नागौर के युवाओं ने वर्ष 1982 में एक कोचिंग संस्थान चालू किया। उद्देश्य था जरूरतमंद बच्चों को शैक्षणिक गतिविधियों में नि:शुल्क सहयोग देना। शुरूआत अनुभव ठीक रहा तो कोचिंग को स्कूल में परिवर्तित करने का मन बना लिया। इन युवाओं ने निश्चय किया कि कम फीस में संस्कारित शिक्षा देंगे। उस दौर में निजी शिक्षण संस्थान कम ही हुआ करते थे, इसलिए यह स्कूल जल्दी ही लोकप्रिय हो गया। देखते ही देखते छोटे से शहर के लगभग 300 विद्यार्थी इस स्कूल में पढ़ने लगे। यह दौर लगभग दो दशकों तक चलता रहा और स्कूल की प्रतिष्ठा शिखर तक पहुंच गई। विद्यार्थियों की बढ़ती संख्या देखकर इसे दो भवनों में शिफ्ट कर दिया गया।
इस दौरान प्राइवेट स्कूलों की संख्या बढ़ने लगीं और देखादेखी के चकाचैंध में सीमित संसाधनों वाला यह विद्यालय एक बार फिर पिछड़ने लगा। वर्ष 2011 तक आते-आते विद्यार्थियों की संख्या घटकर 34 रह गई और विद्यालय बंद होने की कगार पर पहुंच गया। उस दौर के युवाओं ने जिस सोच के साथ स्कूल की नींव रखी थी, अब वह परिस्थितियों के समक्ष खोखली हो चुकी थी। ऐसे मुश्किल दौर में आनंद पुरोहित नाम के एक युवक ने इस विद्यालय को एक बार फिर ट्रेक पर लाने का बीड़ा उठाया। वर्ष 2012 में लगभग दो दर्जन विद्यार्थियों और वर्षों से मरम्मत के अभाव के भवनों के साथ महर्षि जनार्दन गिरि पुष्टिकर माध्यमिक विद्यालय नाम के इस स्कूल में नई करवट की आस जगी।
यह समय बहुत कठिन था। इस दौर तक बड़े-बड़े संसाधन युक्त विद्यालय अपनी जड़ें जमा चुके थे। इन स्कूलों के क्वालीफाइड शिक्षक मोटी पगार लेते थे, लेकिन इस विद्यालय का जमा फंड इतना नहीं था कि यह ऐसा खर्च कर सके। ऐसे दौर में आनंद ने दो कदम उठाए। पहला तो अपने नाम से ऋण लिया और उसे स्कूल के विकास के लिए लगाया। दूसरा समाज के लोगों का आह्वान किया कि वे अपने क्षेत्र के बच्चों के लिए एक दिन की तनख्वाह दान करे। इस अपील को दस-बारह लोगों ने माना और जो राशि एकत्रित हुई उससे भवन की मरम्मत करवाई गई। इस दौरान विद्यार्थियों की संख्या बढ़ाना और कम वेतन पर प्रशिक्षित शिक्षक लाना भी एक चुनौती थी।
इस दौर में आनंद के नेतृत्व में कुछ युवा विद्यार्थियों के प्रवेश के लिए घर-घर गए। कुछ वर्षों के लचर परिणाम के कारण अभिभावकों को संस्थान पर विश्वास नहीं रहा। फिर भी इस संपर्क टोली ने अपने व्यक्तिगत प्रयासों से लगभग पचास नए प्रवेश करवाने में सफलता हासिल कर ली। अब चुनौती थी बढ़ी हुई संख्या के अनुसार संसाधन मुहैया करवाना। स्कूल का कोई कोष नहीं था, ऐसे में एक नई मुहिम छेड़ी। यह थी, प्रतिदिन पांच रुपये के हिसाब से आर्थिक सहयोग लेना। इसमें सोशल मीडिया की भी प्रभावी भूमिका रही। आनंद प्रतिदिन फेसबुक और व्हाट्सएप पर इससे संबंधित संदेश देते। लोग भी इससे प्रेरित होने लगे। लगभग 200 लोग इस मुहिम से जुड़ गए और प्रबंधन को बड़ी रकम प्राप्त हो गई। इससे फर्नीचर खरीदे गए और अब इस स्कूल के बच्चे भी टेबल-कुर्सी पर बैठकर पढ़ने लगे।
धीरे-धीरे बच्चों की संख्या बढ़ने लगी। इस दौरान स्कूल का परिणाम भी सुधरने लगा। वर्ष 2015 में दसवीं कक्षा के एक बच्चे ने 93 प्रतिशत अंक हासिल किए तो स्थानीय लोगों का विश्वास भी बढ़ने लगा। विद्यार्थी तो बढ़ गए लेकिन कमरे कम पड़ने लगे। ऐसे में आनंद ने एक ओर प्रयोग किया। स्कूल के लिए सहयोग राशि एकत्रित करने के लिए जोधपुर, जयपुर, बीकानेर, कोलकाता और अन्य शहरों का रुख किया। इन शहरों के दानदाताओं से मिलकर आर्थिक सहयोग की मांग की। सुखद बात यह रही कि इस तरह घूम-घूम कर उन्होंने लगभग 12 लाख रुपये एकत्रित कर लिए।
एकत्रित राशि से निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। इसमें भी भामाशाहों का सहयोग रहा। किसी ने ईंटें दी तो किसी ने सीमेंट भेज दी। इस प्रकार स्कूल में छह कमरे और एक हॉल बना दिया गया। इस दौरान एक दानदाता ने विद्यालय को पांच कम्प्यूटर भेंट किए। अंग्रेजी माध्यम की एक अलग शाखा खुल गई। विद्याथियों की संख्या 300 पार कर गई। परिणाम में लगातार सुधार होता गया। संस्थान द्वारा दसवीं में टॉप आने वाले बच्चों को लैपटॉप, कम्प्यूटर एवं नकद राशि पुरस्कार स्वरूप दिए जाने की परम्परा शुरू हुई। स्कूल में शौचालय से लेकर बगीचे तक विकसित कर दिए गए। अल्पसंख्यक तथा अनुसूचित जाति बाहुल्य क्षेत्र में विद्यार्थियों के लिए एक बेहतर विकल्प तैयार हो गया।
आज यह विद्यालय बदहाली के दौर से निकल चुका है तथा मजबूत इरादों के कारण छह वर्षों में ही एक बार फिर लोगों का विश्वास जीत लिया है। यह संभव हुआ है दृढ़ इच्छा शक्ति और मुश्किलों से नहीं घबराते हुए आगे बढ़ने के जुनून से। आनंद ने कभी हारने की नहीं सोची। इस ओर भी ध्यान नहीं दिया कि लोग इसके बारे में क्या सोच रहे हैं? इस दौरान लोगों ने यहां तक कहा कि इस स्कूल का अब कुछ नहीं हो सकता। इस दौर में एक बार आगे बढ़ने के बाद उसने पीछे नहीं देखा और स्कूल को एक मुकाम तक पहुंचा दिया।
इस दौरान अनेक लोगों का सहयोग भी मिला। सेवा के रास्ते चल रहे विद्यालय प्रबंधन को दिल खोलकर सहायता मिली। इसने प्रशासकों के आत्मविश्वास को बढ़ाने में मदद की। तो इस ‘संडे का फंडा’ यह है कि हमें चुनौतियों को स्वीकारना चाहिए। यह राह निश्चय ही कंटकाकीर्ण होती है लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति के सामने बड़ी से बड़ी बाधा अंततोगत्वा नेस्तनाबूद हो जाती है।
-हरि शंकर आचार्य