इस बार देश में गेहूँ का झाड़ कम होना किसानों, उपभोक्ताओं व सरकारों के लिए बड़ी समस्या बन सकता है। इस बार मार्च माह में अत्याधिक गर्मी होने के कारण गेहूँ का झाड़ कम हुआ है, जिसका प्रभाव मंडियों में हो रही खरीद से ही स्पष्ट नजर आ रहा है। मंडियों में गेहूँ की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक मूल्य पर हो रही है। सरकारी रेट 2015 है लेकिन कई मंडियों में यह रेट 2100 के करीब है। कई प्राइवेट गोदामों में गेहूँ की खरीद भी सरकारी रेट से अधिक और तेजी से हो रही है। प्राइवेट कंपनियां किसानों को अदायगी भी सरकार के मुकाबले पहले कर रही हैं। मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए अनुमान लगाना कठिन नहीं कि खरीद सीजन के बाद गेहूँ के रेट में उछाल आएगा। ये परिस्थितियां देश में महँगाई का कारण भी बन सकती हैं। आम उपभोक्ता को महंगे रेट पर गेहूँ या आटा खरीदना पड़ सकता है। इसी तरह उत्पादन घटने से डेयरी व्यापार पर भी बुरा प्रभाव दिखेगा।
तूड़ी महंगी होने से पशु पालकों के लिए दूध के रेट बढ़ाना मजबूरी बन जाएगा। इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए सरकार को ठोस नीतियां बनाने की आवश्यकता है। वास्तव में कई साल पूर्व ही खेती वैज्ञानिक सरकारों को सतर्क कर चुके थे कि जलवायु परिवर्तन से अनाज का संकट पैदा हो सकता है, जिसकी तैयारियां सरकारों को पहले से करनी चाहिए। अब वक्त आ गया है कि सरकार कृषि तकनीक को विकसित करे ताकि नई समस्याओं का सामना करते हुए अनाज उत्पादन बढ़ाया जा सके। वास्तव में अनाज उत्पादन में वृद्धि ही समस्या का समाधान है। अनाज की कमी दौरान कालाबजारी बढ़ती है जो महंगाई का कारण बनती है। इससे अनाज उत्पादन में कमी किसानों के लिए बड़ी आर्थिक चोट साबित हो रही है।
भले ही नुक्सान के लिए किसानों की बोनस देने की मांग जायज हैं, फिर भी देश के लिए अनाज की आवश्यकताओं का मुद्दा कृषि तकनीक, बीजों की गुणवत्ता और मिट्टी की जांच से जुड़ा हुआ है। गेहूँ की गुणवत्ता घटने से अंतरराष्ट्रीय मंडी में भारत का किसान मुकाबला नहीं कर सकता। इसीलिए गर्मी सहन करने वाले बीजों की किस्में विकसित करनी होंगी। कृषि वैज्ञानिकों के लिए सरकारों को अनुदान में वृद्धि करनी चाहिए। देश की कई कृषि यूनिवर्सिटियां आर्थिक रूप से बदहाल हैं जिन्हें तुरंत अनुदान राशि जारी कर मजबूत बनाने की आवश्यकता है। पंजाब जैसे कृषि प्रधान राज्य की पंजाब कृषि यूनिवर्सिटी लुधियाना बुरी तरह कर्जदार है। वैज्ञानिकों के पद खाली होने के कारण खोज कार्य पिछड़ रहे हैं। अब कृषि खोज के मोर्चे पर डटने का समय आ चुका है।
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