राज्यसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्य में जो राजनैतिक तोड़फोड़ और उठापटक देखने को मिल रही है, उसे एक आदर्श एवं स्वस्थ लोकतन्त्र के लिए उचित नहीं कहा जा सकता। जनता द्वारा चुने गये विधायकों की चरित्र एवं साख इतनी गिरावट से ग्रस्त है कि आर्थिक एवं सत्ता के प्रलोभन में उनको चाहे जब सिद्धान्तहीन बनाया जा सकता है, उनको सिद्धान्तहीनता का रास्ता दिखाने वाले दल एवं वे स्वयं लोकतंत्र के सबसे बड़े दुश्मन हैं। 19 जून 2020 को होने वाले राज्यसभा चुनावों के सन्दर्भ में हो रही उठापटक एवं बदलते राजनीतिक परिदृश्य-मूल्यमानक लोकतंत्र को धुंधलाने एवं उसे कमजोर करने के माध्यम बन रहे हैं। राजनीति में जन-प्रतिनिधियों की आस्थाओं को हिलाने, उनके खरीद-फरोख्त की स्थितियां एवं इस तरह गढ़ी जा रही नयी राजनीतिक परिभाषाएं एक गंभीर चिन्ता का भी सबब है।
मध्यप्रदेश में आये राजनीतिक तूफान ने कांग्रेस की जडंÞे हिला दी। ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा सशक्त स्तंभ कांग्रेस से अलग होकर भाजपा में शामिल हो गया और वहां कमलनाथ की कांग्रेस सरकार का पतन हो गया। लगभग यही स्थिति राजस्थान में दोहराये जाने की संभावनाएं व्यक्त की जा रही थी, लेकिन ऐसा उस समय संभव नहीं हो पाया। लेकिन अब वैसी ही उठापटक की स्थितियां राज्यसभा चुनावों के मध्यनजर राजस्थान में देखने को मिल रही है। 200 विधायकों में से 107 विधायकों के साथ राजस्थान में इस समय कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार कायम है, फिलहाल मजबूत स्थिति के बावजूद राज्यसभा चुनावों को लेकर जोड़तोड़ की राजनीतिक सक्रियता का संकट झेल रही है।
वैसे राजस्थान में कांग्रेस के सामने संकट इसलिये गंभीर नहीं है क्योंकि वहां भाजपा के पास ऐसा कोई चतुर एवं कद्दावर नेता नहीं हैं। वसुधरा राजे को केन्द्रीय उपाध्यक्ष बनाकर दिल्ली बिठा दिया गया है और वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनियां ने अब तक अपने होने का कोई अहसास नहीं कराया है। फिर भी वहां एवं अन्य राज्यों में विधायक बिकाऊ माल बने हैं और उनका भाव लग रहा है। लोकतंत्र में सिद्धान्तों एवं मूल्यों को ताक पर रखकर राजनीति दलों का मुनाफा या धनतन्त्र में तब्दील होना सोचनीय स्थिति है।
राजस्थान से तीन राज्यसभा सदस्य चुने जाने हैं। एक प्रत्याशी को विजयी होने के लिए 51 प्रथम वरियता वोट चाहिए। कांग्रेस के दो सदस्य आसानी से जीत सकते हैं मगर यहां भी एक तीर से दो निशाना साधने की विपक्षी भाजपा की राजनीतिक कोशिश उग्रतर बनी हुई है। हर तरह के दांव चलाये जा रहे हैं। कुछ कांग्रेसी विधायक मध्यप्रदेश की भांति अगर यहां भी इस्तीफा देने को राजी हो जायें तो सरकार भी गई और दो राज्यसभा सीटें भी हाथ आईं, इस तरह की संभावनाएं वहां के राजनीतिक परिवेश में व्याप्त हंै। इन स्थितियों ने कांग्रेस के सम्मुख बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। इसीलिए कांग्रेस पार्टी अपने ही शासित राज्य में अपने विधायकों को एकजुट रखने के लिये तरह-तरह के प्रयोग कर रही है, सावधानियां एवं सर्तकताएं बरती जा रही हैं ताकि कांग्रेसी विधायकों में सेंधमारी न हो।
मध्यप्रदेश हो या गुजरात अथवा राजस्थान या अन्य राज्य राज्यसभा चुनावों की परिप्रेक्ष्य में विधायकों की खरीद-फरोख्त, तोड़फोड़ या राजनैतिक उठापटक के जो दृश्य उभर रहे हंै उसके पीछे कोई सिद्धान्त न होकर स्वार्थ और निजी हित है। इस तरह निजी लाभ के लिये जनता के चुने प्रतिनिधियों के मोलभाव की संस्कृति का पनपना या पहले से चला आना एक गंभीर अलोकतांत्रिक स्थिति है, इस राजनीतिक अराजकता पर अंकुश लगाया जाना जरूरी है। यू जो राजनीति के हमाम में सब कुछ जायज है, लेकिन कब तक? दल बदलने वाले विधायकों को न लोकतंत्र की परवाह है, न जनमत का डर क्योंकि उनके लिये धनबल बड़ा है।
यह धनबल राजनीति में तरह-तरह के त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण परिदृश्य उपस्थित करता रहा है। गुजरात में केवल राज्यसभा की एक सीट की खातिर अभी तक सात कांग्रेसी विधायक इस्तीफा दे चुके हैं। इस राज्य से चार राज्यसभा सदस्य चुने जाने हैं और इन विधायकों के इस्तीफे की वजह से विपक्षी पार्टी केवल एक ही सांसद चुन सकेगी जबकि सत्तारूढ़ भाजपा के तीन सांसदों के चुनने की सारी तैयारियां हो चुकी है।
राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं गुजरात में राजनीतिक मूल्यों का टूटना, जिसने यह साबित किया कि सत्ता के मोह एवं राजनीति में सब संभव है। प्रश्न है कि आखिर कांग्रेस अपने ही विधायकों को क्यों नहीं संभाल पा रही है? वर्ष 2014 के बाद से एक राजनीतिक ताकत के रूप में कांग्रेस तेजी से सिकुड़ रही है और जल्द ही यह अतीत का हिस्सा बन जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं है। कांग्रेस का ढांचा भले ही किसी वैचारिक लड़ाई के लिए उपयुक्त नहीं रह गया है, लेकिन लोकतंत्र में मूल्यों एवं सिद्धान्तों की लड़ाई तो वह लड़ ही सकती है। लेकिन किस मुंह से वह यह लड़ाई लड़े, क्योंकि सिद्धान्तविहीन राजनीति के बीज तो उसी ने रोपे हंै, अब स्वयं उन बीजों के फल भोग रही है, उसकी दूसरी लाइन के नेताओं के लिए सत्ता में बने रहना, सत्ता को बचाना और अपनी खोई जमीन हासिल करना ज्यादा बड़ी प्राथमिकता एवं बड़ी चुनौती है।
हमने मध्यप्रदेश, कर्नाटक और उससे पहले बिहार में जो राजनीतिक उलटफेर के दृश्य देखें, उससे एक बात साफ हो गई कि भारतीय राजनीति को लेकर कोई भी निश्चित नीति एवं प्रयोग स्थिर नहीं है। आजादी के सात दशक बाद भी भारत की राजनीति विविध प्रयोगों से ही गुजर रही है, मूल्यों एवं सिद्धान्तों की राजनीति के लिये भारत की भूमि आज भी बंजर बनी हुई है, आखिर कब तक राजनीति में यह मूल्यहीनता हावी रहेगी। गौर से देखें तो राज्यसभा चुनावों के परिपाश्र्व में बन एवं बिगड़ रहे राजनीति परिदृश्य प्रचंड उथल-पुथल का संकेत दे रहे हैं।
अब तो लोकतंत्र में अडिग विश्वास रखने वाले भी राजनीतिज्ञों के चरित्र एवं साख देखकर शंकित हो उठे हैं। क्या होगा? कौन सम्भालेगा इस देश के मूल्यों की राजनीति को? इन विकट होती स्थितियों के बीच चुनाव आयोग को अपनी निष्पक्ष एवं धारदार भूमिका निभानी होगी। अब समय आ गया है कि इन चुनावों में भी आचार संहिता लागू की जाये। चुनाव आयोग को संज्ञान लेना होगा और चुनाव घोषित होने के बाद मतदान के दिन तक विधानसभा के संख्या बल के कम होने पर प्रतिबन्ध लगाना होगा।
लोकतांत्रिक प्रणाली और विधायिका से लोगों का विश्वास उठने लगा है। अगर यही स्थिति रही और राजनैतिक नेतृत्व ऐसा ही आचरण करता रहा तो सारी व्यवस्था से ही विश्वास उठ जाएगा। यह प्रश्न आज देश के हर नागरिक के दिमाग में बार-बार उठ रहा है कि किस प्रकार सही प्रतिनिधियों को पहचाना जाए, कैसे राजनीति को स्वार्थ एवं सत्ता की बजाय सेवा एवं सौहार्द का माध्यम बनाया जाये। कैसे राजनीति में जनप्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त की स्थितियों पर नियंत्रण स्थापित होे। भारत में अब भी लोकतंत्र की प्रभावी एवं उपयुक्त शासन प्रणाली है, यही सोच एवं संकल्प की एक छोटी-सी किरण है, जो सूर्य का प्रकाश भी देती है और चन्द्रमा की ठण्डक भी। और सबसे बड़ी बात, वह यह कहती है कि अभी सभी कुछ समाप्त नहीं हुआ। अभी भी सब कुछ ठीक हो सकता है। एक दीपक जलाकर फसलें पैदा नहीं की जा सकतीं पर उगी हुई फसलों का अभिनंदन दीपक से अवश्य किया जा सकता है।
-ललित गर्ग
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