कोरोना ने वैश्विक स्तर पर कई घाव पैदा किए हैं। जिसकी भरपाई निकट भविष्य में होनी मुश्किल है। लेकिन ऐसा नहीं की असंभव है। “विश्व बन्धुत्व” की भावना का दम्भ भरने वाला हमारा देश भी कोरोना के संक्रमण से अछूता नहीं। कोरोना सिर्फ मानव जाति के लिए खतरा नहीं, अपितु मानवता के लिए अब खतरा बनता जा रहा। वैश्विक स्तर पर कई तरीके की लकीरें खिंच रही। कोरोना काल के पहले सम्पूर्ण विश्व एक गांव की भांति समझा जाने लगा था। वह परिधि अब टूट रही। कोरोना के कारण वैश्विक स्तर पर काफी तनाव देखने को मिल रहे।
आए दिन कहीं अमेरिका चीन को धमकी देता, तो कहीं चीन अमेरिका को परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने को कहता। वैसे शांत तो ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, इंग्लैंड और जापान जैसे देश भी नहीं। चीन द्वारा कोरोना को लेकर छिपाई गई जानकारी को लेकर आए दन मुखर स्वर में आपत्ति ये देश दर्ज करते रहें हैं। ये रही वैश्विक स्तर की बात। हमारे देश भारत को देखें तो आज वह सिर्फ कोरोना के संक्रमण से नहीं जूझ रहा। इस कोरोना ने कई उन दबे हुए पहलुओं को कुरेदने का काम किया है, जिसे “एक भारत- श्रेष्ठ भारत” के नारे की आड़ में आजादी के बाद से हुक्मरानी व्यवस्था द्वारा छुपाया जाता रहा। देखिए न कोरोना, आज अलगाव, भूख और पलायन के साथ मूलभूत सुविधाओं को लेकर सरकारी तंत्र का इक्कीसवीं सदी के भारत में क्या इंतजामात सभी की परतें खोल कर रख दी है। जिसे आधुनिक भारत की आड़ में सियासी परिपाटी छिपाने का काम वर्षों से करती आ रही।
भले ही हमारे देश की पवित्र पुस्तक संविधान है, लेकिन उस संविधान को ताक पर रख राजनीति करने का तो जैसे हमारे देश में विधान बन गया है। महात्मा गांधी सरीखे महापुरुष ग्रामस्वराज्य से देश के विकास की बात करते थे। आज के नेताओं ने उनके नाम पर राजनीति तो खूब की। बस नहीं किया तो उनके विचारों को याद और उस पर अमल। तभी तो एक झटके में कोरोना महामारी ने करोड़ों श्रमिकों के पलायन का मुद्दा खड़ा कर दिया। इस विषय पर राजनीति सभी दल कर रहें, लेकिन कभी किसी ने आंतरिक विस्थापन के विषय को सुलझाने की जहमत नहीं उठाई। सँयुक्त राष्ट्र संघ ने 2016 में कहा कि भारत में 24 लाख लोग आंतरिक विस्थापित हुए हैं। वहीं दरबदर का शिकार हुए लोगों का यह आंकड़ा 2019 आते आते और बढ़ जाता है। इस वर्ष सँयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 50 लाख लोग दरबदर का शिकार हुए, लेकिन फिर भी सरकारें इसे दूर करने के लिए कोई सार्थक उपाय करती नजर नहीं आई।
देखा जाए तो पलायन या विस्थापन कोई नए होते भारत की समस्या नहीं, यह आजादी के दौर से चली आ रही। इन सब के बावजूद किसी दल की प्राथमिकता में यह नहीं रहा, कि आंतरिक विस्थापन या पलायन को दूर किया जाएं। एक बात तो मानना पड़ेगा, इस मुद्दे पर केंद्र और राज्य सभी स्तर की सरकारें नाकामयाब ही रहीं। तभी तो आज कोरोना संक्रमण काल में पलायन की समस्या एक भयावह स्थिति लेकर आई है। जिस रोटी की तलाश में लोग अपना घर-परिवार छोड़कर शहरों की तरफ आए थे। उसी रोटी के लिए दोबारा कोरोना काल में लोगों को अपने अंचल की तरफ लौटना पड़ रहा। दुर्भाग्य देखिए जिस संविधान पर देश चलता। उसी संविधान ने समता और जीवन जीने की स्वतंत्रता दे रखी, लेकिन रहनुमाई बेरुखी ने तो कइयों श्रमिकों की जान ले ली। कोई भूख से मरा तो कोई सिस्टम के नकारेपन की वजह से।
वैसे जैसे- जैसे कोरोना संक्रमण देश में तेजी से बढ़ रहा, देश भी कई रूपों में बंटता दिख रहा। भले हम इतराते हो, “हम भारत के लोग” रूपी संविधान की प्रस्तावना पढ़ते हुए, लेकिन कहते हैं न कि विपत्ति ही अपनों की पहचान कराती है। वह कहीं न कहीं सत्य है। देखिए न देश में हजारों की संख्या में जनप्रतिनिधियों की फौज है, लेकिन कितने भूख से बिलखते मजदूरों की मदद करने को आगे आए? कितनों ने श्रमिकों को यह आश्वासन दिया, चलिए आप चिंतित न होइए हम आपके रहने- खाने का इंतजाम करते हैं? आप जहां हैं, वहीं सुरक्षित रहिए। कितने सांसद- विधायकों ने सोनू सूद जैसा जिगरा दिखाया? अंगुलियों पर गिन सकते अगर किसी जनप्रतिनिधि ने ऐसा किया तो, वरना सभी बंगलों में बैठकर चैन की बंशी बजाने का काम ही किए हैं। फिर काहे का जनप्रतिनिधि? पहले तो इन नेताओं को जनप्रतिनिधि का मतलब समझना चाहिए। सुविधाएं भोगने के लिए चुनावी बैनरों में तो कर्मठ, जुझारू क्या क्या नहीं लिखवाते। आज जब देश विपदा में है, फिर कहां गया इनका जुझारूपन और कर्मठता?
वैसे हालिया दौर में देखें तो जनप्रतिनिधियों और रहनुमाई तंत्र की नीतियों ने सिर्फ देश को बंटाने का काम किया है। पहले उत्तरप्रदेश और हरियाणा जैसे राज्य अपना बार्डर सील करते, ताकि दिल्ली या अन्य राज्य के लोग उक्त राज्यों में न आ पाएं। उसके बाद अब दिल्ली की “आप सरकार” ने तो हद्द ही कर दी। जो दिल्ली वर्षों से दिल वालो की कहलाती उसे दिल्ली सरकार इसलिए सील कर रही, ताकि दूसरे राज्यों के मरीज वहां ईलाज के लिए न जा सकें। अब सरकार को कौन समझाए कि हम एक संवैधानिक देश का हिस्सा हैं। ऊपर से उससे पहले मानवीय मूल्यों के संरक्षक देश के वासी। फिर ऐसी संवेदनहीनता और अमानवीय कृत्य क्यों? क्या ये सत्ताधारी आज भूल गए कि दिल्ली को दिल्ली बनाने में हाथ किसका? नेताओं ने तो खड़ा नहीं किया होगा दिल्ली को? फिर कैसे राजनीतिक लोलुपता के कारण ऐसा अमानवीय व्यवहार कर रहे? हम तो उस देश के वासी रहें हैं जहां लोग मानवता की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहते, फिर अपने लोगों को ही स्वास्थ्य जैसे मूलभूत अधिकारों से वंचित करके क्या संदेश देना चाहते हम और हमारी व्यवस्थाएं? वैसे यह नैतिक, सामाजिक व कानूनी गुनाह है। फिर ऐसा कदम क्यों? कुछ दिन पूर्व उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी कहा कि किसी राज्य को हमारे प्रदेश के श्रमिक चाहिए तो राज्य की सरकार से अनुमति लेना होगा।
ऐसे में संवैधानिक अधिकार की बात करें तो अनुच्छेद 19 (1)- डी यह कहता कि आप पूरे देश में कहीं भी घूम सकते। इसके अलावा उसी संविधान का अनुच्छेद 19 (1)- ई, सभी भारतीयों को कहीं भी देश में निवास करने की आजादी देता। फिर ऐसी बंदिशे क्यों? वैसे जब सभी राज्य सभी मामलों में सशक्त हो जाएंगे, फिर स्वत: कोई व्यक्ति किसी दूसरे राज्य के संसाधन पर कब्जा नहीं करेगा। इसलिए सभी राज्य सरकारें व्यवस्थाएं सुधारने की दिशा में बढ़ें, सिर्फ लफ़्फाजी करके देश की एकता और अखंडता को नुकसान न पहुंचाए, क्योंकि देश में पहले से भाषा और क्षेत्र आदि के नाम पर अलगाव की आवाज उठती रही है, उसको और बढ़ाने की जरूरत नहीं! यह हमारे रहनुमा कब समझेंगे?
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