संतों का जीवन परहित को समर्पित होता है। सच्चा गुरू, किसी जीव को नामदान देकर उसे अपना शिष्य बनाने से पूर्व उसके बुरे कर्मों को नष्ट करता है और उसकी सारी बलाएं (कष्ट) खुद के शरीर पर ले लेता है। ऐसे ही एक प्रत्यक्ष नजारे का जिक्र करते हुए गांव कंवरपुरा सरसा, (हरियाणा) के श्रद्धालु बताते हैं कि गांव में हर रोज सत्संग होता था। पूज्य सांई जी उस दिन सुबह तेरावास के बाहर विराजमान थे।
तभी पंजाब से दो पुलिस अफसर दर्शनों के लिए पहुंचे। सांई जी ने सेवादारों को वचन फरमाया, ‘‘इन्हें प्रसाद भी खिलाओ और चाय-पानी भी पिलाओ।’’ बाद में उन्होंने सत्संग सुना, और वह बहुत ही प्रभावित हुए। बाद में नामभिलाषी जीवों को बुलाया जाने लगा। उन दोनों अधिकारियों ने भी नाम लेने के लिए प्रार्थना की। यहीं नहीं, उन्होंने सेवादारों से गुजारिश भी की कि हमें भी नाम दिलवा दो। किंतू पूज्य साईं जी ने उनको नाम देने से साफ इन्कार कर दिया।
यह विषय काफी चर्चा में आ गया, आखिरकार गांव की पंचायत व सेवादारों ने मिलकर फिर से पूज्य सांई जी की पावन हजूरी में पेश होकर दोनों अफसरों को गुरूमंत्र देने की अर्ज दोहराई। आखिरकार साईं जी उन दोनों अधिकारियों को नाम देने के लिए रजामंद हो गए और गुरूमंत्र की दात प्रदान की। बताते हैं कि उस दिन नामदान देने के बाद पूज्य साईं जी के शरीर में जबरदस्त तकलीफ महसूस होने लगी।
साईं जी का स्वास्थ्य इस कद्र खराब हो गया कि पेशाब में भी बड़ी मात्रा में खून आने लगा। साईं जी ने वह खून वहां मौजूद पंचायत व सेवादारों को दिखाते हुए फरमाया, ‘भाई! तुम लोगों के कहने पर हमनें उन दोनों को नाम तो दे दिया है, परंतु वे नाम के अधिकारी नहीं थे। उन्होंने बहुत ही भारी पाप किए हुए थे।
काल ने उन्हें सात जन्म तक तपते भट्ठ में मक्की के दानों की तरह भूनना था। उनके भारी कर्मों का बोझ हमें उठाना पड़ा और उसके बदले अपने खून का एक लोटा काल को देना पड़ा है।’’
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