना भी नहीं होता, कभी कोई फुटपाथ जिन बच्चों का बिस्तर, फ्लाईओवर जिनका छत और किसी तरह भूख शांत करना जिनका दैनिक उद्देश्य होता है, उनकी तरफ शायद हमारी व्यवस्था ने कानून बनाने के बाद कभी झांकने की कोशिश की ही नहीं। यह बदलते देश का नया वर्तमान है? बिता लोकतांत्रिक भूतकाल रहा है।

पढ़ने-लिखने की उम्र में कचरे के ढ़ेर से कचरा उठाते बच्चे, अखबार, फूल, कलम बेचते बच्चे, कलाबाजियां दिखाता भारत का भविष्य वर्तमान में कहीं भी दिख जाएगा। केवल पेट भरने के सिवाय अन्य जिम्मेदारियों से उनके माता-पिता भी मजबूरीवश पल्ला झाड़ लेते हैं, तो सरकारें भी अच्छे दिन बहुरने का वादा कर अपने सामाजिक कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है।

ऐसे में लगता यही है, क्या लोकतंत्र में इन बच्चों के लिए कोई जगह नहीं क्या। ऐसे में सवालों की फेहरिस्त फिर लंबी हो जाती है, क्योंकि दिमागी बुखार, निमोनिया, डायरिया और अन्य बीमारियों की वजह से आजादी के सत्तर साल बाद भी हर वर्ष सैकड़ों बच्चे मारे जाते हैं। लेकिन इन मौतों के बावजूद सरकारें सबक सीखने को तैयार नहीं हैं।

ऐसे में शायद नीति-नियंत्रणकर्ता ही इन प्रश्नों के उत्तर ढूढ़ने की कोशिश नहीं करते, क्योंकि वोटबैंक की राजनीति के वे बच्चे हिस्सेदार नहीं होते। वरना शायद उनकी मलिन दशा और दिशा देखकर भारतीय राजनीति को शर्म आती, और उनके लिए भी कोई न कोई सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन होता। जैसा कि लैपटॉप, और मोबाइल रूपी लॉलीपॉप 10वीं और 12वीं के छात्रों के लिए बांटा जाता है।

देश में गरीबी के कारण भी बच्चे शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र की 2014 में आई रिपोर्ट के अनुसार विश्व के बेहद गरीब 120 करोड़ लोगों में से लगभग एक तिहाई बच्चे हमारे देश के हैं। यह आज की स्थिति है, फिर वर्तमान राजनीति से क्या उम्मीद की जाए। 1959 में बाल अधिकारों की घोषणा को स्वीकारने में लगभग पचास साल लग लगें।

इससे पता चलता है, कि लोकतंत्र में सियासतदारों ने बच्चों के भविष्य और जीवन को कितना अहमियत दिया है। सड़क पर जीवन बिताने वाले बच्चों की संख्या मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार दस लाख, तो वहीं गैर सरकारी संगठनों डॉन बॉस्को नैशनल फोरम और यंग एट रिस्क की ओर से देश के 16 शहरों में 2013 में कराए गए सर्वेक्षण के अनुसार महानगरों में सबसे ज्यादा बच्चे फुटपाथों पर रहते हैं।

जिनके अनुसार दिल्ली में सबसे ज्यादा 69976 बच्चे , मुंबई में 16059, कोलकाता में 8287 ,चेन्नई में 2374 और बेंगलूरु में 7523 बच्चे फुटपाथ पर रहते हैं। ये चंद उदाहरण हैं, यह स्थिति पूरे देश की शायद है ही नहीं। स्थितियां इससे बदत्तर होगी। बाल अधिकार के तहत जीवन का अधिकार, पहचान, भोजन, पोषण, स्वास्थ्य, और शिक्षा शामिल है। फिर जब देश के बच्चें सड़कों पर जीवन जीने को विवश हैं, फिर उन्हें क्या पहचान राजनीति दिला सकी, और फिर किस संवैधानिक स्वतंत्र और समानता की बात की जाती है।

यह बड़ा प्रश्न है। बच्चे तो आजादी से ही इन अधिकारों से वंचित दिखते हैं। क्या इनको अपने अधिकारों के हिस्से का 5 फीसद भी हक देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल्यों की बात करने वाली रहनुमाई व्यवस्था दिला पाई। बच्चा कोई भी हो, चाहे गरीब या अमीर। वह देश की अनमोल धरोहर होता है, जिसके कंधों पर ही देश का भविष्य अड़िग होता है, लेकिन अफसोस कि वास्तविक परिदृश्य में आजादी के सत्तर वर्षों में राजनीति ने इन बच्चों के लिए शायद शून्य बाटे सन्नाटा के बराबर ही काम कर सकी है।

कहते हैं न, भूखे पेट भजन न हो गोपाला, जब देश से भुखमरी, और कुपोषण मिट ही नहीं रहा। फिर शिक्षा के अधिकार से क्या मिला, वह इस कहावत से समझा जा सकता है। हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या।

वैसे कर्तव्यों से मुख तो हमारा समाज भी मोड़ रहा है, वह इन बच्चों को रुपए एक की भीख देकर ही अपनी सामाजिक और नैतिक जिम्मेवारियों से छुटकारा पा लेता है, यह रवायत भी उचित नहीं। अब जब चुनावी धुन भले ही राज्य चुनावों की बज चुकी है, तो क्या राजनीति बच्चों के अधिकारों के बारे में बात करने की सार्थक पहल करेगी। यह देखने वाला विषय होगा।

वैसे बीते समय की राजनीति और नेशनल सेम्पल सर्वे की रिपार्ट देखकर लगता नहीं, कि राजनीति बच्चों के अधिकारों को लेकर सचेत होने वाली है, क्योंकि एक रिपोर्ट के मुताबिक दो तिहाई लोग पोषण के सामान्य मानक से कम खुराक प्राप्त कर पाते हैं। वहीं गैर सरकारी संगठन की रिपोर्ट के अनुसार कुपोषित और कम वजन के बच्चों की आबादी का लगभग 40 फीसद हिस्सा विश्व में भारत से ही आता है।

जो बच्चों के अधिकारों की हवाई किला बनाने वाली व्यवस्था की नीतियों पर सवालिया प्रश्न खड़ी करती है, कि अगर बच्चों के भविष्य को सँवारने के लिए कदम उठाए जा रहें हैं, फिर नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट को किस विकास के पैमाने से नापे। जिसके अनुसार झारखंड में पांच वर्ष तक के 47.8 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं।

अगर खनिज संपदा से भरे प्रदेश की यह स्थिति है। ऐसे में अन्य प्रदेशों की हालत कितनी पतली होगी, इसका सहज आंकलन किया जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक पूरे देश में सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे झारखंड में हैं। वहीं एक साल तक के बच्चों की मौत के मामले में उत्तर प्रदेश पूरे देश में पहले नंबर पर है। फिर बच्चों का भविष्य किस दल की प्राथमिकता में है, यह समझना कोई दूर की कौड़ी नहीं।

-लेखक महेश तिवारी

 

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