रूस की आड़ में चीन को साधने की कोशिश

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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ट ट्रंप ने इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फोर्सेस संधि (आइएनएफ) से हटने की घोषणा करके दुनिया को सकते में डाल दिया है। ट्रंप का कहना है कि रूस ने मध्यम दूरी के हथियार बनाकर इस संधि का उल्लंघन किया है, इस लिए अमेरिका इसे मानने के लिए बाध्य नहीं है। ट्रंप ने गत फरवरी माह में घोषणा की थी कि रूस द्वारा संधि का लगातार उल्लंघन किए जाने के कारण अमरीका इससे अलग हो रहा है। ट्रंप के इस निर्णय पर रूस ने भी तल्ख प्रतिक्रिया देते हुए संधि से अलग होने की घोषणा कर दी थी। साथ ही राष्ट्रपति पुतिन ने यूरोपीय देशों को इस बात की चेतावनी दी कि किसी भी देश ने अमेरिका की परमाणु मिसाइलों को अपने देश में जगह दी तो उसे निशाना बनाया जाएगा। शीत युद्ध के बाद अमेरिकी-रूस संबंधों में तनाव बढ़ाने वाली यह अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई मानी जा रही है।

शीत युद्व के अंतिम चरण में संयुक्त राज्य अमेरिका और तात्कालिक सोवियत संघ के बीच बढ़ते तनाव को कम करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति रॉनल्ड रीगन और सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोबार्चेव ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए थे। 8 दिसंबर 1987 को दोनों नेताओं के हस्ताक्षर के बाद अस्तित्व में आई इस संधि में दोनों पक्षों ने भविष्य में मध्यम व छोटी दूरी की मिसाइलों का निर्माण न करने का संकल्प लिया था। संधि की सबसे अहम बात यह थी कि इसके लागु होने के अगले दस सालों के दौरान 2700 से ज्यादा बैलिस्टिक परमाणु मिसाइलों को नष्ट किया गया था। उस वक्त सोवियत संघ ने 1846 तथा अमेरिका ने 846 हथियार नष्ट किये थे। यद्यपि आइएनएफ असीमित अवधि की संधि है, लेकिन छह महीने का नोटिस देने के बाद कोई भी पक्षकार इससे अलग हो सकता है। टंज्प ने इसी आधार पर संधि से अलग होने का निर्णय किया है। संधि खत्म होने को लेकर अमरीका रूस को जिम्मेदार ठहरा रहा है। उसका कहना है कि रूस सालों से ऐसे हथियार विकसित कर रहा है, जो इस संधि का उल्लंघन है।

शीत युद्व के दौरान सोवियत संघ ने अमेरिकी समर्थक पश्चिम यूरोपिय देशों पर एसएस20 मिसाइल तैनात कर अमेरिकी खेमे में हलचल पैदा कर दी थी। इन मिसाइलों की मारक क्षमता 4700-5500 किमी थी। देखा जाए तो एक प्रकार से पूरा पश्चिमी यूरोप रूसी मिसाइलों की जद में था। सोवियत संघ की इस उत्तेजक कार्रवाई के प्रतिउत्तर में अमेरिका ने भी रूसी मिसाइलों को टारगेट करती अपनी मिसाइले तैनात कर दी। दोनों महाशक्तियों के बीच तनाव इस कदर बढ़ चुका था कि दुनिया पर तीसरे विश्व युद्व के बादल मंडराने लगे थे।

यूरोप के नेताओं को भी इस बात का अहसास हो चुका था कि अगर युद्व हुआ तो परमाणु संघर्ष यूरोपीय तबाही का कारण बन जाएगा। नतीजतन यूरोप के प्रयास से अमेरिका और सोवियत नेताओं के बीच बातचीत का दौर शुरू हुआ। छह वर्षों तक चली मेराथन दौर की वार्ताओें के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका व सोवियत संघ इस संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए राजी हो गए। 8 दिसंबर 1987 को अमेरिकी राष्ट्रपति रॉनल्ड रीगन और सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोबार्चेव ने जब इस संधि पर हस्ताक्षर किए तो दुनिया ने राहत की सांस ली। 27 मई 1988 को संयुक्त राज्य अमेरिका की सीनेट से स्वीकृत होने के बाद इसे 1 जून 1988 को लागू कर दिया गया। इस संधि के तहत 311 मील से 3420 मील रेंज वाली जमीन आधारित क्रूज मिसाइल या बैलिस्टिक मिसाइल को प्रतिबंधित किया गया था। जबकि हवा एवं समुद्र से प्रक्षेपित की जाने वाली मिसाइलों को इससे बाहर रखा गया है। अब अमेरिका के संधि से हटने और रूस द्वारा इसको निलंबित किए जाने के बाद दशकों से परमाणु युद्ध पर लगी रोक हट जाएगी और दुनिया में एक बार फिर परमाणु युद्ध का खतरा मंडराने लगेगा।

सच तो यह है कि आइएनएफ संधि ने पश्चिमी देशों पर सोवियत संघ के परमाणु हमले के खतरे को तो खत्म कर दिया था लेकिन यह संधि चीन जैसी बड़ी सैन्य शक्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाती है, जिसके कारण चीन हल्की व मध्यम दूरी की मिसाईले बनाने में कामयाब हो गया । ऐसे में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते दबदबे को देखते हुए अमेरिका को लग रहा है कि उसे भी अपनी मिसाइल क्षमता में इजाफा करना चाहिए। लेकिन आइएनएफ संधि के चलते अमेरिका ऐसा नहीं कर पा रहा था।
अमेरिकी रक्षा विभाग की रिर्पोट में चीनी खतरे से अगाह करते हुए कहा गया है कि यदि चीन को संधि के दायरे में लाया जाता है तो उसकी 95 फीसदी मिसाइलें इसका उल्लंघन करने वाली साबित होंगी।

इस रिर्पोट के बाद ट्रंप पर इस बात का दबाव था कि या तो अमेरिका इस संधि से हट जाए या इसमें चीन को भी शामिल किया जाना चाहिए। संधि से हटने की बड़ी वजह यही है कि राष्ट्रपति ट्रंप आइएनएफ की जगह उसी से मिलती जुलती व्यापाक विस्तार क्षेत्र वाली दूसरी संधि चाहते हैं, जिससे उन देशों को भी उसमें शामिल किया जा सके, जिनके पास लंबी दूरी की मिसाइलें है। संधि से हटने की घोषणा के दौरान उन्होंने कहा भी था यदि रूस और चीन समझौते को नए सिरे से करने के लिए तैयार हो जाए तो अमेरिका अपना निर्णय बदल सकता है। कुल मिलाकर टंÑप संधि की आड़ में चीन और उत्तर कोरिया को टारगेट करना चाहते हैं जब संभवत: ट्रंप को रूस से कंही अधिक चीनी मिसाइलों का खतरा नजर आ रहा हो। अगर ऐसा ही है तो हथियारों की असल होड़ यूरोप के बजाए एशिया प्रंशात क्षेत्र में होगी। अमरीका और रूस दोनों ही इस क्षेत्र में चीनी हथियारों के बढ़ते जखीरे को लेकर चिंतित है। नि:संदेह ट्रंप की चिंता जायज भी है, लेकिन संधि से हटने के अलावा उन्हें दूसरे विकल्पों पर भी विचार करना चाहिए।

संधि से हटने के बाद अमेरिका ऐसी मिसाइलों को बनाकर यूरोप में ही तैनात करना चाहेगा। लेकिन अगर यूरोपीय देशों ने अमेरिकी मिसाइलों को अपने क्षेत्र में तैनात किया तो रूस उन देशों पर दबाव बनाने की रणनीति पर काम करेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि दुनिया में एक बार फिर से शीत युद्व का दौर शुरू हो जाएगा। हालांकि अमेरिका ने यह कहकर गेंद रूस के पाले में डाल दी थी कि यदि रूस आइएनएफ का उल्लंघन करने वाली मिसाइलों को नष्ट कर दे तो संधि को छह महीने की नोटिस अवधि के दौरान बचाया भी जा सकता है। लेकिन रूस की आक्रामक प्रतिक्रिया को देखते हुए इस बात की उम्मीद कम ही थी कि रूस एक बार फिर अपने हथियारों को नष्ट करने को राजी होगा।

रूस ने इस संधि से हटने के संकेत बहुत पहले ही दे दिए थे जब साल 2007 में राष्ट्रपति पुतिन ने कहा था कि इस संधि से उनके हितों को कोई लाभ नहीं मिल रहा हैं। रूस की यह टिप्पणी साल 2002 में अमेरिका के एंटी बैलिस्टिक मिसाइल संधि से बाहर होने के बाद आई थी। अब अमेरिका ने संधि से हटने की घोषणा करके रूस को दो मोर्चो पर खेलने का अवसर दे दिया है। एक तरफ तो वह संधि के टूटने के लिए अमेरिका को जिम्मेदार ठहराएगा दूसरी ओर संधि से बाहर निकलकर उसे अपनी मनमानी करने का अवसर मिलेगा । स्थिति चाहे जो भी हो अमेरिका और रूस की इस तनातनी से दुनिया में एक बार फिर से हथियारों की होड़ बढेगी। देखना यह है कि यूरोप से बाहर एशिया प्रशांत क्षेत्र में इस तनातनी का क्या असर होता है।
एन.के.सोमानी