सन् 1988 की बात है। मेरी शादी के चार वर्ष उपरांत मेरे परिवार ने मुझे अलग कर दिया। मेरे सिर पर इतना कर्ज हो गया कि मैं अपनी सारी जायदाद बेचकर भी उसे उतार नहीं सकता था। एक दिन मैंने सोचा कि ऐसी जिंदगी से मरना ही बेहतर है। मैं अपने कमरे में जाकर आत्महत्या करने के बारे में सोचने लगा। उसी समय मेरे गांव का एक प्रेमी दर्शन सिंह मेरे पास आकर सरसा आश्रम में जाने के लिए कहने लगा। उसकी बात पर विचार करते हुए मैंने अपने मन में सोचा कि मर तो जाना ही है, क्यों न पहले अपने सतगुरू परम पिता परमात्मा जी के दर्शन कर आएं। हम डेरा सच्चा सौदा, सरसा पहुंच गए। मजलिस में शब्दवाणी चल रही थी।
कुछ देर बार पूजनीय परम पिता जी स्टेज पर आए, हमनें खूब दर्शन किए। पूजनीय परम पिता जी ने एक शब्द की व्याख्या करते हुए वचन फरमाए, ‘‘कई लोग कर्ज के नीचे दब जाते हैं। वे सोच लेते हैं कि कर्जा तो उतरेगा नहीं, कुछ खा-पी कर मर ही जाएं। सत्संगी को ऐसा कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि आत्मघाती महापापी होता है। इससे उसके सतगुरू की बदनामी होती है। जिस तरह चलते राही को कांटेदार झाड़ियां चिपट जाती हैं और अपने आप ही उतर जाती हैं। इसी तरह मालिक उसकी फसल में बरकत डालता है और साल-दो साल में कर्ज उतर जाता है।’’ ये वचन सुनकर मेरा मन बदल गया और मैंने वहीं बैठे-बैठे प्रण कर लिया कि आत्मघात जैसा पाप मैं कभी नहीं करूंगा। सतगुरू जी की रहमत से दो साल में मेरा सारा कर्ज उतर गया।
श्री गुरतेज सिंह, मसीतां, सरसा (हरियाणा)
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