भारत के बार्डर रोड आर्गेनाजेशन ने उत्तराखंड के पिथौरागढ जिले में स्थित लिपुलेख दर्रे को मानसरोवर यात्रा मार्ग से जोड़कर रणनीतिक मोर्चे पर बड़ी कामयाबी हासिल की है। 80 किलोमीटर लंबे इस सड़क मार्ग के बन जाने के बाद जहां एक ओर अब तीर्थयात्रियों को कैलाश मानसरोवर जाने के लिए केवल सात दिन का समय लगेगा वहीं दूसरी ओर इस मार्ग के चालू हो जाने के बाद भारत की थल सेना के लिए रसद और युद्ध सामग्री चीन की सीमा तक पहुंचाना आसान हो जाएगा। कुल मिलाकर कहा जाए तो इस सड़क को आंरम्भ कर भारत ने एक तरह से चीन के द्वार पर दस्तक दे दी है। साल 2018 में चीनी सेना ने पिथौरागढ के बाराहोती में घुसपैठ की कोशिश की थी लेकिन, अब इस मार्ग के शुरू हो जाने के बाद चीनी मनसूबों पर नियंत्रण लगाया जा सकेगा।
हालांकी, भारत के अहम पड़ोसी नेपाल ने भारत के इस कदम का कड़ा विरोध किया है। उसका कहना है कि भारत ने इस सड़क की आड़ में उसकी 19 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया है। नेपाल में इस पूरे प्रकरण को राष्ट्रवाद के मुद्दे से जोड़कर भी देखा जाने लगा है। सड़क उद्घाटन का समाचार आने के साथ ही नेपाल में भारत विरोधी प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया। लॉकडाउन के बावजूद बड़ी संख्या में नेपाली नागरिकों ने भारतीय दूतावास के सामने इक्कठा होकर प्रदर्शन किया। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने आनन-फानन में सर्वदलीय बैठक बुलाकर पूरे मामले में विपक्षी दलों से राय ली।
नेपाल सरकार भी भारत के इस कदम का विरोध कर रही है, उसका कहना है कि लिपुलेख दर्रा नेपाल का हिस्सा है, इस लिए भारत को यहां कोई गतिविधि नहीं करनी चाहिए, मानसरोवर लिंक रोड़ का निर्माण कर भारत ने एक तरफा कार्रवाई की है। इससे पहले नेपाल कालापानी क्षेत्र पर भारत के दावे का विरोध कर रहा है। भारत ने पिछले दिनों कालापानी क्षेत्र को भारत के नक्शे में दिखाना शुरू किया तो नेपाल ने भारत को दो टूक कहा कि यह नेपाल का हिस्सा है, भारत को तत्काल यहां से अपनी सेना हटा लेनी चाहिए, नेपाल ने यह भी कहा है कि भारत को वह अपनी एक इंच जमीन भी नहीं देगा। भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने बीते शुक्रवार को उतराखंड के पिथौरागढ जिले के धारचूला से लिपुलेख को जोड़ने वाली सड़क का वीडियो कांफ्रेस के जरिए उद्घाटन किया था। चीन की सीमा से सटा हुआ 17,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित लिपूलेख दर्रा इस सड़क के माध्यम से अब उत्तराखंड के धारचूला से जुड़ गया है।
साल 2018 में केपी ओली के नेतृत्व में नेपाल में जब कम्युनिस्ट सरकार का गठन हुआ तभी से इस बात की आशंका प्रकट की जाने लगी थी कि आने वाले दिनों में भारत-नेपाल संबंधों की स्थिति कोई बहुत ज्यादा बेहतर रहने वाली नहीं होगी। पहले कालापानी और अब लिपुलेख दर्रे पर नेपाल की आपत्ति ने उक्त आशंकाओं को सही साबित कर दिया है। लिपुलेख मामले में नेपाल सुगौली संधि ( सन1816 ) का हवाला दे रहा है। उसका कहना है कि वह इस संधि का पूरी तरह से अनुपालन कर रहा है। पूर्व में काली (महाकाली) नदी से इधर के सभी भूभाग लिंपियाधूरा, कालापानी और लिपुलेख नेपाल के भूभाग हैं। कालापानी काली नदी का उद्गम स्थल है। 35 वर्ग किलोमीटर का यह इलाका भी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में आता है। यहां भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के जवान तैनात रहते हैं। यहां भारत, नेपाल और चीन की सीमाएं मिलकर एक त्रिकोण का निर्माण करती है। नेपाल का आरोप है कि भारत और चीन के बीच 1962के युद्ध के दौरान भारत ने अपनी उत्तरी सीमा से आगे बढकर उसके कई इलाकों का इस्तेमाल किया था।
लेकिन, यु़द्ध के बाद भारत ने अन्य जगहों से तो अपनी सैन्य चौकियां हटा ली लेकिन कालापानी से सेना नहीं हटाई। नंवबर 2019 में भारत-नेपाल के बीच विवाद उस वक्त उठ खड़ा हुआ जब भारत ने 2 नंवबर को देश का नया नक्शा जारी किया। इसमें पाक प्रशासित कश्मीर के गिलगिल-बाल्टिस्तान और कालापानी इलाके को भारतीय सीमाओं के अंदर दिखाया गया। नक्शे के जारी होने के बाद पहले पाकिस्तान और फिर नेपाल ने आपत्ति की। हालांकि अब इस सीमा विवाद का हल खोजने की जिम्मेदारी दोनों देशों के विदेश सचिवों को दी गई है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद से भारत ने यहां अपने सैनिक तैनात कर रखे हैं। लेकिन, इससे पहले नेपाल ने कभी इस पर विवाद खड़ा नहीं किया। अब नेपाल कह रहा है कि भारत की एक तरफा कार्रवाई दोनों देशों के बीच सीमा मुद्दों के समाधान के लिए बनी आपसी समझ के खिलाफ है।
पूरे मामले में जो सबसे ज्यादा हास्यास्पद और दिलचस्प पहलु है, वह है, नेपाली नेताओं के बयान। प्रधानमंत्री ओली का कहना है कि उन्हें लिपुलेख में सड़क निर्माण की जानकारी नहीं थी। उनके विदेशमंत्री भी यही कह रहे हैं कि मीडिया रिपोर्टों के जरिये ही उन्हें इस इलाके में सड़क के उद्घाटन की जानकारी मिली। भारत साल 2012 से दुर्गम परिस्थितियों में यहां सड़क का निर्माण कर रहा है और नेपाल का शीर्ष नेतृत्व कह रहा है कि उन्हें भारत के निर्माण की जानकारी ही नहीं थी। क्या नेपाली नेताओं के इस बयान से सहमत हुआ जा सकता है? क्या कोई इस बात को मानने को तैयार होगा कि जो इलाका नेपाल की राजनीति का सबसे ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है, वहां की गतिविधियों से प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री दोनों अनजान हों?
लिपुलेख और कालापानी विवाद के बीच महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इस तरह के विवाद दोनों देशों के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले रिश्तों पर क्या कहीं असर डालेगें। वैसे भी प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के सत्ता में आने के बाद नेपाल पर चीन का प्रभाव लगातार बढा है। ऐसे में ताजा विवाद कहीं न कहीं नेपाल में भारत के हितों को प्रभावित कर सकता है। नेपाल किस कदर चीन के प्रभावक्षेत्र में है, इसे एवरेस्ट पर चीन के 5 जी नेटवर्क परियोजना शुरू करने के उदाहरण से समझा जा सकता है। भारत के साथ लिपुलेख विवाद के अगले ही दिन चीन की सरकारी मीडिया ने माउंट एवरेस्ट की कुछ तस्वीरें जारी कर उसे अपना हिस्सा बताया। जबकि चीन और नेपाल के बीच 1960 में सीमा विवाद के समाधान के लिए हुए समझौते के बाद माउंट एवरेस्ट को दो भागों में बांट दिया गया था। इसका दक्षिणी हिस्सा नेपाल के पास और उत्तरी हिस्सा तिब्बत स्वायत क्षेत्र में आ गया। चूंकि तिब्बत पर चीन का कब्जा है, इस लिए उत्तरी हिस्से को चीन अपना बताता है। हालांकि चीन की इस हरकत का भी नेपाली नागरिकों ने विरोध किया और प्रदर्शनकारियों ने नेपाल सरकार से चीन को सबक सिखाने की मांग की। लेकिन लिपुलेख मामले में भारत को नसीहत देने वाली नेपाल सरकार एवरेस्ट के मसले पर अभी भी चुप्पी साधे हुए है। ओली सरकार ने चीन के इस दुस्साहस पर पंक्तियां लिखे जाने तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। ऐसे में नेपाल और उसके मुखिया के पी ओली की मन:स्थिति को समझा जा सकता है।
पूरे मामले को भारत के नजरीये से देखें तो अहम सवाल यह है कि पिछले आठ साल से भारत की गतिविधियों पर चुप्पी साधे रहने वाला नेपाल अब यकायक तेवर क्यों अख्तियार कर रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि नेपाल इस मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण कर रहा हो। या फिर पूरे मामले में चीन को शामिल कर इसे त्रिपक्षीय मुद्दा बना देना चाहता हो। स्थिति चाहे जो भी हो लिपुलेख मामले में भारत को कूटनीतिक समझ दिखानी होगी। मानसरोवर के रास्ते चीन की सीमा तक भारत की सीधी पहुंच रणनीतिक दृष्टि से तो बड़ी कामयाबी कहा जा सकती है, लेकिन नेपाल में भी भारत को अपने हित नजर अंदाज नहीं करने चाहिए। इस लिए कहीं बेहतर होगा कि चीन को साधने के लिए भारत नेपाल को साथ लेकर चलने की नीति का अनुसरण करे।
एन.के. सोमानी
अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।