भारत में आदिवासी उपेक्षित क्यों हैं

Why are tribals in India neglected

अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस सिर्फ उत्सव मनाने के लिए नहीं, बल्कि आदिवासी अस्तित्व, संघर्ष, हक-अधिकारों और इतिहास को याद करने के साथ-साथ जिम्मेदारियों और कत्र्तव्यों की समीक्षा करने का दिन भी है। आदिवासियों को उनके अधिकार दिलाने और उनकी समस्याओं का निराकरण, भाषा संस्कृति, इतिहास आदि के संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने जेनेवा शहर में विश्व के आदिवासी प्रतिनिधियों का विशाल एवं विश्व का प्रथम अन्तर्राष्टीय आदिवासी सम्मेलन आयोजित किया। इसके बाद विश्व के सभी देशों में अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस मनाया जाने लगा पर अफसोस कि भारत के आदिवासी समुदाय आज भी उपेक्षित हैं। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में आदिवासी समाज का अपनी धरोहर, अपने पारंपरिक सामाजिक मूल्यों और अधिकारों के साथ ही विकास हो, इसके लिए भारतीय संविधान में प्रावधान किये गये हैं। आदिवासी समाज की जल-जंगल-जमीन विहीन होने से बचाने के लिए कानून भी बनाये गये।
जल, जंगल और जमीन के मालिक आदिवासी हैं, इससे इनका अस्तित्व जुड़ा है। यूएनओ ने भी माना है कि इन पर आदिवासियों का हक है। यही नहीं, जमीन के अंदर के खनिज के मालिक भी आदिवासी हैं। भारत सरकार एवं प्रांतों की सरकारें आदिवासियों के हितों की बात तो बहुत करती हैं, लेकिन इनके भविष्य को बचाने के लिए गंभीरता नहीं दिखाती। आदिवासी समुदाय की जमीनों पर ही सरकारों की नजरें टिकी रहती हंै।

जंगल के जंगल उजड़ रहे हैं। आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल हो रहे हैं और सरकार मानने के लिए तैयार ही नहीं है कि आदिवासियों का भविष्य जमीन से जुड़ा है। आजादी के बाद देश का विकास हुआ, विकास होना भी चाहिए, लेकिन इसकी सबसे ज्यादा कीमत आदिवासियों ने चुकायी, बोकारो स्टील प्लांट हो, एचईसी हो, राउरकेला स्टील प्लांट हो, सभी जगह उस क्षेत्र के आदिवासी विस्थापित हुए। आज इनकी हालत कोई इन गांवों में जाकर देखे। जमीन से बेदखल होने के बाद आदिवासी कहीं के नहीं रहे। विस्थापन का ख्याल सरकारों ने नहीं किया, बल्कि सरकारें इसके विपरीत रणनीतियां बना रही हैं। ऐसी ही कुचेष्ठा गुजरात में होती रही है। असंवैधानिक एवं गलत आधार पर गैर-आदिवासियों को आदिवासी सूची में शामिल किये जाने एवं उन्हें लाभ पहुंचाने की गुजरात की वर्तमान एवं पूर्व सरकारों की नीतियों का विरोध इन दिनों गुजरात में आन्दोलन का रूप ले रहा है। सौराष्ट्र के गिर, वरड़ा, आलेच के जंगलों में रहने वाले भरवाड़, चारण, रबारी एवं सिद्धि मुस्लिमों को इनके संगठनों के दवाब में आकर गलत तरीकों से आदिवासी बनाकर उन्हें आदिवासी जाति के प्रमाण-पत्र दिये गये। इस ज्वलंत एवं आदिवासी अस्तित्व एवं अस्मिता के मुद्दे पर सत्याग्रह हो रहा है। अनेक कांग्रेसी एवं भाजपा के आदिवासी नेता भी उसमें शामिल हैं।

हमें यह भी समझना होगा कि एकमात्र शिक्षा की जागृति से ही आदिवासियों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आएगा। बदलाव के लिए जरूरत है उनकी कुछ मूल समस्याओं के हल ढूंढना। भारत के जंगल समृद्ध हैं, आर्थिक रूप से और पर्यावरण की दृष्टि से भी। देश के जंगलों की कीमत खरबों रुपये आंकी गई है। ये भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से तो कम है लेकिन कनाडा, मैक्सिको और रूस जैसे देशों के सकल उत्पाद से ज्यादा है। इसके बावजूद यहां रहने वाले आदिवासियों के जीवन में आर्थिक दुश्वारियां मुंह बाये खड़ी रहती हैं। आदिवासियों की विडंबना यह है कि जंगलों के औद्योगिक इस्तेमाल से सरकार का खजाना तो भरता है, लेकिन इस आमदनी के इस्तेमाल में स्थानीय आदिवासी समुदायों की भागीदारी को लेकर कोई प्रावधान नहीं है। जंगलों के बढ़ते औद्योगिक उपयोग ने आदिवासियों को जंगलों से दूर किया है। आर्थिक जरूरतों की वजह से आदिवासी जनजातियों के एक वर्ग को शहरों का रुख करना पड़ा है।

आज जब भी और जहां भी विकास की बात होती है, आदिवासी सहम और डर जाते हैं, सरकार पर विश्वास नहीं होता। पहले ही आदिवासी इतना भुगत चुके हैं कि इससे उबर तक नहीं पाये। सरकार इनके लिए जो भी कानून या अधिकार देने की बात करती है, वह ग्रास रूट तक नहीं पहुंच पाता। वन अधिकार का कानून आया, लेकिन उसको लागू करने में राज्यों ने रुचि नहीं दिखायी। आदिवासियों या मूलवासियों को जंगल पर अधिकार नहीं मिला। आदिवासी की उपेक्षा का ही परिणाम है कि आदिवासियों के हिस्से में ऐसे अवसर नहीं के बराबर आए, जिन पर वे खुलकर खुशी जाहिर कर सके। जिन क्षेत्रों में भी आदिवासी बचे हुए हैं, उन्हें अपने अस्तित्व के लिये व्यापक संघर्ष करने पड़ रहे हैं।

Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।