जब जवाबदेही ही तय नहीं, तो फिर सजा किसको?

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मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में बीते साल किसान आंदोलन के दौरान हुए किसान हत्याकांड की जांच के लिए गठित न्यायिक जांच आयोग ने आखिरकार अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंप दी है। हाल ही में सौंपी इस रिपोर्ट में जेके जैन आयोग ने आश्चर्यजनक तरीके से मंदसौर हत्याकांड में न तो किसी को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराया है और न ही किसी की जवाबदेही तय की गई है। पुलिस और जिला प्रशासन पर सिर्फ यह टिप्पणी भर है कि पुलिस और जिला प्रशासन का सूचना तंत्र कमजोर था।

आपसी सामंजस्य की कमी ने आंदोलन को उग्र होने दिया, जिसका नतीजा ये ‘गोलीकांड’ है। रिपोर्ट कहती है कि भीड़ को तितर-बितर करने और आत्मरक्षा के लिए गोली चलाना ‘नितांत आवश्यक’ और ‘न्यायसंगत’ था। सीआरपीएफ और राज्य पुलिस का गोली चलाना न तो अन्यायपूर्ण है और न ही बदले की भावना से उठाया कदम था।

अलबत्ता रिपोर्ट में यह बात जरूर कही गई है कि गोली चलाने में पुलिस ने नियमों का पालन नहीं किया। पुलिस और सुरक्षा बलों को गोली सीने से नीचे पांवों पर चलानी चाहिए थी। यानी एक तरह से आयोग ने अपनी ओर से पुलिस और सीआरपीएफ दोनों को क्लीन चिट दे दी है। इस बर्बर हत्याकांड में अधिकारियों के बजाय उन पीडित किसानों को ही गुनहगार ठहराने की कोशिश की गई है, जिन पर किसान आंदोलन के दौरान हुई हिंसा के लिए मामले दर्ज किए गए थे।

मंदसौर के पिपल्यामंडी में बीते साल 6 जून को हुई इस दर्दनाक घटना में 5 किसानों की पुलिस और सीआरपीएफ जवानों की गोली से मौके पर ही मौत हो गई थी। वहीं एक दर्जन से ज्यादा लोग घायल हुए थे। किसानों के उग्र आंदोलन के दौरान पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच इस कदर झड़प बढ़ गई कि पुलिस ने निहत्थे किसानों पर अपनी बंदूकों से गोलियां चला दीं। इस बर्बर हत्याकांड की जब पूरे देश में निंदा हुई और विपक्ष ने इस घटना की न्यायिक जांच की मांग की, तो राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने हीलाहवाली के बाद हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस जेके जैन की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग गठित कर दिया।

आयोग को अपनी यह रिपोर्ट पूरी करने के लिए तीन महीने का समय दिया गया था, लेकिन उसने घटना के 100 दिन बाद जाकर अपनी कार्रवाई शुरू की। जांच समय सीमा में पूरी न होने के चलते, आयोग का कार्यकाल तीन बार बढ़ाया गया। तब जाकर एक साल में यह रिपोर्ट पूरी हुई। जैसे कि यह रिपोर्ट मीडिया में उजागर हुई, उसके मुताबिक रिपोर्ट 13 पेज में है और 54 बिन्दुओं में रिपोर्ट का सारांश दिया गया है। साथ ही, इस दिन की घटना को देखते हुए पर्याप्त मात्रा में अग्निशामक बंदोबस्त नहीं किए गए।

आंदोलन के पहले असामाजिक तत्वों को पकड़ा जाना था, जिसमें पुलिस ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। अप्रशिक्षित लोगों से आंसू गैस के गोले चलवाए गए, जो कि कारगर साबित नहीं हुए। जाहिर है कि रिपोर्ट का यह अंश, जिला प्रशासन और पुलिस की पर्याप्त नाकामी को दशार्ता है।

सच बात तो यह है कि मंदसौर में किसानों के इस स्वत: स्फूर्त आंदोलन को न तो जिला प्रशासन और स्थानीय पुलिस ने गंभीरता से लिया और न ही प्रदेश की बीजेपी सरकार ने उनकी मांगों पर जरा सी भी संजीदगी दिखलाई। आंदोलन को लगातार नजरअंदाज किया गया। जब सरकार ने किसानों के अहिंसक आंदोलन पर कोई ध्यान नहीं दिया, तो वे गुस्से में आ गए। विरोध के तौर पर उन्होंने सड़कों पर हजारों लीटर दूध बहाया, सब्जियां फेंकीं और अनाज को आग लगा दी।

आंदोलन ने जब उग्र रुप ले लिया, तो सरकार और उसके वफादार सिपहसालार हरकत में आए। पहले उन्होंने आंदोलन को तोड़ने और उसके कुछ नेताओं को खरीदने की कोशिश की। जब वे अपनी कोशिशों में नाकामयाब हो गए, तो सरकार ने मीडिया के जरिए ये झूठा दावा किया कि ‘‘किसानों की हड़ताल समाप्त हो गई है। सरकार ने किसानों की मांगें मान ली है।

आंदोलन खत्म होने की घोषणा के बाद भी जो लोग हिंसा कर रहे हैं, वे किसान नहीं, बल्कि असामाजिक तत्व हैं। प्रदेश की विपक्षी पार्टी कांग्रेस एक साजिश के तहत हिंसा को बढ़ा रही है।’’ जबकि इन दावों में जरा सी भी सच्चाई नहीं थी। यही वजह है कि किसानों ने अपना आंदोलन स्थगित नहीं किया, बल्कि ये आंदोलन और भी ज्यादा उग्र होता चला गया।

आंदोलन से निपटने में ही सरकार ने अदूरदर्शिता और धूर्तता का परिचय नहीं दिया, बल्कि किसानों की मौत पर भी लगातार गलतबयानी की। प्रदेश के गृह मंत्री भूपेन्द्र सिंह ने शुरू में दावा किया कि पुलिस ने फायरिंग नहीं की है। सरकार की हां में हां जिला प्रशासन ने भी मिलाई और उसने भी यह बात दोहराई कि उसकी और से गोली चलाने का कोई आदेश नहीं दिया गया था।

प्रदर्शनकारियों की गोली से ही लोगों की मौत हुई है। जबकि किसानों का इल्जाम था कि सीआरपीएफ और पुलिस ने बिना चेतावनी उनके ऊपर फायरिंग की, जिसकी वजह से इतने सारे लोग मर गए। किसानों की बातों में सच्चाई भी थी। अगर पुलिस की मंदसौर घटना में कोई भूमिका नहीं थी, तो सरकार ने पीड़ित किसानों के परिवार को क्यों एक करोड़ रूपए का मुआवजा दिया? क्यों उसने पीड़ित परिवारों के एक-एक शख्स को नौकरी दी ?

अकेले जैन आयोग ने ही आंदोलनकारी किसानों को असामाजिक तत्व नहीं बतलाया, सरकार की भी ऐसी ही राय थी। यह बात अलग है कि सरकार ने उन्हें मुआवजा भी दिया। किसानों की मौत के मामले में उस वक्त राज्य सरकार का ही शर्मनाक रवैया सामने नहीं आया था, केन्द्र सरकार ने भी इस मामले में गैरजिम्मेवाराना रवैया अख्तियार कर लिया था।

गोली लगने से पांच किसानों की दर्दनाक मौत हो गई, लेकिन इस वाकिए पर देश के कृषि मंत्री और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कोई बयान नहीं आया। बाकी संवेदनशील मामलों की तरह, इस मामले में भी मोदी सरकार ने अपना सिर शुतुरमुर्ग की तरह जमीन में छिपा लिया था। जैसे कि कहीं कुुछ हुआ ही न हो।

कहने को मध्य प्रदेश, देश में सबसे अधिक कृषि विकास दर वाला राज्य है और पिछले पाँच सालों से वह लगातार कृषि क्षेत्र का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘कृषि कर्मण अवार्ड’ जीतता आ रहा है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान हमेशा अपने भाषणों में कृषि को लाभ का धंधा बनाने की बात कहते हैं। लेकिन राज्य में किसानों के जमीनी हालात क्या हैं ? इसकी हकीकत, हाल के किसान आंदोलनों से पूरे देश के सामने आ गई है। प्रदेश की कृषि विकास दर यदि देश में सबसे अधिक है, तो यहाँ के किसानों को समृद्ध होना चाहिए और उन्हें हर दम शिवराज सरकार का महिमा गान करना चाहिए।

बावजूद इसके यहां के किसान, सरकार से अपनी मांगें मनवाने के लिए जब-तब आंदोलनों की राह पकड़ लेते हैं। कभी सड़कों पर सब्जियां फेंक कर, तो कभी दूध बहाकर अपने गुस्से को जाहिर करते हैं। किसान, सरकार से जो भी मांग कर रहे हैं, वे कहीं से भी नाजायज नहीं हैं। अगर किसान, सरकार से अपनी उपज का डेढ़ गुना दाम मांग रहा है और दूध की खरीद के दाम सरकारी डेयरी पर बढ़ाने के लिए इल्तिजा कर रहा है, तो वह कहां तक गलत है ? मंडी का रेट निर्धारण हो, फसलों का उचित समर्थन मूल्य दिया जाए, कर्ज माफ किया जाए

और उन्हें पेंशन दी जाए, इन मांगों में से भला कौन सी मांग गलत है ? बावजूद इसके शिवराज सरकार किसानों की इन जायज मांगों को लगातार नजरअंदाज करती रही। जब पानी सिर से ऊपर हो गया, तो किसानों को मजबूरन सड़कों पर आना पड़ा। यहां भी उन्हें अपने हक की बजाय गोलियां मिलीं।

अब जबकि यह रिपोर्ट मीडिया के जरिए लोगों तक पहुंच गई है, तो राज्य सरकार को भी यह रिपोर्ट तुरंत सार्वजनिक करना चाहिए। इसमें बिल्कुल भी देरी नहीं करना चाहिए। 25 जून को मध्यप्रदेश विधानसभा का मानसून सत्र शुरू हो रहा है, सरकार को कोशिश करना चाहिए कि इस दरमियान यह रिपोर्ट सदन में पेश हो। ताकि इस पर विस्तृत चर्चा हो सके। जेके जैन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस हत्याकांड के लिए न तो पुलिस, न जिला प्रशासन और न ही सीआरपीएफ को जिम्मेदार ठहराया है। जब किसी को जिम्मेदार ही नहीं ठहराया है, तो फिर सजा किस को मिलेगी ? इंसाफ का तकाजा तो यह कहता है कि जो भी बेगुनाह किसानों की मौत का कसूरवार है, उसे सजा मिले।

सरकार उस पर कड़ी से कड़ी कार्यवाही करे। मंदसौर किसान हत्याकांड को पूरा एक साल हो गया है, इस हत्याकांड में मारे गए 5 किसानों के परिजनों से किये वायदे तो सरकार ने पूरे कर दिये, मगर किसानों को उपज की सही कीमत देने का वायदा आज भी अधूरा है। फसल की सही कीमत न मिलने से वे अब भी परेशान हैं। तब से लेकर अब तक उनकी हालत में जरा सा भी सुधार नहीं आया है। किसान आंदोलन की बातें और मांगों को मानो सरकार ने बिसरा ही दिया है।

किसानों की आर्थिक और सामाजिक हालत सुधारने के लिए गठित ‘एम.एस. स्वामीनाथन किसान आयोग’ ने साल 2007 में अपनी रिपोर्ट तत्कालीन केन्द्र सरकार को सौंपते हुए, उसे 32 सुझाव दिए थे। जिसमें सबसे अहम सिफारिश यह थी कि फसल उत्पादन मूल्य से पचास प्रतिशत ज्यादा दाम किसानों को मिले। वहीं बीजेपी ने भी साल 2014 के लोकसभा चुनाव में जारी अपने घोषणा पत्र में किसानों से वादा किया था कि सŸाा में आते ही वह उनकी उपज का समर्थन मूल्य, लागत से दोगुना कर देगी।

अफसोस ! स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को आए हुए ग्यारह साल और मोदी सरकार को केन्द्र की सŸाा संभाले चार साल हो गए, लेकिन यह वादा अभी भी अधूरा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अब इसका लक्ष्य बढ़ाकर साल 2022 तय कर दिया है। तब तक किसान अच्छे दिन आने का इंतजार करें।

-जाहिद खान

 

 

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