आंध्र प्रदेश की नई जगमोहन रेड्डी सरकार ने पांच उप-मुख्यमंत्री नियुक्त करने का निर्णय लिया है। सरकार का तर्क है कि राज्य के पांच मुख्य वर्गों को सरकार में प्रतिनिधित्व देने के लिए यह निर्णय लिया गया है। देश में आंध्र प्रदेश ही एक ऐसा राज्य है जहां एक से अधिक उप-मुख्यमंत्री नियुक्त किए हो। इससे पहले चन्द्रबाबू नायडू सरकार ने भी दो उप-मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति की थी। मौजूदा सरकार ने एससी/एसटी, पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक कापू समुदाय से एक एक उप-मुख्यमंत्री नियुक्त किया। वास्तव में यह कदम अपने चहेते नेताओं और समुदाय विशेष को खुश करने का एक तरीका है। पांच उप-मुख्यमंत्रियों से जहां सरकार पर वित्तीय बोझ बढ़ेगा वहीं राजनीति में जातिवाद और भी मजबूत होगा।
मुख्यमंत्री सरकार का मुखिया होता है और मंत्रीपरिषद की जनता के प्रति सामुहिक जवाबदेही होती है, इसीलिए किसी वर्ग विशेष के हितों का ध्यान में रखकर अलग उप-मुख्यमंत्री नियुक्त करना संविधान के साथ खिलवाड़ है। संविधान ने अल्पसंख्यक व पिछड़ी जातियों को बराबर विकास के अवसर देने के लिए चुनाव में पहले से ही आरक्षण की व्यवस्था की हुई है। यूं भी किसी वर्ग को अनदेखा कर कोई पार्टी या उम्मीदवार वोटर के गुस्से से नहीं बच सकता। ऐसे में अलग-अलग वर्ग से उप-मुख्य मंत्री नियुक्त करना तर्कहीन व सत्ता के लोभ को बढ़ावा देता है।
यदि राज्य को आकार की दृष्टि से देखें तब बड़े राज्य मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात जैसे राज्य बिना उप-मुख्यमंत्री के चल रहे हैं या राजस्थान-बिहार व उत्तर प्रदेश में एक-एक उप-मुख्य मंत्री के साथ भी काम चल सकता है, तो आंध्र के लिए पांच उप-मुख्य मंत्रियों की नियुक्ति करना कहां तक उचित है। राज्य सरकार का यह निर्णय संविधान की कसौटी व सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की भावना के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट ने अतिरिक्त खर्च रोकने के लिए केंद्र व राज्य में मंत्रियों की संख्या 15 प्रतिशत तय की है। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों द्वारा मुख्य संसदीय सचिवों का पद असंवैधानिक करार देकर निरस्त किया है। केंद्रीय कानून मंत्रालय को आंध्र प्रदेश के मामले में दखल देकर इस नई परम्परा को रोकने के लिए पहल करनी चाहिए।
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