कोरोना वायरस के प्रकोप के बीच उत्तर प्रदेश की राजनीति में तूफान आया हुआ है और यह तूफान पिछले वर्ष दिसंबर में लखनऊ में नागरिकता संशोधन कानून विरोधी प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले 57 कथित दंगाइयों के पोस्टर और होर्डिंग लगाने के अभूतपूर्व कदम के बारे में है। इस दौरान व्यापक हिंसा हुई थी और पुलिस द्वारा कार्यवाही की गयी। इस हिंसा में 18 मौतें हुई थी। यह बताता है कि आपकी स्वतंत्रता वहां समाप्त होती है जहां मेरी नाक शुरू होती है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्वत: कार्यवाही करते हुए दो महत्वपूर्ण टिप्पणियां की कि ऐसे बैनर और होर्डिंग लगाने का कोई कानूनी आधार नहीं है क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत निजता के मूल अधिकार का उल्लंघन करता है और न्यायालय ने आदेश दिया कि ये होर्डिंग और पोस्टर निकाले जाएं। उसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने उच्चतम न्यायालय में अपील की और उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार के दंगाइयों के नाम को सार्वजनिक करने के कदम को एक कठोर कदम बताया। विशेषकर तब जब कि इन दंगाइयों की देयता का निर्धारण न्यायालय द्वारा किया जाना है और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर स्थगनादेश देने से इंकार कर दिया। साथ ही यह भी कहा कि राज्य सरकार के निर्णय का कोई कानूनी आधार नहीं है।
न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार से बार-बार पूछा कि उसे लोगों के नाम सार्वजनिक कर उन्हें बदनाम करने की शक्ति किस कानून से मिली है और कहा कि कोई व्यक्ति ऐसा कार्य कर सकता है जो कानून द्वारा निषिद्ध नहीं है किंतु राज्य केवल कानून के अनुसार ही कार्यवाही कर सकता है। यह राज्य तंत्र की शक्ति से व्यक्ति को संरक्षण देने का कानून के शासन का महत्वपूर्ण पहलू है और कोई भी लोकतंत्र कानून की उचित प्रक्रिया के बिना लोगों को दंडित करने की अनुमति नहीं दे सकता है किंतु न्यायालय ने इस मामले को बड़ी पीठ को भेज दिया। उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने बचाव में तर्क दिया कि इन नागरिकों ने अपनी निजता का अधिकार तब खो दिया जब उन्होने सार्वजनिक रूप से यह कार्य किया और ये पोस्टर और बैनर भविष्य में एक प्रतिरोधक के रूप में कार्य करेंगे तथा कहा कि न्यायालय को ऐसे मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए क्योंकि आरोपियों ने सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नष्ट किया है और उन्हें इसकी क्षतिपूर्ति करनी होगी अन्यथा उनकी संपत्ति जब्त की जाएगी।
एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है कि गंभीर अपराधों के अपराधियों के साथ भी ऐसा बर्ताव नहीं किया जाता है जैसा कि तोड़फोड़ करने के आरोपी लोगों के साथ किया जा रहा है और यहां सरकार की मंशा लगता है बदला लेने की है। कोई भी राज्य प्रशासन प्रभावी प्रतिरोधक के नैतिक पहलुओं के कारण ऐेसे कदम नहीं उठा सकता है। किसी व्यक्ति के नाम को सार्वजनिक कर उसे बदनाम करना हास्यास्पद है क्योंकि बिना मुकदमे के किसी गलती को करने वाले व्यक्ति को दंडित नहीं किया जा सकता है। राज्य की कानून और व्यवस्था बनाने की शक्ति कितनी भी बड़ी क्यों न हो उसे मूल अधिकारों के हनन की अनुमति नहीं दी जा सकती।
प्रधानमंत्री मोदी अक्सर इस बात पर बल देते हैं कि प्रत्येक नागरिक को मूल अधिकार प्राप्त हैं किंतु साथ ही उसे कुछ मूल कर्तव्य भी दिए गए हैं जिनका पालन करना उसका राष्ट्रीय कर्तव्य है। गांधी जी की बात को दोहराते हुए हम अपनी जिम्मेदारियों को पूरा किए बिना अपने अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकते हैं। हम तभी अपने सभी अधिकारों की अपेक्षा कर सकते हैं जब हम अपने सभी कर्तव्यों को ठीक से पूरा करते हैं। नमो का कहना है कि कर्तव्य और अधिकार एक दूसरे से जुडे हुए हैं और एक दूसरे के पूरक हैं। हमें ध्यान होगा कि मूल संविधान में मूल कर्तव्यों का अध्याय नहीं था। इसे 1976 में आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा भाग 4 (क) के रूप में जोड़ा गया। इसमें अन्य बातों के साथ-साथ देश की संप्रभुता और अखंडता की रक्षा करना, साथ ही नागरिकों और समाज के प्रति कर्तव्य, भाईचारा, देश की साझी संस्कृति की रक्षा करना और सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा करना आदि शामिल हैं।
आज तक निजता का मुद्दा केवल हमारे नेतागणों से जुड़ा रहा किंतु आज उत्तर प्रदेश के इन पोस्टरों और होडिंर्गों ने राजनीतिक सोच में बदलाव ला दिया है। जहां पर सरकार ने नागरिकों के निजता के अधिकार को उसके मूल कर्तव्यों से जोड़ दिया है ताकि वे अपने अधिकारों के बहाने सार्वजनिक क्षेत्र में विभिन्न कृत्य न करें। इसके अलावा यदि कोई नेता सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करता है तो उसे अपनी निजता की कीमत चुकानी पड़ती है। उसे जनता के प्रति जवाबदेह बनना पड़ता है और यही बात उन नागरिकों पर भी लागू होती है जो सार्वजनिक जीवन में आ जाते हैं। इसी तरह नागरिकता संशोधन कानून और एनपीआर के मुद्दे पर विभिन्न राज्यों में हिंसा भी इसका उदाहरण है। अत: इस तर्क में दम है कि जब राज्य कहता है कि नागरिकों का भी राज्य के प्रति कर्तव्य है। कोई व्यक्ति उत्पात मचाकर सार्वजनिक संपत्ति बर्बाद नहीं कर सकता है क्योंकि सार्वजनिक संपत्ति आखिर जनता की होती है। शायद इसी वजह से संविधान निमार्ताओं ने निजता के प्रावधान को संविधान में नहीं जोड़ा। जबकि कई अन्य देशों में ऐसा प्रावधान है।
ब्रिटेन में निजता का अधिकार नहीं है इसलिए निजता के भंग होने पर न्यायालय को कार्यवाही करने का अधिकार भी नहीं है। अमरीका में प्रेस को इस आधार पर सार्वजनिक व्यक्तियों के बारे में किसी भी सच्ची खबर को छापने की अनुमति है कि सभी मानव क्रियाकलाप व्यक्ति के सच्चे चरित्र को उजागर करते हैं। इसके अलावा आज के सोशल मीडिया के जमाने में एक नई तरह की बदनाम करने की संस्कृति पैदा हो गयी है। फेसबुक, इंस्टाग्राम और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर ऐसी बातें सार्वजनिक की जाती हैं। ट्विटर पर तत्काल किसी व्यक्ति का उपहास उडाया जा सकता है। नैतिक जीवन गलत और सही के आधार पर नहीं अपितु समावेश और निष्कासन के आधार पर बनाया जा रहा है। परिणामस्वरूप ऐसे वातावरण में जहां पर सुशासन और जवाबदेही सरकार का मुख्य उद्देश्य है आम आदमी को सच्चाई जानने का पूरा अधिकार है और सच्चाई को प्रकट करने का प्रयास गलत नहीं हो सकता है क्योंकि यह समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करने का महत्वपूर्ण भाग है। राज्य की कार्यवाही के विरुद्ध आप विरोध कर सकते हैं किंतु यह शांतिपूर्ण होना चाहिए और किसी भी व्यक्ति को निजता की आड में छिपने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
कुल मिलाकर हमारे देश को भीड़ की शक्ति और कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाना होगा। दंगाइयों को दंडित किया जाना चाहिए। समय आ गया है कि हमारी जनता अपनी सोच बदले और इस बात पर विचार करे कि मूल अधिकारों के साथ-साथ राज्य के प्रति हमारे मूल कर्तव्य भी हैं। हमें इस ओर ध्यान देना होगा अन्यथा हमारे राष्ट्र की नींव कमजोर होगी। उत्तर प्रदेश सरकार ने हिंसा के लिए दंगाइयों को जिम्मेदार ठहराने का मार्ग दिखा दिया है। यह एक शांतिपूर्ण स्वतंत्र भारत की दिशा में पहला कदम है जहां पर लोकतंत्र सर्वोच्च है और इस बारे में प्रश्न नहीं उठाए जा सकते हैं।
पूनम आई कौशिश
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