मोदी सरकार के तमाम दावों और वादों के बावजूद देश में नौजवानों को नये रोजगार तो मिलना दूर, उल्टे जो काम पर लगे थे, वे भी बेरोजगार हो रहे हैं। ग्रामीण भारत में साल 2011-12 और 2017-18 के बीच करीब 3.2 करोड़ अस्थायी मजदूरों से उनका रोजगार छिन गया। इनमें से तकरीबन तीन करोड़ खेतिहर मजदूर थे। इनमें पुरुष मजदूरों के रोजगार में 7.3 फीसदी और महिला मजदूरों के रोजगार में 3.3 फीसदी की कमी आई है। एक अंग्रेजी अखबार ने हाल ही में अपनी एक रिपोर्ट में एनएसएसओ द्वारा साल 2017-2018 में किए गए आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के हवाले से बताया है कि साल 2011-12 से लेकर 2017-18 के बीच खेतों में काम करने वाले अस्थायी मजदूरों में 40 फीसदी की गिरावट आई है।
रोजगार को लेकर नेशनल सैंपल सर्वे आॅफिस (एनएसएसओ) का सर्वेक्षण और भी कई सनसनीखेज खुलासे करता है। उसी अखबार की एक और रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में पुरुष कामगारों की संख्या तेजी से घट रही है। साल 1993-1994 के बाद पहली बार पुरुष कामगारों की संख्या घटी है। साल 2011-12 में देश के अंदर पुरुष कामगारों की संख्या 30.4 करोड़ थी, जो साल 2017-18 आते-आते 28.6 करोड़ रह गई। यानी आंकड़े बतलाते हैं कि पिछले पांच सालों की तुलना में साल 2017-18 में देश में रोजगार अवसर बहुत कम हुए हैं।
अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक शहरी क्षेत्रों के मुकाबले यह गिरावट ग्रामीण इलाकों में ज्यादा है। जहां शहरी क्षेत्र में पुरुषों को काम न मिलने की दर में 4.7 प्रतिशत की गिरावट आयी, वहीं ग्रामीण इलाकों में यह 6.4 प्रतिशत रही। शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में पुरुषों की बेरोजगारी दर क्रमश: 7.1 फीसदी और 5.8 फीसदी है।
एक लिहाज से देखें, तो साल 2011-12 से अब तक देश में कुल 4.7 करोड़ रोजगार कम हुए हैं, जो सऊदी अरब की कुल जनसंख्या से भी ज्यादा है। एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2011-12 से लेकर साल 2017-18 के बीच देश के ग्रामीण इलाकों में 4.3 करोड़ नौकरियां कम हुईं। इसी अवधि में शहरी इलाकों में 40 लाख नौकरियां कम हुई हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि ग्रामीण इलाकों में महिला रोजगार में 68 प्रतिशत की कमी आई है, वहीं शहरों में पुरुष कामगारों को रोजगार में 96 प्रतिशत की कमी आई है।
यह पहली मर्तबा नहीं है, जब किसी सरकारी रिपोर्ट में देश के अंदर बेरोजगारी की विकराल स्थिति सामने आई हो, बल्कि इससे पहले भी भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केंद्र ने अपने सर्वेक्षण के आधार पर कहा था कि नोटबंदी के बाद साल 2017 के शुरूआती चार महीनों में ही 15 लाख नौकरियां खत्म हो गईं थीं।
नोटबंदी का सबसे ज्यादा असर रियल इस्टेट और कृषि क्षेत्र पर पड़ा था। ‘स्टेट आॅफ वर्किंग इंडिया, 2018’ (एसडब्ल्यूआई) हफिंग्टन पोस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2015 में 5 प्रतिशत की बेरोजगारी दर थी, जो पिछले 20 वर्षों में सबसे ज्यादा देखी गई है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि के बाद भी रोजगार में वृद्धि नहीं हुई है। शोधकतार्ओं, नीति निमार्ताओं, पत्रकारों और नागरिक समाज कार्यकतार्ओं के एक समूह द्वारा लिखी गई यह रिपोर्ट, मुख्य रूप से राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) और श्रम विभाग के रोजगार-बेरोजगारी सर्वेक्षण (ईयूएस) से प्राप्त डेटा के आधार पर है। ‘स्टेट आॅफ वर्किंग इंडिया’ की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पारंपरिक रूप से भारत में बेरोजगारी नहीं, बल्कि अंडर एंप्लॉयमेंट और कम मजदूरी समस्या है।
उच्च शिक्षा प्राप्त और युवाओं में बेरोजगारी 16 फीसदी तक पहुंच गई है। रोजगार पर सर्वेक्षण करने वाली एक और संस्था ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी प्राइवेट लिमिटेड’ (सीएमआइई) ने भी हाल ही में इस बात का दावा किया है कि देश में बेरोजगारी दर गंभीर स्थिति में है। साल 2018 में एक करोड़ से ज्यादा लोगों ने अपनी नौकरियां गंवाई हैं। सीएमआइई के मैनेजिंग डायरेक्टर और सीईओ महेश व्यास, बेरोजगारी दर बढ़ने की वजह बतलाते हुए कहते हैं कि ‘‘निवेश की दर में गिरावट, नोटबंदी और जीएसटी का सबसे ज्यादा असर छोटे और मझोले कारोबारियों पर हुआ, जो देश में सबसे ज्यादा रोजगार प्रदान करते हैं। ऐसे में बड़ी संख्या में नौकरियां चली गईं। उसी का असर है कि बेरोजगारी दर बढ़ रही है।’’
एक तरफ देश में रोजगार को लेकर ये सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्टें हैं, जो देश में भयंकर बेरोजगारी और नौकरी, काम करने वालों को मिलने वाले कम वेतनमान के दर्दनाक हालात को बयां करती हैं, तो दूसरी ओर नरेंद्र मोदी सरकार इन रिपोर्टों से लगातार अंजान बनी हुई है। हाल ही में एक संसदीय समिति के सामने सरकार ने स्वीकार किया है कि उसके पास साल 2014 के बाद से नई नौकरियों की संख्या का कोई वास्तविक आंकड़ा नहीं है। वित्त सचिव, मुख्य सांख्यिकीविद्, बैंकिंग सचिव, श्रम सचिव और भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल समेत शीर्ष अधिकारियों के जरिए कई लिखित पत्रों में मोदी सरकार ने माना है कि उनके पास साल 2011-12 के एनएसएसओ सर्वेक्षण को छोड़कर नौकरी या रोजगार पर कोई वास्तविक आंकड़ा नहीं है। अलबत्ता अंतरिम रूप से साल 2016-17 में अखिल भारतीय वार्षिक श्रम ब्यूरो के सर्वेक्षण हुए थे, जिसे सरकार ने अभी तलक आधिकारिक तौर पर जारी नहीं किया है।
चूंकि यह सर्वेक्षण आधिकारिक रूप से सरकार द्वारा सार्वजनिक नहीं किया गया है, लिहाजा श्रम विभाग ने इसे संसदीय समिति के साथ साझा नहीं किया है। आंकड़ोें को लेकर सरकार का जो उदासीन और पक्षपातपूर्ण रवैया है, उससे निराश होकर इस साल जनवरी के आखिर में राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग (एनएससी) के कार्यकारी अध्यक्ष समेत दो सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया था। दरअसल आयोग, रिपोर्ट को अपनी मंजूरी दे चुका है, लेकिन सरकार उसे जारी नहीं कर रही है। एनएसएसओ जैसे स्वतंत्र संस्थान की रिपोर्ट को जारी न करके, मोदी सरकार ने यह जतलाने की कोशिश की है कि उसकी नजर में इस संस्थान की क्या अहमियत है। सरकार के इस कारनामे से देश के जाने-माने अर्थशास्त्री भी चिंतित हैं। एनएसएसओ की स्वतंत्रता बहाल रहे, इस मांग को लेकर हाल ही में देश भर के 108 अर्थशास्त्रियों ने सरकार को एक प्रतिवेदन भेजा है।
रोजगार को लेकर एनएसएसओ की यह रिपोर्ट अकेले नहीं, बल्कि किसानों की आत्महत्या, एनएसएसओ वार्षिक रोजगार सर्वेक्षण रिपोर्ट, कृषि मजदूरी डेटा, अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातीय आंकड़े, राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण रिपोर्ट और विदेशी निवेश के आंकड़ों को भी मोदी सरकार, जनता के सामने नहीं ला रही है। रिपोर्ट तैयार होने के बाद भी, वह इन रिपोर्टों को दबायें बैठी है। साल 2014 के आम चुनाव में रोजगार एक बड़ा मुद्दा था। बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी चुनावी सभाओं में देशवासियों से वादा किया था कि उनकी पार्टी सत्ता में आई, तो हर साल देश के 2 करोड़ नौजवानों को नौकरी दी जायेगी। लेकिन अफसोस, प्रधानमंत्री अपने वादे पर बिल्कुल भी खरे नहीं उतरे। उलटे उनके कार्यकाल में नौकरियां और कम हो गईं। केन्द्र सरकार ने लाखों नौकरियां खत्म कर दीं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके मंत्रिमंडल के कई वरिष्ठ मंत्री डींगे हांकते नहीं थकते कि मुद्रा लोन की बढ़ती संख्या और ईपीएफओ के साथ नए पंजीकरण बताते हैं कि नौकरियों में वृद्धि हुई है। चलो, उनकी इस बात को सही मान भी लिया जाए, तो सवाल फिर वहीं आकर ठहर जाता है कि नौकरियों में यदि वृद्धि हुई है और नये काम के मौके बन रहे हैं, तो देश में इतनी बेरोजगारी क्यों है ? नौजवानों को रोजगार क्यों नहीं मिल रहा है ? तल्ख हकीकत यह है कि नये रोजगारों का सृजन तो दूर, जो लोग अस्थाई कामकाज में लगे हुये थे, उनसे भी रोजगार छूट रहे हैं। वे बेरोजगार हो रहे हैं। शहरी भारत के साथ-साथ ग्रामीण भारत में भी आज बेरोजगारी की भयानक समस्या है। जिसके लिए सरकार के पास ना तो कोई स्पष्ट समाधान है और ना ही भविष्य के लिए कोई सुसंगत नीति।
जाहिद खान
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