चिंता का विषय है दिल्ली की हिंसा

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय मध्यस्थ भी शाहीनाबाग के प्रदर्शनकारियों को समझाने में नाकामयाब रहे। शाहीनबाग की तर्ज पर जब प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली के दूसरे इलाकों में धरना-प्रदर्शन शुरू किया तो नागरिकता कानून के समर्थक भी धरने पर बैठ गए। इसके बाद नागरिकता कानून के विरोध और समर्थन में चल रहा प्रदर्शन संघर्ष में बदल गया और हालात इस कदर बिगड़े की जिसमें अब तक 35 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। 200 से ज्यादा लोग घायल बताये जा रहे हैं। मरने वालों में दिल्ली पुलिस का एक जवान और आईबी का कर्मचारी भी शामिल है। दिल्ली के कई इलाकों में जमकर तोडफोड़-आगजनी भी हुई है। ताजा मामले में अदालत ने सख्त रवैया अपनाते हुए दिल्ली पुलिस को दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के आदेश दिये हैं। दिल्ली की हिंसा से पूरा देश चिंतित है।

हालात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जब अमरीकी राष्ट्रपति राजघाट पर जाकर महात्मा गांधी की समाधि को नमन कर रहे थे और उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी के साथ द्विपक्षीय संवाद करने के बाद साझा बयान जारी कर रहे थे, तो उसी दौरान कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर दिल्ली जल रही थी। गोलियां चलाई गईं, पथराव किए गए, शीशे के टुकड़े फेंके गए। बाजार, दुकानों, गोदाम, वाहनों और घरों तक में आग लगा दी गई। कई इलाकों की अर्थव्यवस्था ही बर्बाद कर दी गई। पत्रकारों पर भी जानलेवा हमले किए गए। यह सब कुछ अमरीकी राष्ट्रपति की मौजूदगी के वक्त किया गया, जब विदेशी मीडिया की निगाहें और फोकस भारत की राजधानी दिल्ली पर था। कुल मिलाकर हालात को अराजक स्थिति तक पहुंचाने की सुनियोजित कोशिशें हुई हैं।

राष्ट्रीय नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश में जिस तरह के हालात बनते जा रहे हैं, वे बेहद चिंतनीय हैं। यह विवाद अब राजनीतिक गलियारों से निकलकर सड़कों पर आ गया है। इस विषय पर देश के नागरिक दो धड़ों में बंटे नजर आ रहे हैं। एक धड़ा जोरदार तरीके से इस कानून की मुखालफत कर रहा है तो दूसरा धड़ा इस कानून के पक्ष में खड़ा हो गया है। राजधानी दिल्ली में हुई हिंसा और आगजनी देश की एकता और अखंडता के लिए शुभ संकेत नहीं कहे जा सकते। नफरत भरा माहौल देश के अन्य भागों में भी बनता जा रहा है। गंभीर हालातों को देखते हुए सरकार को चाहिए कि पुलिस बल का प्रयोग करने की बजाय बातचीत का रास्ता निकाले।

दिल्ली में बीते दो दिनों में जो कुछ भी हुआ वो कई सवाल खड़े करता है। वास्तव में ये घटनाक्रम दिल्ली पुलिस के लिए ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिये ये विचारणीय विषय है कि क्या किसी मुद्दे पर आंदोलनकारी महीनों तक सड़कों को रोक सकते हैं? और उन्हें महज इसलिए न हटाया गया कि उनमें महिलायें हैं और वह भी मुस्लिम समुदाय की तो दूसरे पक्ष को भी ये लगा कि जब सर्वोच्च न्यायालय तक ऐसे धरने के बारे में सीधे-सीधे कोई आदेश देने की हिम्मत नहीं जुटा सका तब हमें कौन रोकेगा? प्रतिक्रियास्वरूप भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने शाहीन बाग के जवाब में धरना-प्रदर्शन शुरू किया। उसके बाद नागरिकता के विरोधियों और समर्थकों के बीच नारेबाजी का मुकाबला शुरू हुआ और इसके बाद क्या हुआ ये सारे देश ने देखा। ये सब उस दिन हुआ जिस दिन अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सपरिवार दिल्ली पहुंचे उसी दिन राजधानी में हुए इस बवाल से अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में देश की छवि को कितना नुकसान पहुंचा, इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं है।

दिल्ली में हुई हिंसा के लिए कुछ लोग इसके लिए भाजपा नेता कपिल मिश्रा को दोष दे रहे हैं। उनका कहना है कि यदि शाहीन बाग के जवाब में वैसा ही आन्दोलन नहीं किया जाता तब ये हालात पैदा नहीं होते। लेकिन ऐसा कहने वाले ये भूल गए कि शाहीन बाग के बाद उस जैसा ही दूसरा धरना भी नागरिकता कानून के विरोध में दिल्ली के दूसरे स्थान पर शुरू कर दिया गया। जबकि सर्वोच्च न्यायालय पहले वाले धरने की वैधानिकता और औचित्य पर विचार कर ही रहा है। शाहीन बाग के धरने के प्रति जिस तरह की सहानुभूति और समर्थन एक वर्ग विशेष ने दिखाई और समाचार माध्यमों ने भी उसे सुर्खियां प्रदान की उससे एक गलत परिपाटी को प्रोत्साहन मिला। और जैसा की मीडिया के एक हिस्से द्वारा लगातार प्रचारित किया जा रहा था कि शाहीनबाग का धरना प्रदर्शन शांतिपूर्ण है तो फिर नागरिकता कानून के समर्थन में धरना देते ही दिल्ली जलने क्यों लगी ये सवाल भी तो पूछा जाना चाहिए।

दिल्ली में हुई हिंसा को सामान्य हिंसा नहीं कहा जा सकता है। ये सांप्रदायिक दंगों का ही रूप था। लगातार तीन दिन से यह हिंसक दौर जारी रहा है। बेशक सरकार कोई भी स्पष्टीकरण देती रहे। आखिर देश की राजधानी में ऐसे हालात एकाएक कैसे बने? दंगाइयों के हाथ में पिस्तौलें या रिवाल्वर कैसे आए? पत्थर कैसे जमा किए गए, जिसकी भनक न तो पुलिस और न ही खुफिया एजेंसियों को लग सकी? अर्धसैनिक बलों की 35 कंपनियों की तैनाती के बावजूद दिल्ली कैसे जला दी गई? क्या पुलिस और सुरक्षा बलों के हाथ बांध दिए गए थे? क्या इसके पीछे कोई बड़ी साजिश काम कर रही थी?

चूंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में है जिसने शाहीन बाग के धरने को अवैध कब्जा बताकर तत्काल हटवाने का आदेश देने की बजाय आन्दोलन को अधिकार मानकर जनसुविधा का ध्यान रखने का उपदेश देते हुए मध्यस्थों को शंतिदूत बनाकर भेजा। लेकिन संविधान की दुहाई देने वाली आंदोलनकारी महिलाओं ने शान्ति प्रस्ताव को कमजोरी मानकर सड़क खाली करते हुए किसी दूसरे स्थान पर जाने से साफ इंकार कर दिया। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप पूरे देश में सीएए के समर्थन में धरने देने की भावना मजबूत होने लगी। ये कहना कदापि गलत नहीं होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में पेश की गईं याचिकाओं पर कानूनी प्रावधानों के अनुसार फैसला दे देता तब शायद दिल्ली के हालात इतने संगीन नहीं हुए होते।

हिंसा थमने के बाद जो तस्वीरें और तथ्य सामने आ रही हैं वो चौंकाने वाले हैं। हिंसा में आम आदमी पार्टी के पार्षद का नाम भी सामने आ रहा है। हिंसा जिस बड़े पैमाने पर हुई उससे यह साफ है कि इसकी तैयारी पिछले कई दिनों से चल रही थी। ऐसे में खुफिया एजेंसियों की नाकामी भी उजागर होती है। जब दिल्ली में दो महीनों से धरना प्रदर्शन चल रहा है, तो ऐसे में खुफिया एजेंसियों का सुस्त रवैया सोचने को मजबूर करता है। दिल्ली में हुई हिंसा की गहन जांच पूरी निष्पक्षता से होना बहुत जरूरी है। यदि इसके पीछे कोई साजिश है, तो उसे तुरंत पकड़ कर कार्रवाई की जानी चाहिए। शाहीन बाग में नागरिकता कानून की आड़ में जो खेल खेला और रचा जा रहा हे यदि इसके पीछे के खेल को नहीं समझा गया तो देश भर में जगह-जगह शाहीन बाग नजर आयेंगे। बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय भी स्थिति की गंभीरता को समझे। यह भी सच है कि लोकतांत्रिक सरकारों को विरोधियों से बातचीत कर मसले का समाधान निकालना होता है। देश की सरकार को जनता के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत होती है। जनता के प्रति अपने दायित्व को बखूबी निभाने हेतु प्राथमिकता देने की जरूरत होती है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि नागरिकता कानून के विरोध में शाहीन बाग में जो और जैसे हुआ वह महिलाओं और मुस्लिमों का ध्यान रखकर बर्दाश्त किया गया जिससे और लोगों को भी बल मिल गया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भेजे गए मध्यस्थों से जिस तरह बात की गई उससे इस बात की पुष्टि हुई कि आन्दोलनकारियों की आड़ में देश को अस्थिर करने वाली ताकतें सक्रिय हैं। आज दिल्ली पुलिस और केंद्रीय गृह मंत्रालय को वही लोग कोस रहे हैं जो जो शाहीन बाग में सड़क कब्जाए बैठी महिलाओं की शान में कसीदे पढ़ा करते थे, उन्हें स्वतंत्रता सेनानी और शेरिनयां बताते थे।

-राजेश माहेश्वरी

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