संपादकीय: अमेरिका-तालिबान समझौता : शांति के प्रयासों की जीत

Peace Agreement

अमेरिका ने अफगानिस्तान से सेना वापिस निकालने का निर्णय इस शर्त पर लिया है कि तालिबान हिंसा का रास्ता छोड़ेगा और अलकायदा के साथ अपना नाता तोड़ेगा। भले ही इस बात की भी चर्चा है कि इस समझौते पीछे अमेरिका के राष्टÑपति डोनाल्ड ट्रम्प अपना अगला राष्टपति चुनाव जीतने के लिए एवं नोबल शांति पुरूस्कार हासिल करने के लिए यह सब कर रहे हैं। फिर भी यह अंधेरे में उजाले की किरण से कम नहीं।

इस समझौते को अमेरिका की बजाय शांति की जीत का करार देना उचित होगा। दरअसल तालिबान संगठन भी हिंसा को राजनीतिक ताकत हासिल करने का साधन मान कर चल रहे थे। पाकिस्तान को ठिकाना बनाने के बावजूद तालिबान की सरगर्मियों का केन्द्र बिन्दु अफगानिस्तान ही रहा है। कई मौकों पर यह बात भी सामने आती रही है कि उनका इस्लाम के नाम पर किसी अन्य देश के साथ कोई वास्ता नहीं है।

अगर तालिबान संगठन देश में लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता में हिस्सेदार बनने की कोशिश करते हैं तब यह अफगानिस्तान के लिए बहुत ही अच्छा होगा। तालिबान ने देख लिया है कि अमेरिका व अन्य ताकतवर देशों की मौजूदगी में वे हथियारों के बल पर तानाशाही के साथ शासन नहीं कर सकते, वहीं दूसरी ओर अमेरिका भारी नुक्सान के बावजूद लम्बे समय तक अफगानिस्तान में लड़ाई के लिए डटा रहा।

बाराक ओबामा के कार्यकाल तक अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापिसी के लिए अमेरिका में भारी अंदरूनी दबाव पैदा हो चुका था, लेकिन हिंसा के रहते मैदान छोड़ना अमेरिकी विचारधारा व उसकी राष्टÑीय पॉजीशन के खिलाफ था। आखिर तालिबानों की कमर तोड़ने के बाद अमेरिका ने और जानी नुक्सान से बचते हुए ये किनारा किया है। समझौता करने के बाद भी अमेरिका बहादुरों वाली जीत की पॉजीशन में है। यह घटनाक्रम दुनिया के अन्य देशों में सक्रिय आतंकवादियों के लिए भी बड़ा सबक है।

अमन-शांति व बातचीत ही आखिर किसी मसले का हल है। खासकर पाकिस्तान को भी समझना चाहिए कि बातचीत के लिए आतंकी हिंसा रोकनी होगी। अमेरिका तालिबान समझौते से भारत की विचारधारा को भी बल मिला है। भारत कश्मीर सहित हर मसले पर बातचीत के लिए पाकिस्तान के सामने सीमाओं पर अमन की शर्त रखता आ रहा है। आतंकवाद को कोई भी देश या विचारधारा स्वीकार नहीं करती। आतंकवाद के खिलाफ शांति पसंद देशों की एकजुटता अब पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हुई है।

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