पृथ्वी का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक बताते हैं कि पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है। पृथ्वी का तापमान बीते 100 सालों में 1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है। पृथ्वी के तापमान में यह परिवर्तन संख्या की दृष्टि से काफी कम हो सकता है, परंतु इस प्रकार के किसी भी परिवर्तन का मानव जाति पर बड़ा असर हो सकता है। जलवायु परिवर्तन के कुछ प्रभावों को वर्तमान में भी महसूस किया जा सकता है। पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होने से हिमनद पिघल रहे हैं और महासागरों का जल स्तर बढ़ता जा रहा है, परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं और कुछ द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ गया है। पिछले 150 वर्षों में वैश्विक औसत तापमान लगातार बढ़ रहा है। Climate Change
विश्व भर में जलवायु परिवर्तन का विषय सर्वविदित है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में जलवायु परिवर्तन वैश्विक समाज के समक्ष मौजूद सबसे बड़ी चुनौती है एवं इससे निपटना वर्तमान समय की बड़ी आवश्यकता बन गई है। आंकड़े दर्शाते हैं कि 19वीं सदी के अंत से अब तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान लगभग 1.62 डिग्री फॉरनहाइट अर्थात लगभग 0.9 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। इसके अतिरिक्त पिछली सदी से अब तक समुद्र के जल स्तर में भी लगभग 8 इंच की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि यह समय जलवायु परिवर्तन की दिशा में गंभीरता से विचार करने का है।
रोजमर्रा की चीजों में कैमिकल का इस्तेमाल होता है | (Climate Change)
खेतीबाड़ी में रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है और यदि यह आवश्यकता से ज्यादा हो जाए तो कृषि उपज का जहरीला होना लाजिमी है। इसी तरह पशु पालन, डेयरी उद्योग, फूड प्रोसैसिंग, डिब्बाबंद चीजें हैं जो हमारी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करती हैं। इनमें भी कैमिकल का इस्तेमाल होता है जो इन्हें लंबे समय तक इस्तेमाल करने लायक बनाए रखता है। इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कानून भी हैं। लेकिन फिर भी नकली, मिलावटी, दूषित और अपौष्टिक खाद्य पदार्थों के सेवन से लोगों का जीवन संकट में पड़ जाता है। लोग बीमारियों का शिकार होते हैं, उनका स्वास्थ्य खतरे में पड़ जाता है।
इन सबको रोकने के उपाय जरूर हैं, लेकिन उसके लिए विज्ञान के साथ-साथ समाज और कानून की भी भूमिका है। प्रश्न यह है कि जीवन को मौत तक देने वाले मिलावटियों को मृत्यु दंड क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? इसी तरह उद्योगों से निकला विषैला रसायन नदियों और दूसरे जल स्रोतों को जहरीला बनाता है। विज्ञान ने इसके लिए पूरी व्यवस्था की है लेकिन ऐसे उद्योगों को चलने ही क्यों दिया जाता है जिनके लिए न तो वैज्ञानिक तरीकों का कोई अर्थ है और न ही कानून का डर है।
…तो 15 फीसदी प्रजातियां खत्म हो जाएंगी | (Climate Change)
दुनिया के 197 देशों के सहयोग से यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन आॅन क्लाइमेट चेंज यानी यूएनएफसीसीसी पृथ्वी के तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के उद्देश्य को पूरा करने की कोशिश में हर साल 1995 से लेकर अब तक बैठक करता आ रहा है। लेकिन उसके नतीजे क्या निकले ये दुनिया से छिपा नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र ने आशंका जाहिर की है कि अगले पांच साल में पृथ्वी का औसत तापमान 1.5 डिग्री की सीमा को पार कर जाएगा। अगर धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो 15 फीसदी प्रजातियां खत्म हो जाएंगी। धरती जैसे ही 2.5 डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म होगी तो 30 फीसदी प्रजातियां खत्म हो जाएंगी। यूनिवर्सिटी आॅफ केपटाउन, यूनिवर्सिटी आॅफ बफेलो और यूनिवर्सिटी आॅफ कनेक्टिकट ने एक शोध में यह दावा किया है।
संयुक्त राष्ट्र की संस्था विश्व मौसम संगठन ने हाल में अनुमान लगाया कि अब से 2027 के बीच धरती का तापमान 19वीं सदी के मध्य की तुलना में सालाना 1.5 डिग्री से ज्यादा पर पहुंच जाएगा। यह सीमा महत्वपूर्ण है क्योंकि 2015 के पेरिस समझौते में इसी 1.5 डिग्री सेल्सियस औसत तापमान को दुनिया की सुरक्षा के लिए खतरनाक सीमा माना गया था और विभिन्न देशों ने शपथ ली थी कि इस सीमा को पार होने से रोकने के लिए कोशिश करेंगे।
अनेक प्रजातियां लुप्त होंगी | (Climate Change)
तीनों यूनिवर्सिटीज के शोध में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से दुनिया में बड़ा बदलाव आएगा। शोध में कहा गया है कि अनेक प्रजातियां सभी महाद्वीपों और समुद्र के किनारों से लुप्त होंगी। वैश्विक स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के दौरान ग्लेशियर पिघल जाते हैं और समुद्र का जल स्तर ऊपर उठता है जिसके प्रभाव से समुद्र के आस-पास के द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ जाता है। मालदीव जैसे छोटे द्वीपीय देशों में रहने वाले लोग पहले से ही वैकल्पिक स्थलों की तलाश में हैं। तापमान में वृद्धि और वनस्पति पैटर्न में बदलाव ने कुछ पक्षी प्रजातियों को विलुप्त होने के लिये मजबूर कर दिया है।
भीषम गर्मी के प्रकोप से किडनी की कार्यक्षमता भी प्रभावित हो रही है। अंग फेल्योर होने से भी लोगों की जान जा रही है। गर्मी के चलते ही डिहाइड्रेशन से लेकर दिल और फेफड़े की बीमारियां भी हो रही हैं। इसके अलावा प्रसव में होने वाली परेशानियां, विभिन्न तरह की एलर्जी और मानसिक बीमारियों की भी वजह जलवायु परिवर्तन ही है। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार, पृथ्वी का तापमान 1.1 से 1.2 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ चुका है। यह जान लीजिए कि न तो जीवन का अंत है और न ही प्रकृति का। दोनों के बीच सही तालमेल न होने से आपस में संघर्ष होना तय है।
प्रकृति से तालमेल बिठाकर ही जीवन खुशहाल
प्रकृति से जीतना संभव नहीं क्योंकि मनुष्य चाहे कितनी कोशिश कर ले, प्रकृति के बनाए पर्दे को नष्ट नहीं कर सकता, उसमें एकाध छिद्र बेशक कर ले। यदि हम एक साधारण-सी बात समझ लें और वह भी इस उदाहरण के साथ कि हमारे शरीर के अधिकतर अंग अपनी चिकित्सा, उनका बढ़ना या घटना, फिर से नए बन जाना स्वयं कर लेते हैं अर्थात यह एक प्राकृतिक शारीरिक प्रक्रिया है। जब यह है तो प्रकृति क्यों जरूरत से ज्यादा अपने काम में इंसान की दखलंदाजी बर्दाश्त करेगी? इसलिए उसके साथ तालमेल बिठाकर ही जीवन को सुख और खुशहाली से भरा जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए जरूरी है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि औसत 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड पर स्थिर हो जाए। ऐसा करने के लिए 2030 तक ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन डाई आॅक्साइड उत्सर्जन कम कर 40 प्रतिशत तक लाना होगा।
डॉ. आशीष वशिष्ठ , वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (यह लेखक के अपने विचार हैं)