ममता का अलोकतांत्रिक व्यवहार

Undemocratic behavior of Mamta

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इन दिनों गुस्से में दिखाई देती है। चुनावी बेला में अपने मतदाताओं को पाले में रखने के लिये ममता दीदी जो मन में आ रहा है, वो बोले जा रही हैं। भाषा व पद की मर्यादा को वो कदम-कदम पर तार-तार कर रही हैं। चूंकि भाजपा फिलवक्त पश्चिम बंगाल में ममता दीदी की पार्टी तृणमूल को कड़ी टक्कर दे रही है, ऐसे में उनके निशाने पर बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। ताजा मामला फेनी चक्रवाती तूफान से जुड़ा है। प्रधानमंत्री ने ओडिशा के मुख्यमंत्री के साथ तूफान से प्रभावित क्षेत्रों का हवाई सर्वेक्षण किया। ओडिशा की मदद को 1000 करोड़ रुपए का ऐलान भी प्रधानमंत्री ने किया। चूंकि ओडिशा के बाद चक्रवाती तूफान को पश्चिम बंगाल के तटों से टकराना था, लिहाजा आपात बैठक और हालात की समीक्षा के मद्देनजर प्रधानमंत्री मोदी ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को फोन किया। मुख्यमंत्री ने फोन रिसीव नहीं किया। बाद में सफाई दी कि वह खड़गपुर में थीं, लिहाजा फोन पर बात नहीं हो सकी।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने संविधान की मर्यादा को तार-तार करते हुए बयान दिया कि मोदी एक्सपायरी बाबू हैं। मैं उन्हें प्रधानमंत्री नहीं मानती। एक्सपायरी पीएम से क्या बात करूं। यह कोई सामान्य या सियासी बयान नहीं है। यह देश के संविधान का सरासर उल्लंघन है और ममता बनर्जी का राजनीतिक अहंकार भी है। यह भारत में ही संभव है। यदि किसी अन्य लोकतांत्रिक और संघीय ढांचे वाले राष्ट्र में एक मुख्यमंत्री ने इतना अतिक्रमण किया होता, तो उसकी सरकार को बर्खास्त तक किया जा चुका होता! चूंकि हमारे देश में आम चुनाव चल रहे हैं, लिहाजा बंगाल सरकार पर केंद्र सरकार कोई संवैधानिक कार्रवाई नहीं कर सकेगी, लेकिन ममता बनर्जी का प्रधानमंत्री को इस तरह नकारना हमारी समूची व्यवस्था को चुनौती देना है। बेशक आम चुनाव से पहले ममता समेत विपक्ष के प्रमुख नेताओं ने नारा दिया था मोदी भगाओ, देश बचाओ। इस राजनीतिक नारे की आड़ में या उससे प्रभावित होकर ममता बनर्जी ने संवैधानिक संबंधों की गरिमा पर कालिख पोतने का काम किया है। इससे केंद्र-राज्य संबंध भी बेमानी लगते हैं।

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तानाशाही का यह कोई पहला वाकया नहीं है, इससे पहले भी राज्य में अपनी मनमानी करती आई है। हमेशा मुस्लिम तुष्टिकरण और हिंदू विरोध की राजनीति करने वाली ममता बनर्जी को अपनी बुराई और आलोचना कतई बर्दाश्त नहीं है। ममता ने अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को चुप कराने का काम किया है। ममता बनर्जी के अलोकतांत्रिक व्यवहार और कार्यशैली से सवाल उठता है कि क्या ममता दी अपने संवैधानिक दायित्वों से विमुख हो रही हैं? क्या चुनाव और संवैधानिक हैसियत में कोई अंतर नहीं किया जाना चाहिए?

भाजपा ने अपने काडर को लामबंद और सक्रिय कर उस मुकाम तक पहुंचा दिया है, जहां वह ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस को स्पष्ट चुनौती दे रहा है। भाजपा ने इन चुनावों में ह्यमिशन 23 का लक्ष्य रखा है। यानी बंगाल की कुल 42 लोकसभा सीटों में से 23 पर जीत हासिल करने का लक्ष्य! उसका नतीजा यह है कि बंगाल के पांचों चरणों के मतदान बेहद हिंसक रहे हैं। बूथ लूटने की शिकायतें सामने आई हैं। आपसी मारपीट, हाथापाई की नौबत आई है। कुछ मौतों की भी खबर है। यह माहौल इसलिए भी है, क्योंकि दोनों पक्षों में धु्रवीकरण अत्यंत तीव्र है। मसलन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सड़क से गुजरते हुए जय श्रीराम के नारे सुने, तो अपना काफिला रोक दिया और कार से उतर कर नारेबाजों पर गुस्सा उतारा। कई ऐसे नारेबाजों को जेल तक में ठूंस दिया गया है।

चुनावी मौसम में प्रधानमंत्री मोदी ने जनसभाओं में यह मुद्दा उठाकर ममता दी को चुनौती दी कि वह उन्हें जेल में डालें। बीते कई वर्षों से ऐसा साफ नजर आ रहा है कि ममता बनर्जी ने राज्य में विपक्ष को खत्म करने की योजना बना रखी है। उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के गुंडे कई वर्षों से सीपीएम और बीजेपी के कार्यकतार्ओं के पीछे पड़े हुए हैं। यहां तक कि उनकी हत्या करवा रहे हैं। पंचायत चुनाव में जो कुछ हुआ वह सबके सामने है। एक महिला को ममता की पार्टी के गुंडों ने निर्वस्त्र तक कर दिया। मतदान केंद्र पर जाने से उन्हें रोका गया। बूथों पर कब्जा कर लिया गया। क्या यह सब राज्य की मुखिया की इजाजत के बिना हो सकता है? कलकत्ता के पुलिस कमीश्नर को पकड़ने गयी सीबीआई टीम के साथ पश्चिम बंगाल पुलिस और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने क्या हाल किया था, वो किसी से छिपा नहीं है। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के मन में लोकतंत्र, व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों, सार्वजनिक संस्थाओं तथा अदालत तक के लिए रत्ती भर भी आदर का भाव नहीं है। सूबे में उन्हें परमप्रतापी नेता की हैसियत हासिल है लेकिन इस हैसियत का रिश्ता उनपर लोगों के प्रेम से कम और उनके कामकाज के तानाशाही रवैए से ज्यादा है। ममता बनर्जी ने परमप्रतापी होने की अपनी छवि भय के सहारे कायम की है। चंद अवसरवादियों और कुछ भरोसे के काबिल माने जाने वाले लोगों को छोड़ दें तो बाकी सबके साथ उन्होंने सख्ती और दमन का तरीका ही अपनाया और इस तरह अपने प्रति भय का माहौल तैयार किया है।

बंगाल में भय और धमकी का माहौल जारी है लेकिन किसी को इजाजत नहीं कि वो इसके बारे में बात तक कर सके। विश्वविद्यालय के एक छात्र ने ऐसी हिम्मत की थी। यह 2012 का वाकया है जब तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमों ममता बनर्जी मुख्यमंत्री के रुप में एकदम नई थीं। उस छात्र ने सवाल-जवाब के फार्मेट में बने एक टीवी कार्यक्रम में ममता बनर्जी से तीखा प्रश्न पूछ लिया. बस फिर क्या था- ममता बनर्जी ने झट से माइक्रोफोन फेंका और मंच से यह कहते हुए हंगामा खड़ा कर दिया कि सवाल पूछने वाली स्टूडेन्ट माओवादी है। उन्होंने कार्यक्रम में शामिल हुए नौजवान छात्रों की उस छोटी सी जमात को माओवादी, एसएफआई और सीपीएम का कार्यकर्ता करार दिया. उनकी तुनकमिजाजी और घड़ी-क्षण बर्ताव बदलने की आदत बिल्कुल जाहिर सी है, लेकिन कभी भी उन्हें असहिष्णु नेता नहीं करार दिया गया। आज भी उनकी छवि पर यह लेबल चस्पा नहीं हुआ है।

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को ध्यान रहना चाहिए कि पश्चिम बंगाल भारत गणराज्य का ही एक हिस्सा है और नरेंद्र मोदी फिलहाल उसके प्रधानमंत्री हैं। पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत चंद्रशेखर कहा करते थे कि प्रधानमंत्री कभी भी कार्यवाहक नहीं होता। वह प्रधानमंत्री तब तक रहता है, जब तक नया प्रधानमंत्री कार्यभार न संभाल ले। ऐसे में ममता के एक्सपायरी पीएम की परिभाषा क्या माननी चाहिए? यह कुछ और नहीं, राजनीतिक अराजकता है और ममता की अपनी चुनावी कुंठा है। यदि भाजपा बंगाल में 5-7 सीटें भी जीत जाती है, तो अंतत: वह नुक्सान तृणमूल कांग्रेस का ही होगा, क्योंकि कांग्रेस और वाममोर्चा की चुनौतियां बेहद सीमित हैं। राजनीतिक विशलेषकों के अनुसार, बंगाल में माकपा की तुष्टीकरण और दमनकारी राजनीति का जिस तरह से अंत हुआ था, ठीक उसी तरह ममता बनर्जी के राजनीतिक किले के ढहने का समय आ चुका है। वास्तव में ममता को लोकसभा चुनाव में अपनी करारी शिकस्त की आवाज सुनाई देने लगी है, जिससे वह लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या करके तानाशाही का व्यवहार कर रही है।

शायद ममता बनर्जी को लगता है कि उनकी ज्यादतियों पर लोगों का ध्यान नहीं जाएगा, उन्हें संदेह का लाभ मिलता रहेगा। वे मानकर चलती हैं कि बस हल्की-फुल्की आलोचना होगी जो कमियों को छुपाती ज्यादा और उजागर कम करती है। अपने इसी विश्वास के कारण ममता बनर्जी ने बीते वक्त में लगातार मान-मूल्यों और आचार-व्यवहार की बनी-बनायी परिपाटियों का बड़ी बेहयाई से उल्लंघन किया है- कुछ ऐसा बर्ताव किया है कि उसके आगे बिगड़ैल तानाशाह भी पानी भरते नजर आएं। इस कारण ममता बनर्जी का यह दावा कि वो लोकतंत्र, संविधान, संघीय ढांचे तथा देश के संस्थानों को बचाने में लगी हैं- सिवाय एक विडंबना के कुछ और नहीं।
शकील सिद्दीकी

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