भाजपा की अपराजेयता का टूटा तिलिस्म

tough time for bjp now, congress breaks bjp winning row

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अपराजेयता का तिलिस्म और कांग्रेस मुक्त भारत का भ्रम टूट गया है। पांच विधानसभाओं के  (tough time for bjp now, congress breaks bjp winning row)चुनाव परिणामों ने भाजपा का विजयरथ थामकर, उसे दुविधा में डाल दिया, जबकि कांग्रेस नए उत्साह से भरकर 2019 के लोकसभा चुनाव में जुट जाने के लिए प्रोत्साहित होगी। इन चुनावों में जहां कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया है, वहीं राजस्थान में बहुमत लाने में सफल हुई है, किंतु रोचक नतीजे मध्य-प्रदेश में देखने में आए हैं।

यहां कांग्रेस स्पष्ट बहुमत से दो सीट पीछे हैं। अलबत्ता बसपा, सपा और जो निर्दलीय जीते हैं, उन्हें साथ लेने में कांग्रेस को कोई मुश्किल आने वाली नहीं है। कांग्रेस के चार बागी उसके समर्थन में आ खड़े हुए हैं। मायावती ने भी बसपा के जीते दो उम्मीदवारों का समर्थन देने का ऐलान कर दिया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राज्यपाल को इस्तीफा सौंपने के साथ ही कांग्रेस का सत्ता पर काबिज होने का रास्ता खुल गया है। ऐसा शायद भाजपा ने कर्नाटक से सबक लेकर किया है। हालांकि कांग्रेस में कमलनाथ और ज्योतोरादित्य सिंधिया के बीच कार्यकताओं के बहाने मुख्यमंत्री बनने की जद्दोजहद सतह पर आ गई है। हिंदी पट्टी में छत्तीसगढ़ को छोड़ दे तो एंटी इनकम्बैंसी से ज्यादा नुकसान केंद्र सरकार की गलत नीतियों, अहंकार और बड़बोलेपन से हुआ है।

जबकि कांग्रेस को किसान कर्ज माफी की घोषणा से जबरदस्त फायदा हुआ है। इस चुनाव के परिणामों ने उन सब हुनरबंदों के चेहरों का रंग उड़ा दिया है, जो चुनाव विश्लेशक, चुनावी सर्वेक्षणों के विशेषज्ञ और जमीनी पत्रकार होने का दंभ भरते थे। मध्य-प्रदेश में ज्यादातर एग्जिट पोल कांग्रेस की 140 सीटें रहे थे, लेकिन उसे भाजपा से बड़े मुकाबले में बहुमत से दो सीटें कम मसलन 114 पर अटक जाना पड़ा। जबकि भाजपा 109 सीटों पर जीत के साथ विपक्ष की मजबूत भूमिका निभाएगी। साथ ही कांग्रेस और कांग्रेस को समर्थन देने वाले विधायकों में सेंध लगाने की आशंका भी बरकरार रखेगी। हालांकि तोड़फोड़ का यह खेल तभी चलेगा, जब भाजपा अगला लोकसभा चुनाव जीत ले ? एग्जिट पोल छत्तीसगढ़ में कांटे की टक्कर का अनुमान लगा रहे थे, किंतु वहां मुख्यमंत्री रमन सिंह सरकार को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है। इससे जाहिर होता है कि वहां पार्टी का नेतृत्व कमोबेश खत्म हो गया है। कांग्रेस की एकतरफा जीत बड़ी सफलता है। जिन राहुल गांधी को पप्पू के रूप में भाजपा स्थापित करके बौना साबित करने में लगी थी, वे अब परिवक्प होकर उभरे हैं।

उन्होंने नरम हिंदुत्व को अपनाकर जो रणनीति चल दी है, वह जीत के झंडे गाड़ने में सफल होने लग गई है। गोया, यह धारणा टूट रही है कि कांग्रेस में मोदी का मुकाबला करने की सामर्थ्य रह ही नहीं गई है। मध्य-प्रदेश और राजस्थान में क्षेत्रीय क्षत्रपों की टकराहटों और अंतरविरोधों को साधने में कांग्रेस सफल रही है। दिग्विजय सिंह मध्य-प्रदेश में कांग्रेस के धुर विरोधियों में समनव्य बिठाने और रूठों को मनाने में ऐसे सफल हुए है कि उनके बूते ही कांग्रेस सत्ता की दहलीज पर आकर खड़ी हो पाई है। अन्यथा शिवराज सिंह चौहान से पार पाना मुश्किल था।

दिग्विजय सिंह की कुशल राणनीति के चलते मध्य-प्रदेश में कांग्रेस के क्षेत्रीय क्षत्रप अपने-अपने क्षेत्र में जुटे रहे। इसलिए निर्विवाद रूप में ज्योतोरादित्य सिंधिया ने ग्वालियर-चंबल, दिग्विजय सिंह ने मालवा, कमलनाथ ने बुंदेलखंड और बैतुल-छिंदवाड़ा एवं अजय सिंह ने अपने को विंध्य क्षेत्र में केंद्रित रखा। अजय सिंह विंध्य में कोई करिश्मा दिखाने की बजाय स्वयं अपनी और अपने पिता अर्जुन सिंह की परंपरागत सीट चुरहट से चुनाव हार गए। जबकि अन्य सभी क्षत्रप अपने-अपने क्षेत्रों में अधिकतम सीटें जीताने में सफल रहे। दूसरी तरफ भाजपा में केंद्रीय नेतृत्व की भूमिका में खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ही रहे। इसमें कोई दो राय नहीं कि शिवराज के कार्यों के प्रति जनता में ज्यादा नाराजी नहीं थी। परिणामों ने इसे सच भी साबित किया है। भाजपा को कांग्रेस से लगभग एक प्रतिशत ज्यादा वोट मिले हैं। किंतु इतने बड़े प्रदेश की कमान संभालने की वजह से भाजपा के जो कट्दावर नेता टिकिट नहीं मिलने की वजह से रूठकर बागी प्रत्याशी बने, उन्हें मनाने की कारगर कोशिशें नहीं हुई। इससे भाजपा को कम से कम एक दर्जन सीटों पर हार का सामना करना पड़ा है।

दूसरी तरफ जीएसटी, नोटबंदी और आरक्षण विधेयक को लेकर भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ। इसी की बुनियाद पर स्वर्णों का आक्रोश रातोंरात सपाक्स पार्टी के रूप में बदल गया। उसने चुनाव में प्रत्याशी खड़े करके भाजपा का माहौल बिगाड़ने का काम किया। जीएसटी पर अमल कुछ इस तरह से हुआ कि व्यापारी वर्ग को बेईमान घोषित करने की कोशिश की गई। इस बाबत वित्तमंत्री अरुण जेटली के जितने भी बयान आए, उसमें यही झलक दिखी। जबकि नरेंद्र मोदी, अमित शाह एवं जेटली को यह ख्याल रखने की जरूरत थी कि संघ, जनसंघ और फिर भाजपा एवं इनके अनुशांगिक संगठनों को खड़ा करने का काम इसी व्यापारी वर्ग ने अपनी खून-पसीने की कमाई से किया है। जबकि जीएसटी को पारदर्शी बनाने और नौकरशाही से मुक्त रखने के कोई नीतिगत उपाय नहीं हुए। इसमें यदि तार्किक सुधार नहीं किए गए तो लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य देने के नाम पर भी किसानों के साथ ईमानदारी नहीं बरती गई। भविश्य के चुनावों में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को इससे भी दो-चार होना पड़ेगा। इस चुनाव में गठबंधन का मिथक भी टूटा है। तेलंगाना में हुआ कांग्रेस से गठबंधन हर तरह से तेलंगाना राष्ट्र समिति भारी दिख रहा था, लेकिन एकाएक हुआ गठबंधन अवसरवाद का परिणाम था, इसीलिए समझदार मतदाता ने उसे नकार दिया। नतीजतन टीआरएस की एक बार तेलंगाना में फिर से धुंआधार वापसी हुई है। मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने समय से पहले चुनाव कराने का जो जोखिम उठाया, उसमें वे कामयाब रहे। कांग्रस ने टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू से गठबंधन किया था। ये वही नायडू हैं, जो गैर-भाजपा महागठबंधन की कवायद में लगे हैं।

हालांकि राहुल गांधी के नेतृत्व में जो तीन राज्यों में कांग्रेस ने बड़ी सफलता हासिल की है, उससे उनका कद बड़ा हुआ है, लेकिन संयुक्त विपक्ष उन्हें अपना नेता मान लेगा, इसमें अभी भी संशय है। पूर्वोत्तर में कांग्रेस का अंतिम किला मिजोरम पूरी तरह ध्वस्त हो गया। मिजोरम नेशनल फ्रंट ने स्पश्ट बहुमत प्राप्त कर लिया है। यह फ्रंट 10 साल बाद सत्ता में वापसी कर रहा है। मिजोरम के मुख्यमंत्री लालथन हवला अपनी दोनों सीटों से हार गए। इसके उलट भाजपा मिजोरम में अपना खाता खोलने में सफल रही है, जबकि कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी है।

अब चलते-चलते ईवीएम पर भी नजर डाल लेते हैं। जब भी कांग्रेस या कोई विपक्षी दल हारता है, तो वह हार का ठींकरा इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन में कथित रूप से की गई हेराफेरी पर फोड़ देता है। यह विवाद निरंतर कायम रहा है। किंतु इस बार भाजपा के तीन बड़े किले ईवीएम नतीजों ने ही ढहाए हैं। फिर भी कांग्रेस ने तेलंगाना के चुनाव परिणामों को ईवीएम से प्रभावित करने का आरोप मढ़ा है। शिवपुरी जिले की कोलारस विधानसभा सीट पर कांटे की टक्कर के अंतिम परिणाम वीवी पैट की पचिर्यों की गिनती से ही तय हुआ। गोया, ईवीएम की विश्वसनीयता असंदिग्ध साबित हुई है। आयोग की यह तकनीक लोकतंत्र की नींव को मजबूती देगी। बहरहाल इन चुनावों ने यह भी तय कर दिया है कि मीडिया प्रबंधन, विज्ञापन और धन के बूते भारत के इस संवैधानिक लोकतंत्र में सेंध लगाना मुश्किल है।

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