आधुनिक भारत के लिए कालिख है छुआछूत की समस्या

Untouchability

भारतीय संविधान में आम नागरिकों को मौलिक अधिकार के रूप में अनुच्छेद 14 से लेकर 18 तक विभिन्न प्रकार की समता की बात की गई है। संविधान का अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समानता का अधिकार देता है, अनुच्छेद 15 धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किए जाने का समर्थन करता है। वहीं अनुच्छेद 15.4 सामाजिक एवम् शैक्षिक दृष्टि से पिछडे वर्गो के लिए विशेष उपबन्ध की बात करता है। इसके अलावा अनुच्छेद 16 लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता और 17 छुआछूत के अंत की बात करता है। अब जब हमें सात दशक से अधिक समय स्वतंत्र हुए हो गया है।

महेश तिवारी

       देश भले बदल रहा है, लेकिन उसके मरकज में जातीय अस्पृश्यता खत्म होने का नाम नहीं ले रहीं। बीते दिनों की ही चंद घटनाओं को ले लीजिए। जो डिजीटल होते भारतीयों की मानसिकता की कलई खोल रहीं। पहली घटना राजस्थान के नागौर की। जहां दो दलित भाई के साथ हुई जातिवादी घटना ने देश को झकझोरने का कार्य किया। दूसरी घटना गुजरात के बनासकांठा में हुई। वहां पर भी जातिवाद की जकड़न में उलझा हुआ समाज तब मालूम पड़ा। जब वहां एक दलित युवक को शादी के दौरान घोड़ी पर चढ़ने से तथाकथित ऊंची जाति के लोगों ने रोका। इसके बाद तीसरी घटना का जिक्र करें। तो वह देवभूमि हिमाचल से है। हिमाचल प्रदेश के मंडी शहर में शिवरात्रि के भोज से अनुसूचित जाति के लोगों को यह कहकर उठा दिया गया कि उन्हें “देव जाति” के साथ बैठकर खाने का कोई अधिकार नहीं। ये कुछ घटनाएं हैं। जो विकसित होते समाज पर तमाचा मारने का काम कर रहीं। साथ में आधुनिक होते समाज को चीख-चीख कर बता रहीं कि भले इतरा लो न्यू इंडिया पर, लेकिन आज भी भारत देश अठारहवीं सदी में मानसिक रूप से जी रहा है। किताबी ज्ञान की प्रतिशतता भले 75 फीसदी को पार कर रही है, लेकिन सामाजिकता और सामाजिक मूल्यों के मायने में एक बड़ा तबका आज भी पिछड़ा हुआ ही है। जो सिर्फ झूठी शानों-शौकत के लिए जी रहा। उसका कोई सामाजिक अस्तित्व नहीं। तभी तो वह समाज के निचले तबके को ऊपर उठता देख नहीं पाता। वैसे अखबारी पन्नों पर निगहबानी करेंगे। तो ऐसी घटनाएं रोज देखने को मिल जाएगी। जो आधुनिक भारत की सोच पर पटाक्षेप तो करती ही है। साथ ही साथ मंगल और चांद पर पहुँचने का उपहास भी उड़ाती हैं।
अब जिस देश के संविधान की प्रस्तावना की शुरूआत होती है, हम भारत के लोग। इसका निहितार्थ यहीं है, कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और कच्छ से लेकर असम तक हम सब एक हंै। ऐसे में इतना भेदभाव लाते कहाँ से हम? इसके अलावा समाज में इतनी ही बर्बरता भरी पड़ी है, फिर काहे का जगतगुरु बनने का ख़्याल पाल रहें हम? जब हमारे भीतर दौड़ने वाले खून का रंग एक ही है। हिन्दू राष्ट्र की बात गाहे-बगाहे सार्वजनिक मंचों से की जाती है। हिन्दू राष्ट्र से तात्पर्य यहां किसी धर्म- विशेष से नाता नहीं। वैसा हिन्दू राष्ट्र, जहां हिंदुस्तान में रहने वाला हर व्यक्ति अपने कर्म से हिन्दू होगा, न कि जाति धर्म से। फिर इतना जातीय असमानता आखिर क्यों?
वैसे आज हमारा देश भाषा के नाम पर बंट रहा, क्षेत्रीयता के आधार पर और तो और गरीबी- अमीरी के नाम पर पहले से बंटा हुआ। फिर क्यों एक ओर खाई धर्म के नाम पर बना रहें हम। अगर ऐसे ही जाति-धर्म के नाम पर निचली जाति के लोगों पर अत्याचार होते रहेंगे। फिर संविधान की प्रस्तावना को सुशोभित करने वाले शब्द समाजवादी, पंथनिरपेक्ष,लोकतंत्रात्मक गणराज्य, प्रतिष्ठा और अवसर की समता आदि सार्थक कैसे हो पाएंगे? इसके अलावा अगर हमारा संविधान सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता को सुरक्षित करता है तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए भाईचारे को बढ़ावा देता है। तो क्या ये सब बातें वास्तविक धरातल पर आकार लेती हुई दीगर हो रही वर्तमान में। इसकी तथ्यात्मक विवेचना होनी चाहिए। संविधान का अनुच्छेद-16 अवसर की समता की बात करता है। क्या आज के परिवेश में अवसर की समता दिखती है। ऐसे में अगर हम कहें कि उजाले में चिराग लेकर भी देखें तो देश मे किसी भी स्तर पर यह समता दिखाई नहीं देगी। तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। ज्यादा नहीं राजनीतिक दलों का उदाहरण ही ले लीजिए, क्या किसी दल में सामान्य व्यक्ति वह पद-प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता। जो वंशवाद के नाम पर मुफ़्त में बांटा जा रहा। चाहें वह उस योग्य हो, या नहीं। फिर कहाँ गई अवसर की समता की राजनीतिक दुहाई? आज देश के लोकतंत्र की महती समस्या यहीं है, कि जिस गण को संविधान सर्वोच्चता प्रदान करता उसी गण की समस्त शक्तियों और अधिकारों को सियासतदां अपने निजी हित और सरोकार को साधने के लिए कागजों में समेट कर रख दिए हैं।
देश परमाणु शक्ति से संपन्न और महाशक्ति बनने की राह पर अग्रसर है। भारतीय वैज्ञानिकों ने दुनिया के देशों के सामने अंतरिक्ष में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया है। हम चांद-मंगल भी फतह कर लिए हैं। फिर भी आज देश के सामने प्रत्यक्ष रूप से ऐसे अनगिनत सवाल खड़े हैं, जो हमें सोचने पर मजबूर कर देते हैं, कि हम किस आजादी और संवैधानिक ढांचे का ढिंढोरा पीट रहे? जब देश आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर ही लहूलुहान हो जाता है। क्षेत्रवाद और भाषा के नाम पर हम एक देश के होकर भी बंटे हुए हैं। युवाओं को अपने आजाद देश के प्रति कर्तव्यों का ज्ञान नहीं रहा है। तो वही बहुतेरे प्रश्न मुँह बनाकर हमें चिढ़ा भी रहें, कि हम कैसे गणतंत्र में जी रहे। जहां सामाजिक और राजनीतिक कुरीतियों और बुराइयों से अलग आजतक देश नहीं हो सका। कुछ प्रश्न हैं, जो हमें सोचने पर मजबूर कर देंगें, कि संविधान की बातें तो सिर्फ किताबी हो चुकी हैं। हमारे रहनुमा अंतिम पंक्ति के व्यक्ति तक योजनाओं को पहुँचा नहीं सके। देश में महिलाओं को तमाम प्रकार के प्रतिबंधों से मुक्ति दिला नहीं सके। धर्म और जाति की जकड़न और जंजीरें हम झंझावात लाकर तोड़ नहीं पाए।
गांधी और अम्बेडकर ने तो यह सपना कभी नहीं देखा होगा, कि आने वाले वक्त में भी हमारा सपनों का भारत छुआ-छूत और उच्च और निम्न श्रेणी के अधर में पिसता रहेगा! विवेकानंद ने कभी न सोचा होगा, कि हमारे देश की आने वाली पीढ़ी नशे में आकंठ डूब जाए। पर शायद आज की व्यवस्था को इन सब बातों का जरा भी फर्क नहीं पड़ता। आज के वक़्त सत्ता के लिए खुला खेल चल रहा। नैतिकता, सामाजिक आदि कर्तव्यों को दरकिनार कर दिया गया है। राजनीति तो राजनीति के लोग, समाज का उच्चतर तबका भी इस मसले पर कमतर कहीं से कहीं तक नहीं है। सियासतदां संविधान की दुहाई देते नहीं थकते कि वे समाज को सर्वसमावेशी बना रहे, लेकिन हकीकत कुछ और है। ऐसे में सियासतदानों को समझना चाहिए। देश का निर्माण तो चंद अंगुलियों पर गिने जा सकने वाले व्यक्तियों से होता नहीं। देश बनता है प्रदेश के समूह से। प्रदेश किससे बनता है, जिलों, तहसीलों आदि से। वह जिला कैसे निर्मित होता है। वहाँ पर रहने वाले व्यक्तियों के समूहों से। ऐसे में जब तक हर व्यक्ति के हाथ में समान संवैधानिक अधिकार के अंतर्गत सुविधाएं न पहुँच जाएं। तब तक सभी नीति और नैतिकी भोथरी ही लगती है।
ऐसे में क्यों न कुछ किया यूं जाए कि जाति के झमेले को खत्म करते हुए सभी के नाम के पीछे “भारतीय” जोड़ने की प्रथा शुरू की जाएं। अथवा सरनेम का कॉलम ही सरकारी कागजात से हटा दिया जाएं। इसके अलावा शिक्षा ऐसी हो जो मानवीय मूल्यों की अलख जगा सकें। समाज को यह बता सकें कि जाति में कुछ नहीं रखा। आदमी अपने कर्मों से बड़ा बनता है। तभी जातीय जकड़न से देश दूर हो पाएगा वरना कानून कितने बनें आजाद देश में। संविधान के अनुच्छेद 17 में अश्पृश्यता को अपराध माना गया। साथ ही साथ अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 भी बना, लेकिन सवाल वहीं जस का तस क्या जातीय भेदभाव खत्म हुआ नहीं न, तो क्यों न वक्त की नजाकत को देखते हुए कोई ठोस पहल की जाएं। जिससे सदियों की समस्या इक्कीसवीं सदी के नए भारत से छू- मंतर हो जाएं और देश हिंदी, हिन्दू (कर्म के आधार पर) और हिंदुस्तान हो जाएं।

 

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