लोक सभा हलके गुरदासपुर के लिए उप चुनावों में सिर्फ 56 फीसदी चुनाव होना काफी निराशाजनक है। आम तौर पर उप चुनावों को सताधारी पार्टी की एकतरफा जीत यकीनी माना जाता है लेकिन पिछले तर्जुबे यही कह रहे हैं कि राजनैतिक पार्टियों के साथ-साथ आम मतदाताओं में भारी उत्साह होता है। खासकर पंजाब जैसे राज्य में मतदाताआें की लम्बी लाईनें लगती रही है। कांग्रेस व अकाली भाजपा ने चाहे चुनाव प्रचार के लिए रैलियां व जनसभाएं जरूर की लेकिन पारंपरिक रंग कहीं भी नजर नहीं आया। मतदाताओं की निराशा को समूह राजनीति के प्रसंग मेंं जरूर समझा जा सकता है। दरअसल आम मतदाता राजनीति से निराश होने के कारण ही चुनावों में खास दिलचस्पी नहीं दिखा रहे। राज्य में सार्वजनिक मुद्दे ज्यों के त्यों हैं।
न तो राज्य सरकार व न ही विरोधी पार्टियां सार्वजनिक मुद्दों पर कोई स्पष्ट पहुंच बना पाई। अकाली भाजपा के लगातार दस वर्ष के शासन के बावजूद सीमावर्त्ती जिलों के लोग परेशानियों के दौर से गुजर रहे हैं। बुनियादी ढ़ाचे की तरफ किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। अभी भी लोग दरिया पार करने के लिए आज भी मोटरसाईकिल नावों में ले जाने का मजबूर हैं। युवा बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। किसानों को संकट का सामना करना पड़ रहा है। दूसरी तरफ सत्ताधारी पार्टी की यह धारना बनी रहती है कि मतदाता मौके की सरकार चला रही पार्टी को देखेगा। अपनी जीत यकीनी मानकर भी चुनाव प्रचार की तरफ बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। वर्तमान सरकार भी कर्ज माफी जैसे बड़े ऐलान करने के असमंजस में पड़ी हुई है।
कभी केन्द्र की तरफ हाथ किया जाता है तो कभी खाले खजाने की दुहाई दी जाती है। वायदे पूरे न होने के कारण आम जनता उदासीन होती जा रही है। इसी कारण ही मतदाता चुनावों को एक बोझ समझने लग जाते हैं। चाहे उप चुनाव के साथ केन्द्र या राज्य में कोई राजनैतिक बदलाव नहीं आना व न ही इससे भविष्य के किसी चुनावों की दिशा तय होनी है। फिर भी जनता की निराशा राजनैतिक में आई गिरावट को उजागर करती है। ताजा हालात यह हैं कि राजनीति में सरकार अदला-बदली महज नेताओं की अदला-बदली नहीं होनी चाहिए, ताकि पार्टियां अपने एजेंडे को लागू कर जनता में अपने आप को साबित करें।