सुरक्षा परिषद् में भारत को स्थायी सदस्यता कब!

UN Security Council
संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता को लेकर भारत बरसों से प्रयासरत् रहा है। अमेरिका, रूस समेत दुनिया के तमाम देश स्थायी सदस्यता को लेकर भारत पक्षधर भी हैं मगर यह अभी मुमकिन नहीं हो पाया है। फिलहाल भारत 8वीं बार इसी परिषद् में अस्थायी सदस्य के लिए फिर चुन लिया गया जो साल 2021- 2022 के लिए है।
पड़ताल बताती है कि इसके पहले सात बार अस्थायी सदस्य के रूप में सिलसिलेवार तरीके से 1950-51, 1967-68, और 1972-73 से लेकर 1977-78 समेत 1984-1985, 1991-1992 व 2011-2012 में भी सुरक्षा परिषद् में अस्थायी सदस्य रहा है। जहां तक सवाल स्थायी सदस्यता का है इस पर मामला खटाई में बना हुआ है। विदित हो कि आगामी नवम्बर में अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव होना है। जाहिर है रिपब्लिकन के डोनाल्ड ट्रम्प व अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति एक बार फिर मैदान में हैं। हाऊडी मोदी के चलते भारतीय अमेरिकियों के वोट के मामले में ट्रम्प पिछले साल कोशिश कर चुके हैं। इतना ही नहीं मुख्य विपक्षी डेमोक्रेट पार्टी के राष्ट्रपति पद के सम्भावित उम्मीदवार बिडेन भी कुछ ऐसा इरादा जता रहे हैं जिससे कि भारत का रूख अपनी ओर आकर्षित करके सियासी फायदा उठाना चाहते हैं। वैसे भारतीय मूल के अमेरिकी रिपब्लिकन के बजाय डेमोक्रेट की ओर अधिक झुकाव रखते हैं। फिलहाल भारत में अमेरिकी राजदूत रह चुके रिचर्ड वर्मा के हवाले से यह पता चला है कि यदि बिडेन राष्ट्रपति बनते हैं तो संयुक्त राष्ट्र जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं को नया रूप देने में मदद करेंगे ताकि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट मिल सके। गौरतलब है कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस समेत चीन इसके पांच स्थायी सदस्य हैं ओर केवल चीन ही ऐसा देश है जो सुरक्षा परिषद में भारत के स्थायी सदस्य बनाने का विरोध करता है।
सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के मामले में भारत दुनिया भर से समर्थन रखता है सिवाय एक चीन के। ऐसे में परिवर्तन का समय अब आ चुका है। आखिर परिवर्तन की आवश्यकता क्यों है यह भी समझना ठीक रहेगा। असल में सुरक्षा परिषद की स्थापना 1945 की भू-राजनीतिक और द्वितीय विश्वयुद्ध से उपजी स्थिति को देखकर की गई थी। 75 वर्षों में पृष्ठभूमि अब अलग हो चुकी है। देखा जाए तो शीतयुद्ध की समाप्ति के साथ ही इसमें बड़े सुधार की गुंजाइश थी जो नहीं किया गया। 5 स्थायी सदस्यों में यूरोप का प्रतिनिधित्व सबसे ज्यादा है जबकि आबादी के लिहाज से बामुश्किल वह 5 फीसद स्थान घेरता है। अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका का कोई सदस्य इसमें स्थायी नहीं है जबकि संयुक्त राष्ट्र का 50 प्रतिशत कार्य इन्हीं से सम्बन्धित है। ढांचे में सुधार इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि इसमें अमेरिकी वर्चस्व भी दिखता है। भारत की सदस्यता के मामले में दावेदारी बहुत मजबूत दिखाई देती है। जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा सबसे बड़ा देश, हालांकि कोरोना के चलते इन दिनों अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी है बावजूद इसके प्रगतिशील अर्थव्यवस्था और जीडीपी की दृष्टि से भी प्रमुखता लिए हुए देश है। ऐसे में दावेदारी कहीं अधिक मजबूत है। इतना ही नहीं भारत को विश्व व्यापार संगठन, ब्रिक्स और जी-20 जैसे आर्थिक संगठनों में प्रभावशाली माना जाता है।
भारत की विदेश नीति तुलनात्मक प्रखर हुई है और विश्व शान्ति को बढ़ावा देने वाली है साथ ही संयुक्त राष्ट्र की सेना में सबसे ज्यादा सैनिक भेजने वाले देश के नाते भी दावेदारी सर्वाधिक प्रबल है। हालांकि भारत के अलावा कई और देश की स्थायी सदस्यता के लिए नपे-तुले अंदाज में दावेदारी रखने में पीछे नहीं है। जी-4 समूह के चार सदस्य भारत, जर्मनी, ब्राजील और जापान जो एक-दूसरे के लिए स्थायी सदस्यता का समर्थन करते हैं ये सभी इसके हकदार समझे जाते हैं। एल-69 समूह जिसमें भारत, एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई 42 विकासशील देशों के एक समूह की अगुवाई कर रहा है। इस समूह ने भी सुरक्षा परिषद् में सुधार की मांग की है। अफ्रीकी समूह में 54 देश हैं जो सुधारों की वकालत करते हैं। इनकी मांग यह है कि अफ्रीका के कम-से-कम दो राश्ट्रों को वीटो की शक्ति के साथ स्थायी सदस्यता दी जाये। उक्त से यह लगता है कि भारत को स्थायी सदस्यता न मिल पाने के पीछे मेहनत में कोई कमी नहीं है बल्कि चुनौतियां कहीं अधिक बढ़ी हैं। बावजूद इसके यदि भारत को इसमें शीघ्रता के साथ स्थायी सदस्यता मिलती है तो चीन जैसे देशों के वीटो के दुरूपयोग पर न केवल अंकुश लगेगा बल्कि व्याप्त असंतुलन को भी पाटा जा सकेगा।
सवाल यह है कि भारत को स्थायी सदस्यता की आवश्यकता क्यों है और यह मिल क्यों नहीं रही है और इसके मार्ग में क्या बाधाएं हैं। माना जाता है कि जिस स्थायी सदस्यता को लेकर भारत इतना एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है वही सदस्यता 1950 के दौर में बड़ी आसानी से सुलभ थी। आवश्यकता की दृष्टि से देखें तो भारत का इसका सदस्य इसलिए होना चाहिए क्योंकि सुरक्षा परिषद प्रमुख निर्णय लेने वाली संस्था है। प्रतिबंध लगाने या अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के फैसले को लागू करने के लिए इस परिषद के समर्थन की जरूरत पड़ती है। ऐसे में भारत की चीन और पाकिस्तान से निरंतर दुश्मनी के चलते इसका स्थायी सदस्य होना चाहिए। चीन द्वारा पाकिस्तान के आतंकवादियों पर बार-बार वीटो करना इस बात को पुख्ता करता है। साथ ही कुलभूषण जाधव का मामला भी इसका उदाहरण हो सकता है। स्थायी सीट मिलने से भारत को वैश्विक पटल पर अधिक मजबूती से अपनी बात कहने का ताकत मिलेगा।
स्थायी सदस्यता से वीटो पावर मिलेगा जो चीन की काट होगी। इसके अलावा बाह्य सुरक्षा खतरों और भारत के खिलाफ सुनियोजित आतंकवाद जैसी गतिविधियों को रोकने में मदद भी मिलेगी। भारत को स्थायी सदस्यता न मिलने के पीछे सुरक्षा परिषद की बनावट और मूलत: चीन का रोड़ा समेत वैश्विक स्थितियां हैं। वैसे चीन न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) के मामले में भी भारत के लिए रूकावट बनता रहा है। गौरतलब है सुरक्षा परिषद में 5 स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य होते हैं। अस्थायी सदस्य देशों को चुनने का उद्देश्य सुरक्षा परिषद में क्षेत्रीय संतुलन कायम करना होता है। जबकि स्थायी सदस्य शक्ति संतुलन के प्रतीत हैं और इनके पास वीटो की ताकत है। इसी ताकत के चलते चीन दशकों से भारत के खिलाफ वीटो का दुरूपयोग कर रहा है।
अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव प्रति चार वर्ष में होता रहता है जबकि संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का मामला दशकों पुराना है। यदि अमेरिका जैसे देशों को यह चिंता है तो सुरक्षा परिषद में में बड़े सुधार को सामने लाकर भारत को उसमें जगह देना चाहिए। अभी हाल ही में रूसी विदेश मंत्री ने भी यह कहा है कि स्थायी सदस्यता के लिए भारत मजबूत नॉमिनी है। वैसे देखा जाय तो दुनिया के कई देश किसी भी महाद्वीप के हों भारत के साथ खड़े हैं मगर नतीजे वहीं के वहीं हैं। डोनाल्ड ट्रम्प कई मामलों में भारत के साथ सकारात्मक हैं और डेमोक्रेट के राष्ट्रपति के सम्भावित उम्मीदवार बिडेन भी स्थायी सदस्यता के मामले में भारत के चहेते दिखते हैं।
यह अच्छी बात है कि अमेरिका के दो मूल राजनीतिक दल से भारत का सम्बंध और संवाद बेहतर है मगर उक्त आकर्षण कहीं चुनावी न हो। ऐसे में भारत को कूटनीतिक तरीके से ही समाधान की ओर जाना चाहिए। राष्ट्रपति कोई भी बने रणनीतिक समाधान पर भारत की दृष्टि होनी चाहिए। जाहिर है अमेरिका में चुनाव उसका आन्तरिक मामला है। ध्यानतव्य हो कि 2016 में डोनाल्ड ट्रम्प चुनावी प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री मोदी की अक्सर तारीफ करते थे और नतीजे उनके पक्ष में आये। कहीं ऐसा तो नहीं कि डेमोक्रेट के बिडेन सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्य के रूप में लाने का इरादा चुनावी फायदे में बदलने का हो। फिलहाल इरादा कुछ भी हो भारत को परिणाम से मतलब रखना चाहिए जो बाद में ही पता चलेगा पर सबके बावजूद यह सवाल उठता रहेगा कि आखिर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्यता कब मिलेगी।

अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।