विपक्षी दल कब निजी स्वार्थों से ऊपर उठेंगे?

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सत्रहवीं लोकसभा के चुनावों में भाजपा को बहुमत मिला। चुनाव से लेकर केन्द्र में सरकार बनाने तक विपक्षी दलों का ध्येय देश की राजनीति को नयी दिशा देने एवं सुदृढ़ भारत निर्मित करने के बजाय निजी लाभ उठाने का ही रहा है। क्या यह बेहतर नहीं होता कि चुनाव नतीजों की प्रतीक्षा की जाती और फिर परिस्थितियों के हिसाब से कदम बढ़ाए जाते? सवाल यह भी है कि यदि विपक्षी नेता मोदी सरकार की वापसी रोकने को लेकर इतने ही प्रतिबद्ध थे तो फिर उन्होंने चुनाव पूर्व कोई गठबंधन क्यों नहीं तैयार किया? सरकार बनाना हो या सशक्त विपक्ष की भूमिका का निर्वाह करना हो, ये विपक्षी दल किस हद तक अपने सहयोगियों को एकजुट कर पाते हैं, यह एक बड़ी चुनौती है, जिस पर वे चुनाव पूर्व की स्थितियों में नाकाम रहे हैं, अब कैसे वे सरकार बनाने की संभावनाओं को तलाशते एकजुट हो पायेंगे? भले ही वे इन संभावनाओं को तलाशने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही होता दिखाई दे रहा है।

भारतीय लोकतंत्र में विपक्षी दल अपनी सार्थक भूमिका निर्वाह करने में असफल रहे हैं, क्योंकि दलों के दलदल वाले देश में दर्जनभर से भी ज्यादा विपक्षी दलों के पास कोई ठोस एवं बुनियादी मुद्दा नहीं रहा। देश को बनाने का संकल्प नहीं है, उनके बीच आपस में ही स्वीकार्य नेतृत्व का अभाव है जो विपक्षी गठबंधन की विडम्बना एवं विसंगतियों को ही उजागर करता रहा है। विपक्षी गठबंधन को सफल बनाने के लिये नारा दिया गया है कि पहले मोदी को मात, फिर पीएम पर बात। ऐसा लग रहा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में अब नेतृत्व के बजाय नीतियों को प्रमुख मुद्दा न बनाने के कारण विपक्षी दल नकारा साबित हो रहे हैं, अपनी पात्रता को खो रहे हैं, यही कारण है कि न वे मोदी को मात दे पा रहे हैं और न ही पीएम की बात करने के काबिल बन पा रहे हैं।

ध्यान रहे कि इन विपक्षी दलों ने केवल महागठबंधन बनाने के दावे ही नहीं किए थे, बल्कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय करने का भी वादा किया गया था। लेकिन इस वादे से किनारा किए जाने से आम जनता के बीच यही संदेश गया कि विपक्षी दल कोई ठोस विकल्प पेश करने को लेकर गंभीर नहीं है और उनकी एकजुटता में उनके संकीर्ण स्वार्थ बाधक बन रहे हैैं, वे अवसरवादी राजनीति की आधारशिला रखने के साथ ही जनादेश की मनमानी व्याख्या करने, मतदाता को गुमराह करने की तैयारी में ही लगे हैं। इन्हीं स्थितियों से विपक्ष की भूमिका पर सन्देह एवं शंकाओं के बादल मंडराने लगे।

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू विभिन्न विपक्षी दलों के नेताओं से मिले हैं, लेकिन उन्हें एक भी सीट नहीं मिली। लगता है विपक्षी पार्टियों के ये प्रयास उनके राजनीतिक अस्तित्व को बचाए रखने की जद्दोजहद के रूप में होते हुए दिख रहे हैं, आखिर विपक्षी दल इस रसातल तक कैसे पहुंचे, यह गंभीर मंथन का विषय है। सिर्फ सत्ता को ही जब राजनीतिक दल एकमात्र उद्देश्य मान लेता है तब वह राष्ट्र दूसरे कोनों से नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तरों पर बिखरने लगता है।

 

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