ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था विकसित करने का समय

Time to develop a village based economy
एक ग्रामीण भारत इस समय कोरोना संक्रमण प्रकोप के चलते देश की सड़कों पर है। हजारों के समूहों में चल रहे इन गरीबों की वास्तविक संख्या कितनी है, इसका कोई अनुमान नहीं है। कहते हैं, देश की रेलों में ढाई करोड़ लोग हमेशा सफर में रहते हैं। इससे कहीं बहुत बड़ी संख्या महानगरों से अपने-अपने ग्रामों की ओर कूच कर रहे लोगों की है। इन प्रवासी मजदूरों, कामगारों और छात्रों ने प्रधानमंत्री के देशबंदी के आग्रह पर पानी फेर दिया है। घरबंदी से देशबंदी की घोषणा के बाद पलायन का यह आकार सड़कों पर दिखेगा, इसका अंदाजा पंचवर्षीय योजना बनाने वाले नेताओं और नौकरशाहों को नहीं था।
एक बार फिर से मोदी ने इनकी परेशानियों को अनुभव करते हुए, इनसे जहां हैं, वहीं ठहर जाने का क्षमा मांगने के साथ अनुरोध किया है। क्योंकि, इन पैदल यात्रियों के मंजिल पर पहुंचने के बाद यदि कोविड-19 का सामुदायिक स्थानांतरण हो गया तो फिर यह जानलेवा संक्रमण कैसी भीषण त्रासदी उत्पन्न करेगा, इसका अनुमान नामुमकिन है। खैर, इस लेख का उद्देश्य भविष्य के कोरोना की भयावहता को दशार्ने की बजाय चिंता है कि क्यों न शहरीकरण और औद्योगिकिकरण पर सिल-सिलेबार विराम लगाते हुए ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था को फिर से विकसित करने के उपाय किए जाएं ? इससे गांव से जो शहरों की ओर पलायन होता है और फिर विपरीत परिस्थितियों में आज की तरह जो पलायन हो रहा है, इन कठिन हालातों का देश को सामना नहीं करना पड़े।
आर्थिक उदारीकरण ने अकल्पनीय औद्योगिकीकरण और शहरीकरण को बढ़ावा दिया। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में ऐसी नीतियां बनाई गईं, जिससे ग्राम एवं कस्बों में स्थित उद्योगों की कमर टूट गई। राजनीतिक मजबूरी अथवा अदूरदर्शिता के चलते 2007 में देशी-विदेशी कंपनियों को लघु-उद्योगों में 24 प्रतिशत निवेश की बाध्यता समाप्त कर दी गई थी। इस उपाय को लघु उद्योग क्षेत्र में प्राण डालने का बहाना बताया गया था, लेकिन देखते-देखते लघु व मझोले उद्योग डूबते चले गए। इसी हश्र की आशंका थी, क्योंकि प्रकृति के बेहिसाब दोहन से करोड़ों-अरबों के बारे-न्यारे करने वाली कंपनियां लघु-उद्योगों के व्यवसाय में इसलिए नहीं जुड़ीं, क्योंकि इनमें अकूत धन कमाना संभव नहीं था। नतीजतन देशी-विदेशी उद्योगपतियों ने इन्हें व्यावसायिक दृष्टि से कभी लाभदायी माना ही नहीं। गोया, न तो लघु उद्योगों में देशभर में निवेश हुआ और न ही इनकी संख्या बड़ी।
हां, एक समय लघु उद्योगों के लिए जो एक हजार के करीब उत्पाद आरक्षित थे, उन्हें घटाकर सवा सौ कर दिया गया। शेष उत्पादों के निर्माण व वितरण की छूट कंपनियों को दे गई। जबकि देश में उदारीकरण की नीतियां लागू होने से पहले, बड़ी संख्या में लघु उद्योग, बढ़ी और मझोले उद्योगों की सहायक इकाइयों के रूप में काम करते थे और अपने उत्पादों को इन्हीं कंपनियों को बेच देते थे। कंपनियों के हित में नीतियां बना दी जाने के कारण, इन लद्यु उद्योगों की भूमिका घटती चली गई और बची-खुची कसर चीन और दूसरे देशों से सस्ते उत्पाद आयात करने की प्रक्रिया ने खत्म कर दी। वैश्वीकरण का यह ऐसा दुखद पहलू था, जिसने ग्राम व छोटे शहरों में स्थित कामगारों को बेरोजगार किया और युवा होते लोगों को महानागरों की ओर रोजगार के लिए विवश किया।
आर्थिक उदारीकरण के बाद दुनिया तेजी से भूमंडलीय गांव में बदलती चली गई। यह तेजी इसलिए विकसित हुई, क्योंकि वैश्विक व्यापारीकरण के लिए राष्ट्र व राज्य के नियमों में ढील देते हुए वन व खनिज सपंदाओं के दोहन की छूट दे दी गई। इस कारण औद्योगीकिकरण व शहरीकरण तो बढ़ा, लेकिन परिस्थितिकी तंत्र कमजोर होता चला गया। ग्रामों से शहरों की ओर पलायन बड़ा। नदियां दूषित हुईं। विकास के लिए तालाब नष्ट कर दिए। राजमार्गों, बड़े बांधों औद्योगिक इकाइयों और शहरीकरण के लिए लाखों-करोड़ों पेड़ काट दिए गए। नतीजतन वायु प्रदूषण बढ़ा और इसी अनुपात में बीमारियां बढ़ीं। परंतु अब कोरोना संकट ने हालात पलटने की स्थितियों का निर्माण किया है। सभी तरह के आवागमन के साधनों पर ब्रेक लग गया है। अंतराष्ट्रीय व अंतरराज्जीय सीमाएं प्रतिबंधित हैं। सामाजिक आचरण में दूरी अनिवार्य हो गई है। कोरोना के समक्ष चिकित्सा विज्ञान ने हाथ खड़े कर दिए हैं। जिन यूरोपीय वैश्विक महाशक्तियों के उत्पाद खपाने के लिए आर्थिक उदारीकरण की रचना की गई थी, वे शक्तियां इस अदृश्य महामारी के सामने नतमस्तक हैं। सबसे बुरा हाल इटली, स्पेन, जर्मनी, अमेरिका के साथ उस ईरान का है, जो प्राकृतिक संपदा तेल से कमाए धन पर इतराता था। जो चिकित्सक हर मर्ज की दवा देने का दावा करते थे, वे मनुष्य का मनुष्य से दूर रहने और प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने के लिए फल, सव्जी व दाल-रोटी खाने की सलाह देकर अपने ज्ञान को विराम दे रहे हैं।
बावजूद कुछ अर्थशास्त्री ऐसे भी हैं, जो इस महामारी के चलते सामने आई देशबंदी को आर्थिक समस्या के रूप में देखते हुए, भारतीय अर्थव्यवस्था में नौ लाख करोड़ रुपए का नुकसान का अंदाजा लगा रहे हैं। जबकि यह संकट अर्थव्यवस्था से कहीं ज्यादा मानव-स्वास्थ्य और गरीब व वंचितों की रोजी-रोटी से जुड़ा है। बहरहाल , कालांतर में अर्थ की जो भी हानि हो, सकल घरेलू दर में जो भी गिरावट आए, इस वैश्विक संकट के चलते देश को निवेश के भारी संकट से गुजरना होगा? बैंकों में औद्योगिक कर्जों की वापसी असंभव है। भारत वर्तमान में जिस आर्थिक दर्शन को लेकर औद्योगिक विकास में लगा है, वह अभारतीय अर्थशास्त्री एडम स्मिथ की देन है। वेल्थ ऑफ़ नेशन नामक पुस्तक के लेखक स्मिथ को 18वीं सदी के आधुनिक अर्थशास्त्र का पिता माना जाता है। इसी के विचार ने मनुष्य को आर्थिक मानव अर्थात संसाधन माना। इसके विरीत भारतीय चिंतक गांधी, आंबेडकर व रवींद्रनाथ टैगोर ने सनातन भारतीय चिंतन परंपरा से ज्ञान अर्जित कर मनुष्य समेत संसार के सभी प्राणियों के कल्याण की सीख ली। इनका तत्व चिंतन व्यक्तिगत, जातिगत, समुदायगत और राष्ट्र व राज्य की सीमाओं तक सीमित न रहते हुए विश्व-कल्याण के लिए था।
परिणामत: इनके चिंतन में शोषण के उपायों को तलाशने और फिर उनको नश्ट करने के विधि-विधान अंतनिर्हित हैं। पूंजीवादी के पोशण के लिए समूची दुनिया की प्रकृति को संकट में डाल दिया है। भयावह कोरोना संकट इसी दोहन से सह-उत्पाद के रूप में उपजा घातक विशाणु है। लिहाजा अब जरूरी हो गया है कि मानव को संसाधन बनाने वाले इस दर्शन से मुक्ति पाने के क्रमबद्ध नीतिगत उपाय किए जाएं ? ग्राम, कृषि और लघु उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया जाए। स्वावलंबन के यही उपाय भारत को पलायनवादी उपायों से तो छुटकारा दिलायेंगे ही, भारत को प्रदूशण मुक्त समृद्धशाली देश बनाने का भी काम करेंगे।
प्रमोद भार्गव

अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।