पाकिस्तान में 25 जुलाई को होने जा रहे हैं आम चुनाव
पाकिस्तान में 25 जुलाई को आम चुनाव होने जा रहे हैं। संसद के साथ-साथ प्रांतीय असेंबलियों के प्रतिनिधियों के चुनाव भी करवाये जा रहे हैं। जिन परिस्थितियों और वातावरण में इस बार नेशनल असेंबली (संसद) का चुनाव हो रहा है, उसमें असल परीक्षा पाक नागरिकों की होनी है। दरअसल जिस वक्त पाकिस्तान की जनता अपने प्रतिनिधियों के चुनाव हेतू वोट डालने के लिए घरों से निकलेगी उस वक्त उनके जहन में यह संशय अवश्य होगा कि वे अपने वोट के द्वारा किस तरह के पाकिस्तान का निर्माण करने जा रहे हैं? क्या वहां के नागरीक सही अर्थो में अपने देश में उस लोकतंत्र को स्थापित कर पाएंगे जिसकी दुहाई वहां के हुक्कमरान देते रहे हैं।
पाकिस्तान की नेशनल एसेंबली में कुल 342 सीटें हैं
कहीं ऐसा न हो कि उनके वोट से बननेवाला लोकतंत्र संगीनों के साये में पलने- बढ़ने को अभिशप्त हो। अभी जिन परिस्थितियों में वहां चुनाव हो रहे हैं, उसे देखते हुए इस तरह की आशंकाएं निर्मूल नहीं हैं। इस तरह की आशंकाएं तब और सच लगने लगती है जब नवाज शरीफ की पुत्री मरीयम शरीफ ट्विट कर कहती हैं कि पाक लोकतंत्र पर जहरीला सर्प बैठा है।
पाकिस्तान की नेशनल एसेंबली में कुल 342 सीटें हैं, जिनमें से 272 सीटों के लिए बहुदलीय व्यवस्था के तहत प्रत्यक्ष तौर पर चुनाव होंगे। नेशनल एसेंबली के साथ चार प्रांतीय विधानसभाओं-सिंध, पंजाब, ब्लूचिस्तान और खैबर पख्तुंख्वा के लिए भी चुनाव करवाऐ जा रहे हैं।
जिस दल को 172 सीटें मिल जाएगी वह पाकिस्तान का भाग्य तय करने का काम करेगा
जिस दल को 172 सीटें मिल जाएगी वह अगले पांच साल तक पाकिस्तान का भाग्य तय करने का काम करेगा। चुनावों के नतीजे 27 जुलाई को घोषित किए जाएगें। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि वह दल कौनसा होगा। क्या पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग(पीएमएल-एन) सत्ता में आ पाएगी या फिर पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी (पीटीआई) में लोग विश्वास व्यक्त करेंगे। दिवंगत प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के बेटे और जुल्फीकार अली भुट्टो के नाती बिलावृत भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) सहित दूसरे अनेक छोटे दल भी चुनाव मैदान हैं। चुनाव का अभी जो परिदृश्य है उसमें किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है। लेकिन सेना के सहयोग के चलते इमरान खान की पार्टी अच्छी स्थिति में नजर आ रही है। 2013 के चुनावों में इमरान की पार्टी तीसरे नंबर पर थी।
चुनाव प्रक्रिया पर निगाह रखने के लिए अतंरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को भी आमंत्रित किया गया
निर्वाचन आयोग स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की बात कह रहा है, और इसके लिए आयोग ने कई तरह के कठोर निर्देश जारी किए हैं। पूरी चुनाव प्रक्रिया पर निगाह रखने के लिए अतंरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों के साथ-साथ विदेशी पत्रकारों को भी आमंत्रित किया गया है, लेकिन चुनावों में सेना व आईएसआई द्वारा दिए जा रहे दखल को देखते हुए कहा जा सकता है कि सच्चाई इसके विपरीत है। सियासी दलों की चुनावी सभाओं पर आतंकी हमले हो रहे हंै। उम्मीदवारों को डराया-धमकाया जा रहा है। उनसे रैलियां करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता छीनी जा रही है।सेना के इशारे पर नवाज शरीफ समर्थक नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया है। इन परिस्थितियों में क्या यह स्वीकार किया जा सकता है कि चुनाव निष्पक्ष व स्वंत्रत होंगे। दुनियाभर में इस बात की आंशकाएं प्रबल हो रही हैं कि क्या चुनाव के बाद पाकिस्तान में वास्तिवक लोकतंत्र की स्थापना हो सकेगी? मुंबई आतंकी हमले के आरोपी हाफिज सईद व औरंगजेब फारूकी( फारूकी का नाम पाकिस्तान की आतंकवादी निगरानी सूची में है।) जैसे कटरपंथियों के चुनाव मैदान में उतरने से पूरे देश में भय का माहौल है। अमेरिका भी लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठन की सक्रियता और इसके समर्थित उम्मीदवारों को लेकर चिंता प्रकट कर चुका है। इन परिस्थितियों में चुनाव कितने स्वतंत्र व निष्पक्ष होंगे इसका अनुमान लगाया जा सकता हैं। पाकिस्तान के एक प्रमुख अखबार द्वारा करवाए गए सर्वे में पाकिस्तान की एक- तिहाई जनता ने यह स्वीकार किया है कि पाकिस्तान में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं है।
सेना के नापाक इरादों में पाकिस्तान की न्यायपालिका भी बराबर की साझीदार
पाकिस्तान के 71 वर्षों के इतिहास को खंगाले तो ऐसे कई अवसर मिलेगे जब सेना ने सत्तापर सीधा नियंत्रण कर शासन का संचालन किया है। जब सेना ऐसा नहीं कर पाई तब उसने किसी ऐसे व्यक्ति को आगे किया जो उसकी कठपुतली बन कर उसके इशारों पर नाचे। जुल्फीकार अली भुट्टो से लेकर नवाज शरीफ तक के उदाहरण हमारे सामने हैैं। सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा भी इसी कोशिश में है। वे सत्ताको सीधे हाथ में लेने के बजाए ऐसे व्यक्ति को पीएम पद पर बैठाना चाहते हैं जो उनके इशारों पर चलने वाला हो। इसके लिए उन्हें इमरान खान से बेहतर कोई दूसरा विकल्प नजर नहीं आ रहा है। लेकिन प्रश्न यह है कि सेना ने इमरान को ही क्यों चुना? शरीफ को क्यों नही? इसका सीधा-सीधा कारण यह है कि शरीफ के पिछले कार्यकाल के दौरान सेना के साथ उनके रिश्ते अच्छे नहीं रहे। नवाज शरीफ और उनके परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप व भारत के प्रति उनके नरम रूख के कारण सेना नवाज शरीफ से परहेज कर रही है । द्वितीय, सेना जानती है कि अगर शरीफ सत्ता में आते हैं तो सेना की शक्तियों पर लगाम लगाने की कोशिश होगी। इस लिए सेना एक ऐसी कमजोर सरकार चाह रही है, जो उस पर किसी तरह हावी होने की स्थिति में न हो। इस लिए सेना नवाज शरीफ और उनकी पार्टी को कमजोर करने की भरसक कोशिशों में लगी है। तृतीय, खुद मियां नवाज शरीफ के अनुभव भी सेना के साथ अच्छे नहीं रहे । साल 2000 में जनरल परवेज मुशर्रफ द्वारा उनकी सरकार का तख्ता पलट किये जाने के बाद से सेना के साथ उनके संबंध बिगडे़ हुए है। विडबंना यह है कि सेना के नापाक इरादों में पाकिस्तान की न्यायपालिका भी बराबर की साझीदार बनी हुई है।
न्यायपालिका ने सेना की राह आसान कर दी
सेना शुरू से ही इस प्रयास में है कि किसी न किसी तरह नवाज शरीफ को चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने से रोका जाए। न्यायपालिका ने सेना की राह आसान कर दी। कोर्ट द्वारा पनामा गेट मामले की दुबारा सुनवाई करने का असली मकसद ही नवाज शरीफ पर शिंकजा कसना था। अदालत ने न्याययिक प्रक्रिया पूरी किये बिना ही नवाज शरीफ को न केवल प्रधानमंत्री पद के लिए बल्कि पार्टी अध्यक्ष पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। इतना ही नहीं बाद में अदालत द्वारा नवाज शरीफ को 10 साल व उनकी पुत्री को 7 साल की सजा सुनाकर जेल में डाल दिया गया। सुप्रिम कोर्ट के फैसले के बाद पाक अवाम की आस्था कोर्ट के प्रति डगमगाने लगी है। लोगों कि दिलो-दिमाग में यह प्रश्न कसमसा रहा है कि क्या कोर्ट ने सेना के साथ साजिश कर नवाज व उनके परिवार को दोषी घोषित किया है। सच तो यह है कि प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद भी नवाज शरीफ की लोकप्रियता का ग्राफ नीचे नहीं गिरा । पंजाब से बाहर दूसरे अनेक क्षेत्रों में भी उनका प्रभाव अभी भी बरकरार है। यही बात सेना को खटक रही थी। उसका मानना था कि अगर इमरान की पार्टी इन चुनावों में अच्छा प्रदर्शन कर जाती है तो सेना की राह मुश्किल हो जाएगी। ऐसे मे सेना ने चुनाव से पहले ही उन्हें सलाखों के पीछे डालकर अपना दांव खेल दिया है। लेकिन गिरफ्तारी के बाद भी शरीफ के तेवर बदले नहीं है। वे अभी भी सेना को चुनौती देते दिख रहे हैं। उन्होंने कहा कि हमें देश के लिए जो कुछ करना था हमने किया है, और अब जनता की बारी है।मरियम शरीफ ने भी जेल जाने से पहले लंदन छोड़ते हुए कहा था पाकिस्तान लौटना मेरी जिन्दगी का सबसे कठिन फैसला है, मेरी मां लंदन में वेंटिलेटर पर है, और हमें नहीं मालूम की आगे क्या होगा।पिता-पुत्री की इस मार्मिक अपील के बाद पाकिस्तान की जनता में नवाज शरीफ के प्रति सहानुभूति उमड़ती दिख रही है। फिर पाकिस्तानी अवाम यह भी जानती है कि शरीफ अपनी पुत्री के साथ लंदन में बड़े आराम से निर्वासित जीवन बिता सकते थे। लेकिन नवाज ने ऐसा नहीं किया। उन्होेंने पाकिस्तान में लोकतंत्र को बचाने के लिए जेल की अंधेरी कोठरी को चुना। तो क्या सच में शरीफ लोकतंत्र को बचाने के लिए स्वदेश लौटे हैं?
तो शरीफ को सेना के साथ दो मोर्चो पर लड़ना होगा
अगर ऐसा है तो शरीफ को सेना के साथ दो मोर्चो पर लड़ना होगा। प्रथम, अपने सियासी वजूद को बचाये रखने के लिए उनकी पार्टी को हर हाल में सेना समर्थित दलों से बेहतर प्रदर्शन करना पडेगा। यहां शरीफ के लिए न कोई विकल्प है और न ही इफ एंड बट। द्वितीय, उन्हें अभी से उन तमाम चीजों को देखना होगा जिससे सेना उनकी पार्टी में सेंध न लगा सके। कंही ऐसा न हो कि चुनाव परिणाम आने के बाद उनके वफादार सेना समर्थित दल की ओर आकर्षित हो जाए। अगर सेना शरीफ की पार्टी में सेंध लगाने में सफल हो जाती है तो शरीफ जीत कर भी हार जाऐंगे। पूरे वाक्य को एक पंक्ति में लिखा जाए तो इसका अर्थ यह है कि शरीफ को अपनी राजनीतिक हैसियत बचाने के साथ-साथ लोकतंत्र को बचाने के लिए भी सेना से लोहा लेना होगा। चुनाव से ठीक पहले वतन वापसी कर शरीफ ने यह संकेत दे दिया है कि वह सेना से संघर्ष के लिए तैयार है। नवाज शरीफ और सेना के बीच चल रहे इस शह और मात के खेल का नतीजा क्या होगा यह तो मतदान के अगले कुछ घंटों में स्पष्ट हो जाएगा । लेकिन इतना तय है कि सेना जिन समिकरणों को निर्मित करने में लगी है अगर वह उसमें सफल हो जाती है तो पाकिस्तान में एक बार फिर से डमी लोकतंत्र स्थापित होगा इसमें संदेह नहीं है।
एन.के. सोमानी
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