जलवायु परिवर्तन का पहला प्रभाव भारत की दहलीज तक पहुंच गया है और यह जल संकट है। दिल्ली, बंगलौर, हैदराबाद सहित देश के 21 बड़े शहरों में भूमिगत जल स्तर सूख जाएगा और इससे लगभग 60 करोड़ लोग प्रभावित होंगे और वर्ष 2030 तक 40 प्रतिशत लोगों को पेयजल नसीब नहीं होगा। ये आंकड़े नीति आयोग की रिपोर्ट से हैं। वर्तमान में हमारे देश में दो तिहाई जलाशयों में जल स्तर सामान्य से कम है और प्रति वर्ष दो लाख लोग असुरक्षित जल के कारण काल के ग्रास बन जाते हैं। जल रंगभेद देखने को मिल रहा है जहां पर सूखे और अकाल की स्थिति में केवल धनी लोगों को जल संसाधन उपलब्ध हैं और टैंकर माफिया का बोलबाला है जो पानी बेचता है। वास्तव में 21वीं सदी के भारत के लिए जल की खोज और इसका प्रबंधन एक बड़ी चुनौती बन गया है। जल संकट से जूझ रहे चेन्नई को तब राहत मिली जब रेलगाड़ी से वहां 50 हजार लीटर की 50 वैगन से पानी पहुंचाया गया। चेन्नई में पिछले चार महीने से जल संकट चल रहा है और वहां पर प्रतिदिन 200 मिलियन लीटर जल की कमी है और शहर के जलाशय सूख गए हैं। लोगों को गंदे पानी से बर्तन धोने पड़ रहे हैं और साफ पानी को पीने और खाने के लिए बचाना पड़ रहा है।
राजधानी दिल्ली में भी कई कॉलोनियों में दो बाल्टी पानी के लिए महिलाओं को कई घंटों टैंकर की लाइन में लगना पड़ता है और ये दो बाल्टियां पानी भी एक दिन छोड़कर मिलती हैं। आंध्र प्रदेश में 116 नगर पालिकाओं में से केवल 34 नगर पालिकाओं में सप्ताह में दो दिन एक घंटे जलापूर्ति की जाती है। महाराष्ट्र में जल आपदा है। वहां पर सालों से पड़े सूखे के कारण नदियां सूख गयी हैं। बांध और जलाशयों में पानी समाप्त हो गया है और भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन हो रहा है। राज्य सरकार ने 5639 गांवों और 11595 बस्तियों में पानी पहुंचाने के लिए 6597 टैंकरों की सेवाएं ली हैं। पांच अन्य राज्यों में भी सूखे की स्थिति बनी हुई है। ये सब लक्षण बताते हैं कि भविष्य में स्वच्छ पेयजल उपलब्ण्ध नहीं होगा और लोगों को असुरक्षित जल पर निर्भर रहना पड़ेगा। जिसके कारण रोग, मौत, और पलायन बढेंगे।
अनियोजित शहरी विकास और मानसून की कमी के कारण झीलें और तालाब अतिक्रमण के शिकार बन गए हैं। पर्यावरण नुकसान, जल मल के निपटान की उचित व्यवस्था न होने और निर्माण कूड़े के कारण जल स्रोत समाप्त हो रहे हैं। भूमिगत जल स्तर में गिरावट का मुख्य कारण प्राकृतिक जल स्रोतों और तटीय क्षेत्रों का संरक्षण न कर पाना है। स्वयं प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया है कि देश में केवल आठ प्रतिशत वर्षा जल को ही संचित किया जाता है। हैरानी की बात यह है कि वर्ष 2025 तक गंगा सहित 11 नदी बेसिनों में पानी की कमी होगी। जिसके चलते वर्ष 2050 तक 100 करोड़ से अधिक लोगों के लिए खतरा हो जाएगा। वर्ष 2050 तक पानी की मांग बढकर 1180 मिलियन घन मीटर हो जाएगी। भारत की जनसंख्या विश्व जनसंख्या की 18 प्रतिशत है जबकि यहां पेयजल केवल 4 प्रतिशत है और यहां पर पानी की बर्बादी अधिक होती है तथा यहां पर जलसंरक्षण के बजाय फिजूल परियोजनाओं पर अरबों रूपए खर्च किए जाते हैं।
आने वाले वर्षों में भारत को पानी कहां से मिलेगा जबकि सरकार 2024 तक हर घर नल, हर घर जल पहुंचाने की योजना पर कार्य कर रही है। बांध और जलाशयों पर 4 ट्रिलियन रूपए खर्च कर दिए गए हैं किंतु वांछित परिणाम नहीं मिले हैं। परंपरागत जल निकायों जैसे तालाब, नालों, कुंओं आदि के पुनरुद्धार के लिए कोई योजना नहीं बनायी गयी है। एक जल संरक्षणवादी के शब्दों में सरकार सस्ते और सामान्य उपायों में विश्वास नहीं करती है। वह हमेशा महंगी बड़ी परियोजनाओं की ओर देखती है। वर्ष 1960 के बाद लाखों जल निकायों की उपेक्षा की गयी है। जब तक हम मानसून के मौसम में जल का संचय नहीं करेंगे हम जल संकट से जूझते रहेंगे।
राजस्थान के अलवर जिले में एक किसान ने इस संबंध में अनुकरणीय काम किया है। उसने छोटे जल संचयन ढांचे बनाकर जल संसाधनों को बहाल किया है और इसके चलते लगभग एक हजार सूखा प्रभावित गांवों में पानी पहुंचा है। पांच नदियों में पानी बहाल हुआ है और कृषि उत्पादकता 20 प्रतिशत से बढकर 80 प्रतिशत पहुंची है और वन क्षेत्र में 33 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसी तरह उत्तराखंड में नौला का पुनरुद्धार किया गया है। केरल में सुरंग का पुनरुद्धार किया गया है। महाराष्ट्र में 60 प्रतिशत जल का उपयोग गन्ना उत्पादन के लिए किया जाता है जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में चीनी सस्ती है।
भारत जॉर्डन से सबक ले सकता है कि किस प्रकार उसने परंपरागत भूमि प्रबंधन प्रणाली सीमा अपनायी है जहां पर कुछ भूिम को प्राकृतिक रूप से फलने फूलने के लिए छोड़ दिया जाता है जिसके चलते जारका नदी बेसिन में परंपरागत संसाधनों का संरक्षण किया गया है। जल निकायों के पुनरुद्धार का एक उपाय हमारे प्राकृतिक बांधों, जलाशयों, जल संग्रहण क्षेत्रों का पुनरुद्धार करना है और इसके अलावा वर्षा जल संचयन पर ध्यान देना है। जल की वार्षिक लेखा परीक्षा होनी चाहिए कि ये कहां से आ रहा है और कहां जा रहा है। फसलें भी पानी की उपलब्धता के अनुसार बोई जानी चाहिए। जल संकट से निपटने के लिए व्यावहारिक उपायों और मिशन मोड़ सोच की आवश्यकता है। जिसमें स्थानीय जल प्रबंधन, स्थानीय जल निकायों की बहाली पर ध्यान दिया जाना चाहिए और पानी के पुन: प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। अपशिष्ट जल शोधन संयंत्रों का विकेन्द्रीकरण किया जाना चाहिए।
समय आ गया है कि केन्द्र सरकार जल को राष्ट्रीय संपदा घोषित करे और जल संकट के समाधान के लिए स्थायी उपाय ढूंढे जिसमें राष्ट्रीय नियोजन के साथ स्थानीय उपायों पर बल दिया जाए। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो भारत में शीघ्र ही गंभीर जल संकट पैदा हो जाएगा और बढ़ती अर्थव्यवस्था और लोगों के लिए पानी उपलब्ध नहीं होगा। जल संकट के समाधान के संबंध में नई सोच की आवश्यकता है। जल संसाधनों के 50 प्रतिशत बजट का उपयोग जल प्रबंधन, ठोस कचरा प्रबंधन, जल उपयोग में कुशलता आदि पर खर्च किया जाना चाहिए। साथ ही भारत में किसानों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए भी तैयार किया जाना चाहिए। जल संकट के संबंध में हमें सजग रहना होगा। यह समस्या गंभीर है और यह केवल जल की मांग और आपूर्ति से नहीं जुड़ी है अपितु इसका मूल कारण हम लोगों का जल, जमीन से रिश्ता न रह पाना है। आशा की जाती है कि इन्द्र देव हम पर प्रसन्न होेंगे किंतु केवल जुबानी जमा खर्च से काम नहीं चलेगा।
पूनम आई कौशिश