गरीबों और किसानों की परवाह कौन करे?

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ऐसे समय पर जब किसान आंदोलन जारी है और संपूर्ण विपक्ष उनका समर्थन कर रहा है, सरकार द्वारा हठधर्मिता अपनाना दुर्भाग्यपूर्ण है। यही नहीं इससे देश के लाखों किसानों को यह संदेश जा रहा है कि सरकार की प्राथमिकता में उनका कोई स्थान नहीं है और इसके बजाय सरकार सेन्ट्रल विस्टा परियोजना पर ध्यान दे रही है जिसकी लागत 20 हजार करोड़ रूपए से अधिक है तथा जिसका उद्देश्य संसद, केन्द्रीय सचिवालय के नए भवनों तथा प्रधानमंत्री और उपराष्ट्रपति के लिए नए आवास का निर्माण करना है।
स्वास्थ्य क्षेत्र और अर्थव्यवस्था की ओर भी सरकार उतना ध्यान नहीं दे रही है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि दिल्ली में विभिन्न सरकारी भवनों की वास्तु शिल्प सोवियत शैली की है जो उस समय की राजनीतिक सोच को दर्शाती है इसलिए इनके स्थान पर आधुनिक वास्तु शिल्प से निर्माण किया जाना चाहिए किंतु ऐसा करते समय इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है कि इससे राजकोष पर कितना बोझ पडेÞगा। हाल ही में एक विश्लेषक का कहना है कि इस परियोजना से रोजगार का सृजन होगा। इससे ऐसा लगता है कि मानो यह फिजूलखर्ची रोजगार सृजन का सर्वोत्तम उपाय है।
यद्यपि उच्चतम न्यायालय ने प्रधानमंत्री मोदी को नए संसद भवन की आधारशिला रखने की अनुमति दी है किंतु तीन न्यायधीशों की खंडपीठ ने सरकार से शपथ पत्र लिया है कि जब तक इस मामले में दायर याचिकाओं का निपटान नहीं होता है वे तब तक कोई नया निर्माण नहीं करेंगे, पुराने निर्माण को नहीं गिराएंगे और पेड़ों को नहीं काटा जाएगा। पर्यावरणीय चिंता के अलावा देश की वित्तीय स्थिति भी अच्छी नहीं है और कोरोना के बाद महामारी के के चलते वित्तीय स्थिति और जर्जर हो चुकी है।
पिछले तीन सप्ताह से दिल्ली की ठंड में किसानों का आदंोलन जारी है। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने सही कहा कि मोदी जी इतिहास में यह दर्ज होगा जब लाखों किसान सड़कों पर अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे आप सेन्ट्रल विस्टा परियोजना की आड़ में अपने लिए महल का निर्माण करा रहे थे। लोकतंत्र में सत्ता व्यक्तिगत चाह को पूरा करने के लिए नहीं होती अपितु जनता की सेवा और कल्याण करने के लिए होती है। कई अन्य नेताआें ने भी कहा है कि सरकार गरीबों के मूल अधिकार छीन रही है तथा उन्होंने मोदी तथा सरकार पर आरोप लगाया है कि यह मानवता के विरुद्ध अपराध है।
हमें भारत के बेहतर भविष्य के लिए समाज के हर वर्ग के अधिकारों का सम्मान करना चाहिए। किसान कृषि कानूनों में संशोधन करने के सरकार के प्रस्तावों से संतुष्ट नही हैं और वे इन कानूनों को रद्द करने तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानून में दर्ज करने की मांग कर रहे हैं। किसानों का आंदोलन प्रधानमंत्री मोदी द्वारा हाल ही में फिक्की की वार्षिक आम बैठक में की गयी इस टिप्पणी के विरुद्ध भी है जिसमें उन्होंने कृषि में निजी निवेश को बढावा देने की बात की थी जिससे किसानों की आशंकाएं और बढ गयी हैं।
उन्होंने स्वयं कहा था सप्लाई चेन, शीतागार, और उर्वरक आदि जैसे क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की रूचि और निवेश की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा है कि सुधारों के बाद किसानों को प्रौद्योगिकी का लाभ मिलेगा। देश का शीतागार अवसंरचना का आधुनिकीकरण होगा और ऐसा कर कृषि में अधिक निवेश होगा जिससे किसानों को लाभ मिलेगा। किंतु प्रौद्योगिकी छोटे और यहां तक मध्यम किसानों तक नहीं पहुंच पाती है। इस सबका उद्देश्य कृषि क्षेत्र में निगमीकरण करना है। राष्ट्रीय नीतियों, संसाधनों और निवेश में लोक स्वास्थ्य को प्राथमिकता नहीं दी जाती है। निश्चित रूप से सरकार को इस संबंध में स्पष्ट आश्वासन देना होगा।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि पिछले वर्ष महामारी का कोई प्रभावी उपचार नहीं था किंतु इसे गैर-औपचारिक उपायों जैसे सामाजिक दूरी बनाए रखने, मास्क पहनने आदि के माध्यम से नियंत्रित किया जा सका। देश की खस्ताहाल स्वास्थ्य अवसरंचना और इस क्षेत्र में निवेश की कमी कोरोना महामारी के दौरान सामने आयी और इस दिशा में क्षमता बढ़ाने का प्रयास किया गया। 15वें वितीय आयोग ने लोक स्वास्थ्य सेवाओं में अंतर की समीक्षा की। जिसके अध्यक्ष ने कहा कि लोक स्वास्थ्य व्यय में वर्तमान 0.95 प्रतिशत से वृद्धि कर इसे 2.5 प्रतिशत किया जाना चाहिए किंतु लगता है सरकार इस बात को नहीं सुन रही है। केन्द्र सरकार के समक्ष वित्तीय संकट स्पष्टत: देखने को मिल रहा है किंतु इससे भी ज्यादा खस्ता हालत राज्य सरकारों की है।
हालांकि चालू वित वर्ष की दूसरी छमाही में स्थिति में सुधार आएगा किंतु इस संबंध में लापरवाही बरतने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा लगता है कि सरकार हर चीज के लिए निजी क्षेत्र पर निर्भर है और वह चाहती है कि कंपनियां निवेश करें किंतु वे भी शायद इस स्थिति में नहीं है। निवेश मुख्यतया सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा किया जाना चाहिए। देश में सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में व्यक्तिगत खपत में भी गिरावट आयी है और यह बताता है कि कार्यशील लोगों की आय में गिरावट आयी है।
उल्लेखनीय है कि अन्य देशों के विपरीत भारत में अगले 20-25 वर्षों के लिए क्षेत्रवार संदर्शी योजना नहीं है। यहां तक कि हमारे देश में प्रत्येक पांच वर्ष में लागू की जाने वाली रणनीति भी नहीं है। राजनीतिक नेतृत्व लगता है केवल योजनाओं के नामों को बदलने में रूचि ले रहा है और इसके माध्यम से राजनीतिक संदेश देना चाहती है। वर्तमान स्थिति में सावधानीपूर्वक योजनाएं बनायी जानी चाहिए किंतु लगता है सरकार, नौकरशाह और प्रौद्योगिकीविद संकट की स्थिति का मुकाबला करने के लिए कदम नहीं उठा रहे हैं या वे राजनीतिक दबाव में कार्य कर रहे हैं। यह सच है कि देश में सामाजिक सुरक्षा नेट
 अभाव है और इसका मुख्य कारण यह है कि देश में अनौपचारिक अर्थव्यवस्था है। देश में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और अर्ध-बेरोजगारी भी अधिक है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि संसाधनों के अभाव में और सीमित वित्तीय संसाधनों के चलते महामारी के दौरान विश्व में भारत में सबसे कम धनराशि खर्च की गयी। विद्यमान चैनलों और योजनाओं जिनके माध्यम से त्वरित वित्तीय सहायता उपलब्ध करायी जा सकती थी वे भी अपर्याप्त हैं। इसलिए आवश्यकता है कि सरकार अपने प्रयासों में ईमानदारी बरते और अपनी प्राथमिकताओं में सुधार करे। इसलिए सरकार को लोगों की वैध मांगों पर ध्यान देना चाहिए।
लेखक: धुर्जति मुखर्जी
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