तीन तलाक महिलाओं से क्रूरता

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट फैसला: संविधान से ऊपर नहीं कोई पर्सनल लॉ बोर्ड

इलाहाबाद: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ‘तीन तलाक’ को महिलाओं के साथ क्रूरता करार देते हुए वीरवार को कहा कि कोई भी पर्सनल लॉ बोर्ड संविधान से ऊपर नहीं है। तीन तलाक मसले पर उच्च न्यायालय में दाखिल दो याचिकाओं पर न्यायाधीश सुनीत कुमार ने वीरवार को यह फैसला सुनाया। उन्होंने कहा कि तीन तलाक असंवैधानिक है। यह मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन करता है।
अदालत ने फैसले में कहा, ‘मुस्लिम पति को स्वेच्छाचारिता से, एकतरफा तुरंत तलाक देने की शक्ति की धारणा इस्लामिक रीतियों के मुताबिक नहीं है। यह आम तौर पर भ्रम है कि मुस्लिम पति के पास कुरान के कानून के तहत शादी को खत्म करने की स्वच्छंद ताकत है।’ अदालत ने कहा, ‘पूरा कुरान पत्नी को तब तक तलाक देने के बहाने से व्यक्ति को मना करता है जब तक वह विश्वसनीय और पति की आज्ञा का पालन करती है।’ उन्होंने कहा, ‘इस्लामिक कानून व्यक्ति को मुख्य रूप से शादी तब खत्म करने की इजाजत देता है जब पत्नी का चरित्र खराब हो, जिससे शादीशुदा जिंदगी में नाखुशी आती है। लेकिन गंभीर कारण नहीं हों तो कोई भी व्यक्ति तलाक को उचित नहीं ठहरा सकता चाहे वह धर्म की आड़ लेना चाहे या कानून की।’ अदालत ने 23 वर्षीय महिला हिना और उम्र में उससे 30 वर्ष बड़े पति की याचिका खारिज करते हुए यह टिप्पणी की। हिना के पति ने ‘अपनी पत्नी को तीन बार तलाक देने के बाद’ उससे शादी की थी। पश्चिम उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के रहने वाले दंपत्ति ने अदालत का दरवाजा खटखटाकर पुलिस और हिना की माँ को निर्देश देने की मांग की थी कि वे याचिकाकर्ताओं का उत्पीड़न बंद करें और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।
अदालत ने कहा, ‘जो सवाल अदालत को परेशान करता है वह यह है कि क्या मुस्लिम पत्नियों को हमेशा इस तरह की स्वेच्छाचारिता से पीड़ित रहना चाहिए? क्या उनका निजी कानून इन दुर्भाग्यपूर्ण पत्नियों के प्रति इतना कठोर रहना चाहिए? क्या इन यातनाओं को खत्म करने के लिए निजी कानून में उचित संशोधन नहीं होना चाहिए? न्यायिक अंतरात्मा इस विद्रूपता से परेशान है?’ अदालत ने टिप्पणी की, ‘आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष देश में कानून का उद्देश्य सामाजिक बदलाव लाना है। अदालत ने टिप्पणी की, ‘भारत प्रगतिशील राष्ट्र है, भौगोलिक सीमाएं ही किसी देश की परिभाषा तय नहीं करतीं। इसका आकलन मानव विकास सूचकांक सहित कई अन्य पैमाने पर किया जाता है, जिसमें समाज द्वारा महिलाओं के साथ होने वाला आचरण भी शामिल है। इतनी बड़ी आबादी को निजी कानून के मनमानेपन पर छोड़ना प्रतिगामी है, समाज और देश के हित में नहीं है। यह भारत के एक सफल देश बनने में बाधा है और पीछे की तरफ धकेलता है।’
इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट में भी एक मामला विचाराधीन है। सुप्रीम कोर्ट में आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड(एआईएमपीएलबी) तीन तलाक का समर्थन और केन्द्र सरकार इसका विरोध कर रही है। एआईएमपीएलबी ने कहा है कि तीन तलाक की व्यवस्था में परिवर्तन की कोई गुंजाईश नहीं है। उसने कुछ मुस्लिम संगठनों द्वारा तलाक को अन्तिम रूप देने से पहले सहमति बनाने के लिए तीन माह की ‘नोटिस की अवधि’ को अनिवार्य करने के सुझावों को भी नकार दिया है। इसके पहले 1986 में सुप्रीम कोर्ट के शाहबानो मामले पर फैसले के बाद केन्द्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को कुछ शर्तों के साथ जीवनपर्यन्त भरण-पोषण वृत्ति का हक देने के लिए कानून बनाया था।
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इस्लामिक कानून व्यक्ति को मुख्य रूप से शादी तब खत्म करने की इजाजत देता है जब पत्नी का चरित्र खराब हो, जिससे शादीशुदा जिंदगी में नाखुशी आती है। लेकिन गंभीर कारण नहीं हों तो कोई भी व्यक्ति तलाक को उचित नहीं ठहरा सकता चाहे वह धर्म की आड़ लेना चाहे या कानून की।’ (एजेंसी)।