यूक्रेन को लेकर रूस और पश्चिम के बीच खींचतान जारी है। यह शीत युद्ध के दौर के भू-राजनीतिक तनाव की याद दिला रहा है। हालांकि, बड़ी ताकतें जहां यूक्रेन के भविष्य को लेकर उलझी हुई हैं, वहीं यूक्रेनवासियों की आवाज बिल्कुल किनारे कर दी गई है। फिलहाल यूक्रेन जंग का एक ऐसा मैदान बन गया है, जो आने वाले दिनों में यूरोप के सुरक्षात्मक ढांचे को आकार दे सकता है। इसीलिए, पश्चिम और रूस के बीच तनाव महज यूक्रेन के भविष्य को लेकर नहीं है, बल्कि इससे निहितार्थ कहीं अधिक गहरे हैं, क्योंकि इससे शीत युद्ध के बाद की पूरी भू-राजनीतिक संरचना ढहती दिख रही है। वाशिंगटन ने दावा किया है कि यूक्रेन पर हमला करने के लिए जरूरी सैन्य-संसाधन का 70 फीसदी साजो-सामान रूस ने सीमा पर तैनात कर दिया है। उसने यह भी चेतावनी दी है कि रूसी हमले की सूरत में 50 हजार से अधिक नागरिक और 25 हजार के करीब यूक्रेनी सैनिक मारे जा सकते हैं।
रूस ने इस दावे को ‘उन्माद और खौफ फैलाने वाला’ बताया और इसे पूरी तरह से खारिज कर दिया है। इसी बीच टकराव की आशंकाओं के बीच अचानक एक बड़ी कूटनीतिक पहल करते हुए फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों मॉस्को पहुंचे। लगभग उसी समय जर्मन चांसलर ओलफ शोल्ज ने वॉशिंग्टन जाकर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से मुलाकात की। जर्मन चांसलर के अमेरिका दौरे का मकसद हालांकि इस धारणा को गलत साबित करना था कि यूक्रेन के मसले पर नाटो में किसी तरह का आंतरिक मतभेद है या यह कि जर्मनी इस मसले पर आगे बढ़ने में हिचक रहा है। मुलाकात के बाद बाइडन और शोल्ज दोनों ने एकजुटता दिखाते हुए कहा भी कि इस मसले पर वे सब एक साथ हैं। मगर इस एकता प्रदर्शन के बावजूद सबका ध्यान मॉस्को में हो रही पुतिन और मैक्रों की मुलाकात पर ही लगा रहा। यूक्रेन सीमा पर एक लाख तीस हजार सैनिकों का जमावड़ा करने के बावजूद रूस बार-बार कह रहा है कि यूक्रेन में सैन्य दखल देने का उसका कोई इरादा नहीं है।
फ्रांस पिछले कुछ समय से रूस के साथ यूरोप के संबंधों को नए सिरे से गढ़ने की वकालत कर रहा है और यूरोपीय संघ से कह रहा है कि वह वाशिंगटन के चश्मे से मॉस्को को न देखे। मगर नाटो की मुख्यत: अमेरिका पर निर्भरता और आगामी रुख को लेकर यूरोपीय संघ के अंदरूनी मतभेदों के कारण ब्रसेल्स (यूरोपीय संघ का मुख्यालय) सिर्फ कूटनीतिक तरीकों से ही जमीनी हालात को प्रभावित कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में यूक्रेन पर चर्चा करने के लिए हुए प्रक्रियागत वोट से भारत ने दूरी बरती थी। तर्क दिया गया था कि भारत की रुचि ऐसा समाधान खोजने में है, जो तनाव को तत्काल कम कर सके। यह समाधान सभी देशों के सुरक्षा हितों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाए और दीर्घकालिक शांति व स्थिरता सुनिश्चित करे।
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