चिंताजनक : लॉकडाउन में रोजगार और काम धंधे हुए बंद, श्रमिकों पर दोहरी मार (Corona vs Hungry)
संजय मेहरा/सच कहूँ गुरुग्राम। जब नजरें उठाते हैं तो कम्युनिटी सेंटर की छत पर लहराता तिरंगा नजर आता है। तिरंगे को कई-कई घंटे तक निहारती रहती हैं नन्हीं, बड़ी और बूढ़ी आखें। इसी बीच जैसे ही किसी गाड़ी का हॉर्न बजता है तो सभी की नजरें उस ओर घूम जाती हैं। अगर गाड़ी रुकी तो चेहरों पर खुशी के भाव आ जाते हैं और नहीं रुकती तो उदासी और भी गहरा जाती है। कुछ इसी तरह जीवन के इन कठिन क्षणों को बिता रहे हैं बसई गांव में रहने वाले प्रवासी लोग।
कई-कई साल से यूपी, बिहार आदि राज्यों से आकर मजदूरी करने वाले महिलाएं, पुरुष अपने परिवारों के साथ यहां बसई गांव में रहते हैं।
- किसी ने सस्ते में मकान किराए पर ले रखे हैं तो कोई झुग्गी आदि डालकर रहता है।
- कोरोना संक्रमण के दौर में उनकी हालत खराब हो गई है।
महामारी ने दूसरों पर निर्भर बना दिया जीवन
- जो कुछ बचाकर रखा था, वह शुरू के दौर में खर्च हो गया।
- लॉकडाउन बढ़ने के बाद उनकी समस्या भी साथ में बढ़ गई।
- घर में खाने को सामान नहीं रहा और दुकानों से लाने को पैसे।
- मतलब खाली जेब हो गई। ऐसे में उनके पास मांग कर खाने के अलावा कुछ नहीं रहा।
- यहां खाना लेने के लिए कतार में लगे शेखर कश्यप, विजय प्रसाद, रंजीत,
- निर्मला देवी, यशोदा, पुष्पा व भतेरी ने कहा है।
- कि बड़े तो सहन कर लें, लेकिन कई-कई घंटे तक बच्चों को भी भूखा रहना पड़ता है।
- कोरोना से तो मरें या ना मरें, पर भूख हमें जरूर मार देगी। जब बच्चे खाना मांगते हैं
तो उन्हें थोड़ी-थोड़ी देर कहकर घंटों तक उनकी माएं बहलाती हैं। बहुतों के बच्चे तो अपनी माओं द्वारा दिए जाने वाले थोड़ी देर के आश्वासन के साथ सो तक जाते हैं। ऐसे में कवि की पंक्तियां याद आती हैं कि-पत्थर उबालती रही एक माँ रात भर, बच्चे फरेब खा के चटाई पर सो गए। मतलब कि बच्चों ने खाना मांगा तो माँ ने पत्थर उबलने के लिए रख दिए और बच्चे उनके उबलने का इंतजार करते-करते सो गए।
सुबह 10 बजे ही लग जाते हैं लाइन में
- बसई गांव के कम्युनिटी सेंटर में राहत शिविर बनाया गया है।
- इस शिविर में करीब दो दर्जन लोगों को गांव का ही राजेश शर्मा नामक व्यक्ति शुरू से ही खाना खिला रहा है।
मगर इस सेंटर के बाहर लगने वाली लाइन में लगे करीब 200 लोगों को रोज खाना खिलाना तो उनके जेब से भी बाहर की बात है। प्रशासन की तरफ से दोपहर बाद करीब दो बजे तो कभी तीन बजे वहां पर गाड़ी खाना देने आती है। कभी खिचड़ी, कभी चावल दिया जाता है। उसी खाने से ये प्रवासी काम चलाते हैं। सुबह करीब 10 बजे सभी यहां कम्युनिटी सेंटर के बाहर बर्तन आदि लेकर लाइन लगाकर खड़े हो जाते हैं। कुछ भी कहें, जिन्होंने सदा हाड़ तोड़ मेहनत करके रोटी खाई, आज वे भिखारियों की तरह यहां पर घंटों लाइन में लगे रहते हैं।
अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।