प्रियंका में इंदिरा की छवि भुनाने की कोशिश

Trying to redeem Indira's image in Priyanka

आखिरकार आम चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस ने अपना आखिरी सियासी दांव खेलते हुए तुरुप का पत्ता चल दिया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी बहिन प्रियंका गांधी को अहम् जुम्मेबारी सौंपते हुए कांग्रेस महासचिव पद से अलंकृत कर दिया। प्रियंका को सीधी जिम्मेदारी देने की मांग बहुप्रतिक्षित थी, जो अब पूरी हुई है। दरअसल कांग्रेसी ही नहीं देश की आम जनता उनमें इंदिरा गांधी की छवि देखती है। इस लिहास से कहा जा सकता है कि कांग्रेस इस कल्पित छवि को संजीवनी मानते हुए लोकसभा चुनाव में भुनाने जा रही है। उन्हें फिलहाल पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गई है। वहीं पश्चिमी उप्र का प्रभारी ज्योतिरादित्य सिंधिया को बनाया गया है। ध्यान रहे उप्र में 80 लोकसभा सीटें हैं। यहीं से चुने हुए प्रतिनिधियों ने अधिकांश समय केंद्रीय सत्ता का संचालन किया है। पूर्वी उप्र वह इलाका है, जहां ब्राह्मण मतदाता बड़ी संख्या में हैं। लिहाजा प्रियंका के आने से सपा-बसपा गठबंधन और भाजपा को झटका लग सकता है। इस क्षेत्र में 30 सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबले की संभावना बढ़ गई हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उप्र में 21 सीटें जीती थी, जिनमें से ज्यादातर पूर्वी उप्र से थीं। यहां ब्राह्मण, कुर्मी, गैर जाटव दलित एवं महादलित और मुसलमानों का जातिगत समीकरण कांग्रेस के हित में रहा था। इस नाते कहा जा सकता है कि राहुल की यह रणनीति एक चतुराई भरी पहल हैं।

हालांकि प्रियंका गांधी को दांव पर लगाने के अपने तरह के संकट भी हैं। इससे एक तो यह संदेश जाएगा कि आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों से लोहा लेने वाली और 55 साल तक देश में शासन करने वाली कांग्रेस भीतर से खोखली हो चुकी है। उसकी राजनीतिक समझ और पहुंच महज एक परिवार तक सिमट कर रह गई है। शायद इसीलिए नरेंद्र मोदी ने इस नियुक्ति पर तंज कसते हुए कह भी दिया कि ह्यकुछ लोगों के लिए परिवार ही पार्टी है, जबकि हमारे लिए पार्टी ही परिवार है। हमारा विरोध कांग्रेस की संस्कृति से है और कांग्रेस मुक्त देश का मतलब कांग्रेस मुक्त संस्कृति से है।ह्य मोदी कुछ भी कह लें, किंतु यह कांग्रेस का सनातन सत्य है कि अंतत: गांधी परिवार ही कांग्रेस की वह धुरी है, जिसकी चुंबकीय शक्ति से कांग्रेस जिस रूप में भी है, अखिल भारतीय बनी हुई हैै। मोदी कह भले ही रहे हैं कि हमारे लिए पार्टी ही परिवार है, लेकिन हम जानते हैं कि भाजपा को अखिल भारतीय जनाधार देने वाले लालकृश्ण आडवाणी जैसे नेताओं की क्या दुर्गति पार्टी के भीतर हो रही है ? हालांकि राहुल ने प्रियंका को महासचिव जरूर बना दिया है, लेकिन उनका क्षेत्र पूर्वी उप्र तक सीमित कर दिया है।

यही हश्र सिंधिया को पश्चिमी उप्र तक सीमित करके किया गया है। साफ है, कांग्रेस प्रियंका की लोकप्रियता को तो भुनाना चाहती है, परंतु उन्हें राहुल के समकक्ष खड़ा करना नहीं चाहती ? राहुल ने भी नियुक्ति पर जो प्रतिक्रिया दी है, उससे भी यही भाव झलकता हैं। उन्होंने कहा है कि प्रियंका और ज्योतिरादित्य दोनों ताकतवर एवं युवाओं के चहेते नेता हैं। हम इनके जरिए उप्र की राजनीति बदल देना चाहते हैं। साफ है, इनका कार्यक्षेत्र उप्र तक सीमित रहेगा, जिससे इनकी छवि अखिल भारतीय लोकप्रियता हासिल नहीं करने पाए ? यह मंशा राहुल की ही नहीं सोनिया गांधी की भी है। इसीलिए एक दशक से भी ज्यादा समय से प्रियंका को प्रत्यक्ष राजनीति में लाने की मांग को नजरअंदाज किया जाता रहा है।

अब राहुल गांधी लगातार एक परिपक्व नेता के रूप में पेश आ रहे हैं। हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में कांग्रेस की विजय के बाद उनका उत्साह और आत्मबल भी बढ़ा हैं। इसीलिए उन्होंने प्रियंका और ज्योतिरादित्य को एक निर्णायक जुम्मेबारी सौंपी हैं। इस रणनीति के तहत एक चुनौती उप्र में 14 प्रतिशत ब्राह्मण मतदाताओं को कांग्रेस की ओर आकर्शित करना है, तो वहीं भाजपा से जुड़ी जो अन्य ऊंची व गैर जाटव दलित जातियां हैं, उनको भी लुभाना हैं। साफ है, पार्टी एक साथ भाजपा की लोकप्रियता में सेंध लगाने के साथ सपा-बसपा गठबंधन की जातीय धार को भी कुंद कर देना चाहती है। यदि कांग्रेस इस रणनीति के तहत अपना छिटक गया मतदाता जुटा लेती है तो वह उप्र में बड़ी जीत हासिल कर लेगी। अन्यथा त्रिकोणीय मुकाबले में भाजपा लाभ उठा ले जाएगी।

उप्र में दलित मुसलमान व ब्राह्मण कांग्रेस के परंपरागत मतदाता माने जाते हैं। किंतु 1980 के बाद से यहां जिस तरह की सोशल इंजीनियरिंग चली है, उसके चलते कांग्रेस का यह परंपरागत वोट बिखर गया। नतीजतन कांग्रेस 1980 से ही उप्र में पराजय का सामना कर रही है। यहां दलित बसपा, मुस्लिम एवं यादव सपा और ब्राह्मण, वैश्य व क्षत्रीय भाजपा के खेमे में हैं। बहुजन समाज पार्टी के साथ दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम जुड़ जाते हैं तो वह बहुमत हासिल कर लेती है। बदले राजनीतिक परिदृश्य में ब्राह्मण भाजपा की बजाय कांग्रेस की तरफ झुक सकते हैं। उत्तर प्रदेश में चुनावी विश्लेशकों का मानना है कि यहां जो अति पिछड़े वर्ग का वोट बैंक है, वह बड़ी संख्या में होने के बावजूद जातियों में उपजातीय विभाजन के कारण एकजुट नहीं है। बावजूद वह शत-प्रतिशत मतदान करता है। उसे जो भी पार्टी जीतती दिखती है, उसे वह वोट दे देता है। ऐसे में यदि कांग्रेस जीत का वातावरण रच देती है, तो यह वोट उसकी झोली में गिर सकता है ?

प्रदेश में ये जाति समूह आखिरी पंक्ति के मतदाता माने जाते हैं, जबकि पहली पंक्ति के मतदाता ब्राह्मणों को माना जाता है। उप्र में ब्राह्मणों के वोट करीब 14 फीसदी हैं, लेकिन ये अपने प्रभाव और वाक्चातुर्य से भी दल विशेश के लिए वोट डलवाने में अहम् भूमिका निभाते हैं। 2007 में मायावती इन्हीं ब्राह्मणों और इनके बूते अति पिछड़ों का वोट मिलने के कारण ही स्पश्ट बहुमत लाने में कामयाब हुई थीं। लेकिन दलितों को कथित तौर से बड़े पैमाने पर एससी एवं एसटी कानून के तहत मामले दर्ज करने की छूट देने के कारण ब्राह्मणों का बसपा से मोहभंग हो गया और वे 2012 के चुनाव में कांग्रेस व भाजपा की पतली हालत देख सपा का रुख कर गए थे। वोट के इन्हीं बनते-बिगड़ते समीकरणों के चलते कांग्रेस 30 साल से उप्र में सत्ता से बाहर है। 2014 के लोकसभा चुनाव में तो वह केवल अमेठी और रायबरेली तक सिमट गई थी। इसलिए कांग्रेस को उप्र में जीवित करने के लिए प्रियंका को करिश्माई नेतृत्व की चाहत के रूप में उतारा गया है। प्रियंका उप्र में बेहद लोकप्रिय हैं, यहां की जनता उनमें इंदिरा गांधी की छवि निहारती है।

कांग्रेस ने प्रियंका को चुनावी संग्राम में उतार जरूर दिया है, लेकिन जरूरी नहीं कि कांग्रेस की बहाली में वे सफल हो ही जाएं ? दरअसल कांग्रेस उप्र में आज जिस बद्हाली में है, उसका कारण मंडल और मंदिर की राजनीति में आए उफान रहे हैं। लिहाजा एक तरफ जातिगत राजनीति के द्वारा दलित और पिछड़े नेतृत्व का उभार आया, तो दूसरी तरफ बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का ध्रुवीकरण कर भाजपा को सत्ता के केंद्र में ला दिया। गोया, कांग्रेस के हाथ में लंबे समय तक ऐसा जातिगत समीकरण नहीं रहा, जिससे वह जीत का सेहरा सिर पर बांध सके। अब इसी मकसद पूर्ति के लिए प्रियंका को राजनीति में लाकर पार्टी ने अंतिम तुरुप का पत्ता चल दिया है। यदि कांग्रेस इस दांव को खेलने में नाकाम होती है, तो प्रियंका की भविश्य की राजनीति पर ग्रहण लग जाएगा और यदि वे परंपरागत वोट बैंक को एकजुट करने में सफल होती है तो वे कांग्रेस की खेवनहार बन जाएंगी। नतीजतन कांग्रेस के भविश्य की राजनीति राहुल के साथ-साथ प्रियंका के ईद-र्गिद भी घूमने लग जाएगी। लेकिन प्रियंका का सक्रिय राजनीति में आना कांग्रेस के लिए कितना लाभदायी होता है, यह फिलहाल भविश्य के गर्भ में है।

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