देश की राजनीति में यूपी की महत्ता किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में सबकी निगाह यूपी में आखिरी दो चरणों के चुनाव पर है। यहां भाजपा गठबंधन और कांग्रेस के बीच आखिरी चरण में छिड़ी जुबानी जंग से उत्साहित है। पार्टी का मानना है कि अगर गठबंधन और कांग्रेस के उम्मीदवार एक दूसरे का वोट काटते हैं तो पूर्वांचल में भाजपा की पुरानी ताकत न सिर्फ बनी रहेगी, बल्कि कई सीटों पर उनका मत प्रतिशत बढ़ सकता है। हालांकि जमीनी स्तर पर बन रहे समीकरण उम्मीदवारों की जाति व निजी शख्सियत की तस्वीर बदलने में समर्थ है। नतीजे अप्रत्याशित होने की आशंका सभी दलों को है। दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। पीएम मोदी एक बार फिर से सरकार बनाने को बेताब दिखाई दे रहे हैं तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी सियासी किस्मत को मजबूत करने और पार्टी की साख बचाने में जुटे हुए हैं। उत्तर प्रदेश में छठा चरण का चुनाव हो चुका है। सातवें में 13 सीटों पर चुनाव होना है।
इनमें सुल्तानपुर, श्रावस्ती व अंबेडकरनगर अवध की हैं। बाकी 24 सीटें पूर्वांचल की। पूर्वांचल की आजमगढ़, वाराणसी और गोरखपुर सीटों पर सबकी नजर है। गठबंधन के तहत बसपा इन 27 सीटों में से 16 पर चुनाव लड़ रही है। बाकी 11 पर सपा ने अपने प्रत्याशी उतारे हैं। बसपा की सारी उम्मीदें इन 16 सीटों पर टिकी हैं। वजह, 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने अब तक की सर्वाधिक 21 सीटें जीती थीं। उस समय इन 27 सीटों में से 11 पर उसने जीत दर्ज की थी। यही नहीं, 2014 के लोकसभा चुनाव में जब बसपा का खाता भी नहीं खुला, पार्टी के 12 प्रत्याशी नंबर दो पर थे। आखिरी दो चरणों में ज्यादातर उन सीटों पर चुनाव हो रहा है जो भाजपा के खाते में रही हैं। इसलिए भाजपा की जितनी भी सीटें कम होंगी उसका केंद्र का खाता कमजोर होगा। 80 सीटों में से 53 सीटों पर चुनाव हो चुका है जबकि 27 सीटों पर चुनाव होना है। अभी तक जो भी फीडबैक जमीनी स्तर से राजनीतिक दलों को मिला है उससे कोई भी दल पूरी तरह से आश्वस्त नहीं है। बीते 2014 लोक सभा चुनाव में अगर हम उत्तरप्रदेश की बात करें तो जहां भाजपा ने उत्तरप्रदेश में कुल 80 में से 73 सीटें हासिल कर 44 फीसदी वोट से अपनी जीत दर्ज की थी तो वहीं बसपा को 19 फीसदी तथा सपा को 20 फीसदी वोट से संतोष करना पड़ा था। यहां यह बात इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है की 2014 में हाशिये पर आ गयी बहुजन समाज पार्टी ने अपने दलित वोट बैंक को अब दुबारा जीवित कर लिया है और समाजवादी पार्टी के साथ हाथ मिलाने के बाद ये गठबंधन ओबीसी एवं दलितों को रिझाने में कामयाब दिख रहा है। जिसके परिणामस्वरूप ही भाजपा के अन्दर से दलित बचाव की आवाज आ रही है।
हाल ही में भाजपा के पांच सांसदों जिसमें छोटे लाल, उदितराज, ज्योतिबाई फूले आदि ने दलितों के लिए कुछ करने की प्रधानमंत्री से अपील भी की है। इसका सीधा मतलब है की राजनीति एक बार फिर करवट लेने को आतुर है जिसके केंद्र इस बार दलित होंगे। यहां यह बात इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है की 2014 में हाशिये पर आ गयी बहुजन समाज पार्टी ने अपने दलित वोट बैंक को अब दुबारा जीवित कर लिया है और समाजवादी पार्टी के साथ हाथ मिलाने के बाद ये गठबंधन ओबीसी एवं दलितों को रिझाने में कामयाब दिख रहा है। राजनीतिक विशलेषकों के अनुसार गठबंधन के वोटों की शेयरिंग अच्छी तरह से हो गई तो सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दुहराना मुश्किल नहीं होगा। यही बात बसपा सुप्रीमो मायावती लगातार कह रही हैं। मगर, गठबंधन की ताकत को कई स्तर पर चुनौती मिल रही है।पहला, पार्टी का टिकट वितरण का मैकेनिज्म चुनौतियां पेश कर रहा है। कई सीटों पर कांग्रेस के दमदार उम्मीदवार बसपा प्रत्याशियों की बेचैनी बढ़ाए हुए हैं। वहीं, कई सीटों पर भाजपा ने प्रत्याशी बदलकर और बसपा-सपा के लोगों को पार्टी के साथ जोड़कर चुनौतियां बढ़ाई हैं।
ऐसे में बसपा के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दुहरा पाना आसान नजर नहीं आ रहा। विधानसभा की गोपालपुर, सगड़ी, मुबारकपुर, आजमगढ, मेंहनगर सीटें आजमगढ़ संसदीय क्षेत्र में आती हैं। भाजपा के टिकट पर दिनेश लाल यादव (निरहुआ) चुनावी मैदान में हैं, तो दूसरी तरफ सपा-बसपा गठबंधन के सूत्रधार अखिलेश यादव इस सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। इस क्षेत्र में 19 फीसदी यादव, 16 दलित और 14 फीसदी मुसलमान हैं। आजमगढ़ की जनता लहर के विपरीत चलती है- इस सीट का इतिहास रहा है लहर के विपरीत चलने का। 2014 में मोदी लहर में भी यहां की जनता ने मुलायम सिंह यादव को चुना था। 1978 में कांग्रेस विरोधी लहर में यहां कांग्रेस की मोहसिना किदवई को जीत मिली थी। वीपी सिंह की लहर में यहां की जनता ने बसपा को जिताया था। राजनीति के जानकारों के मुताबिक आजमगढ़ का चुनावी समीकरण को समझना हो, तो ऐसे समझिए, यादव, दलित, मुस्लिम में से किसी दो को जो अपने पक्ष में करने में कामयाब रहा, जीत उसकी। 1962 से लगातार इस सीट पर या तो यादव प्रत्याशी विजयी हुआ है या दूसरे नंबर पर रहा है।
वैसे इस बार एक यादव की टक्कर दूसरे यादव से है। अब तक हुए 14 आम चुनाव और दो उपचुनावों में से बारह बार यादव जाति के उम्मीदवार लोकसभा पहुंचे। तीन बार मुस्लिम प्रत्याशियों ने कामयाबी हासिल की। उत्तर प्रदेश में छठे और सातवें चरण का चुनाव सातवें चरण के मतदान में आने वाली स्थिति का जायजा स्पष्ट रुप से लिया जा सकता है। यह यूपी के पूर्वी हिस्से में पड़ने वाला एक बहुत बड़ा जनसंख्या घनत्व का क्षेत्र है और पारंपरिक रूप से सपा और बसपा दोनों का गढ़ रहा है। उनका एक साथ आना गठबन्धन को बहुत मजबूत स्थिति में ले आया है, जैसा कि पिछले साल गोरखपुर और फूलपुर उपचुनावों में हुआ था, जहां सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य की सीटें गठबंधन ने जीत ली थी। लब्बोलुबाब यह है कि यूपी में आखिरी दो चरणों का चुनाव प्रदेश में महागठबंधन, कांग्रेस और भाजपा के भाग्य के साथ-साथ देश का भविष्य भी लिखेगा। इस बार का चुनाव इसलिए भी दिलचस्प है क्योंकि यह चुनाव हर मोड, हर फेज में अलग-अलग मुद्दों पर लड़ा जा रहा है। कहीं धर्म, जाति और किसान तो कहीं राष्ट्रवाद पर लड़ा जा रहा है। इन नतीजों का असर सीधे तौर पर कई क्षेत्रीय दलों के भविष्य और कई नेताओं के करियर पर पड़ेगा। 2019 के लोकसभा चुनाव में कई राउंड की वोटिंग हो चुकी है। अब महज कुछ ही दिनों में 23 मई को नतीजे भी आ जाएंगे। डॉ. श्रीनाथ सहाय
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