मध्य-प्रदेश के सरकारी दफ्तरों में प्रत्येक माह की पहली तारीख को वंदे मातरम का गाया जाना बंद करना कमलनाथ की सरकार को महंगा पड़ सकता है। बैठे-ठाले भाजपा को एक बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा हाथ लग गया है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह जहां इसे लोकसभा चुनाव के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण का औजार बता रहे हैं, वहीं मध्य-प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ऐलान किया है कि भाजपा अपने सभी 109 विधायकों के साथ 7 जनवरी को वल्लभ भवन के प्रांगण में वंदे मातरम का गान करेगी। इस सियासी संग्राम को भांपते हुए मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा है कि हम वंदे मातरम को नए स्वरूप में लाएंगे। नया स्वरूप क्या होगा, इसका उन्होंने कोई संकेत नहीं दिया है।
देश की आजादी के प्रतीक बने इस राष्ट्रगीत का बहिष्कार संसद और विधानसभाओं में होता रहा है। जबकि राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत का गाया जाना संवैधानिक प्रावधान है। यह मामला तब और गंभीर हो जाता है, जब धर्म विशेष से निर्वाचित सांसद और विधायक वंदे मातरम की उपेक्षा करने लगते हैं। दरअसल कोई भी जनप्रतिनिधि न केवल बहुधर्मी और बहुजातीय मतदाताओं के बहुमत से संसद में पहुंचता है, बल्कि धर्म व जातीयता से ऊपर उठकर संविधान, देश व जनहित की शपथ लेकर अपने कर्तव्य का पालन शुरु करता है लिहाजा यह मुद्दा धर्म और राजनीति से परे राष्ट्रीय गरिमा और सोच से जुड़ा मसला है। हालांकि मध्य-प्रदेश में मुस्लिम जनप्रतिनिधियों ने राष्ट्रगीत गाने का विरोध किया हो, ऐसा देखने में नहीं आया।
बंकिम चंद्रचटर्जी के बांग्ला भाषा में लिखे उपन्यास आनंद मठ से राष्ट्रगीत के रुप में स्वीकारा गया यह गीत कोई मामूली गीत नहीं है।
भारत को उसकी व्यापक राष्ट्रीयता की पहचान और स्वाभिमान इसी गीत से प्राप्त हुए हैं। नागरिक सभ्यता की विरासत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानव सेवा के मूल्यों के उत्सव इसी गीत के समवेत स्वर की उपज हैं। अंग्रेजों के विरुद्ध भिन्न जातीय और धर्म-समुदायों को संगठित करने के अभियान में इसी गीत की भूमिका बुलंद थी। तय है, वंदे मातरम क्रांति के स्वरों में नींव का पत्थर था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की रक्त धमनियों में विद्रोह की उग्र भावना इसी गीत की देन है। 1942 में महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन को देशव्यापी धरातल इसी गीत के बूते मिला था। और यही वह आंदोलन था, जिसमें गांधी ने करो या मरो का नारा दिया था।
सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज के फौजियों ने भी इसी गीत को गाते हुए मातृभूमि की बलिवेदी पर प्राण न्यौछावर किए। 14 अगस्त 1947 की मध्य-रात्रि में जब देश आजाद हो रहा था, तब इस मंत्र गीत का गायन श्रीमती सुचेता कृपलानी ने किया और वहां उपस्थित लोग इस गीत के सम्मान में गीत खत्म न हो जाने तक खड़े रहे। 15 अगस्त 1947 को जब स्वतंत्रता का सूर्योदय हो रहा था, तब आकाशवाणी पर पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने इसे बड़े ही रोचक ढंग से गाया। आखिरकार 24 अगस्त 1948 को जन-गण-मन के साथ इस गीत को भी राष्ट्र गीत की प्रतिष्ठा मिली। लेखक और दार्शनिक युगदृष्टा होते हैं, इसलिए बंकिम बाबू ने इस गीत को लिखे जाने के वक्त ही अपनी दिव्यदृष्टि से अनुभव कर लिया था कि यह गीत राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनकर लोकप्रियता के शिखर चूमेगा, इसीलिए उन्होंने इसे बंगाली भाषा में न लिखते हुए संस्कृत में लिखा। मूल और संपूर्ण गीत की केवल नौ पंक्तियां बंगाली में हैं। इस गीत का जो संपादित अंश राष्ट्रगीत के रुप में स्वीकार किया गया है, वह केवल आठ पंक्तियों का है।
वंदे मातरम को इस्लाम विरोधी भी समझ लिया जाता है। जब कांग्रेस ने इसे प्रार्थना गीत के रुप में स्वीकार किया था, तब भी इसकी खिलाफत हुई थी। 1937 में कांग्रेस कार्यकारिणी ने आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। इसमें मौलाना आजाद, पंडित नेहरु और सुभाषचन्द्र बोस जैसे प्रखर संस्कृति-मर्मज्ञ सदस्य थे। समिति को जिम्मवारी सौंपी गई थी कि वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर से मशविरा कर वंदे मातरम के संबंध में दो टूक सलाह दें। समिति द्वारा रवीन्द्रनाथ से परामर्श के बाद जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया, उसके उपरांत कांग्रेस कार्यकारिणी ने फैसला लिया कि हरेक राष्ट्रीय व सार्वजनिक सभा में वंदे मातरम के केवल दो पद गाये जाएं। ऐसे अवसरों पर भारत विभाजन के जनक मोहम्मद अली जिन्ना भी इस गीत को आदर के साथ खड़े होकर गाया करते थे। तय है गीत पर विवाद का समाधान स्वतंत्रता से पहले ही हो चुका था।
बाद में देश-विभाजन के लिए जिम्मेबार मुस्लिम लीग के नेताओं ने जरूर वंदे मातरम को बुतपरस्ती, मसलन मूर्तिपूजा मानते हुए इसका विरोध किया। इस बहाने लीगियों ने अल्पसंख्यकों को खूब उकसाया। नतीजतन 1938 तक कांग्रेस के जो प्रमुख मुस्लिम नेता इस गीत की राष्ट्रीय गरिमा का ख्याल रखते चले आ रहे थे, वे भी दबी जुबान से इसका विरोध करने लगे। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप बहुसंख्यक हिंदू और सिख हठपूर्वक इस गीत की महिमा के बखान में लगे रहे। बाद में साझा सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने के नजरिये से उर्दू के उदारवादी कवियों व राजनीतिकों ने वंदे मातरम का अनुवाद ऐ मादर, तुझे सलाम करता हूं किया, अर्थात हे माता, तुझे प्रणाम करता हूं। मुल्क को गुलामी से आजाद कराने की इस इबादत में गलत क्या है ? अरबी फारसी के अनेक कवियों ने भी देश को मां कहकर संबोधित किया है। लिहाजा राष्ट्र के प्रति अपनी भावनाओं व उद्गारों को प्रचलित रूपकों अथवा प्रतीकों में प्रगट करना मूर्तिपूजा या बुतपरस्ती कतई नहीं है।
वंदे मातरम एक मौलिक रचना है, इसकी व्याख्या धर्म नहीं, केवल साहित्य के संदर्भ में होनी चाहिए। इसे यदि कोई मुख्यमंत्री या सरकार तुष्टिकरण के लिए बंद करता है, तो उसका मकसद धर्म के बहाने राजनीतिक रोटियां सेंकना है, जो विभाजनकारी राजनीति की संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक है। खुद बंकिमचन्द्र ने लिखा है कि हिन्दू होने पर ही कोई अच्छा नहीं होता है, मुसलमान होने पर कोई बुरा नहीं होता और न ही मुसलमान होने पर कोई अच्छा होता है या हिन्दू होने पर कोई बुरा होता है। अच्छे बुरे दोनों जातियों में हैं। गोया, तुष्टिकरण के लिए यदि इस गीत को प्रतिबंधित किया गया है तो यह राष्ट्रीयता का अपमान है। जबकि इस राष्ट्रीयता के सम्मान में मध्य-प्रदेश का मुस्लिम समुदाय सुर में सुर मिलाते रहे हैं। कुछ लोगों ने आजादी के बाद आजाद हिंद फौज के नारे, जय हिंद का भी विरोध किया था। दैनिक अखबार डान ने वंदे मातरम की आलोचना की तो महात्मा गांधी को कहना पड़ा था कि वंदे मातरम् ाकोई धार्मिक नारा नहीं है, यह विशुद्ध राजनीतिक नारा हैं। यही नारा था, जिसने सोये हुए भारत को जगाने का काम करके, आजादी हासिल कराई थी।
राजनीतिक स्वार्थ के लिए राष्ट्र हितों को दरकिनार करना उचित नहीं है।
कुछ साल पहले देश के दिग्गज सांसदों ने सर्व-सम्मति से निर्णय लिया था कि संसद के सत्र का शुभारंभ राष्ट्रगान यानी जन-गण-मन…से होगा और सत्रावसान राष्ट्रगीत वंदे मातरम से। इस फैसले के वक्त कोई एक धर्म विशेष के सांसद संसद में मौजूद नहीं थे, बल्कि सभी धर्मों के थे, लिहाजा यह फैसला सब धर्मावलंबियों के जन प्रतिनिधियों को मान्य होना चाहिए। ऐसे में जरुरी हो जाता है कि संविधान की गरिमा को बनाए रखने वाले गीत को सरकारी दफ्तरों में गाए जाने पर किसी को कोई आपात्ति नहीं होनी चाहिए। इसके संविधान सम्मत स्वरूप में बदलाव तो संभव है ही नहीं, गोया कमलनाथ इसे गाने के स्वरूप में क्या बदलाव लाते हैं, इसे एकाएक समझना मुश्किल है।
प्रमोद भार्गव
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