किसी भी लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका को सत्ता की भूमिका से कम कर के नहीं आंका जाता है,न ही आंका जा सकता है। प्राय: पूरे विश्व के सभी लोकताँत्रिक व्यवस्था रखने वाले देशों में विपक्ष को, सत्ता के किसी भी निर्णय का सड़क से लेकर संसद तक विरोध करने का पूरा अधिकार है। और जहाँ जहाँ सत्ता तानाशाहों या तानाशाह प्रवृति के शासकों के हाथों में रही वहां वहां न केवल तानाशाहों को हिटलर, मुसोलानी, ईदी अमीन, जिआउलहक, सद्दाम व गद्दाफी जैसे दिन देखने पड़े हैं बल्कि ऐसे तानाशाह शासकों के देशों को भी इनकी तानाशाह प्रवृति व मानसिकता की भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है।
भारत में भी सत्ता द्वारा विपक्ष को हमेशा ही पूरा मान सम्मान व महत्व दिया जाता रहा है। परन्तु निश्चित रूप से भारत ने ही 1975 -77 का वह दौर भी देखा जब विपक्ष के विरोध स्वर को कुचलते हुए सत्ता से चिपके रहने की चाहत ने इंदिरा गाँधी को आपात काल लगाने के लिए मजबूर किया। उसके बाद अजेय समझी जाने वाली वही इंदिरा गाँधी 1977 में जनता द्वारा नकार दी गयीं। दूसरी ओर इसी भारतीय राजनीति में पंडित नेहरू -व डॉ राम मनोहर लोहिया तथा इंदिरा व राजीव गाँधी तथा अटल बिहारी वाजपेई के मध्य सत्ता-विपक्ष के सौहार्द तथा विश्वास के कई किस्से भी बहुत मशहूर हैं।
परन्तु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अब सत्ता न छोड़ने की चाहत ने सत्ताधीशों को अनैतिकता की सभी सीमाएं पार कर जाने का ऐसा पाठ पढ़ा दिया है कि सत्ताधारी, विपक्ष पर झूठे लांछन लगाना तो दूर उसे समाप्त करने की साजिश रचने व इसकी पूरी कोशिश करने पर तुले हुए हैं। बहुमत की सत्ता के बाद तानाशाही व अहंकार की प्रवृति ने भारतीय राजनीति का चेहरा ही कुरूपित कर दिया है। अपने विरोधियों, आलोचकों व विपक्ष के लिए नई नई शब्दावली गढ़ी जाने लगी है।
देश में ही जन्मी भारत माता की संतानों को विदेशी, गद्दार, देशद्रोही, धर्मद्रोही राष्ट्र विरोधी, राष्ट्रद्रोही आदि सब कुछ कहा जाने लगा है। बुद्धिजीवियों को अलग अलग ‘गैंग’ का सदस्य बताया जाने लगा है। जो कश्मीर में मानवाधिकारों की बात करे उसे पाकिस्तान समर्थक,जो एनआरसी व सी ए ए का विरोध करे वह राष्ट्र विरोधी, जो अल्पसंख्यकों के हितों की बात करे वह हिन्दू विरोधी, जो वामपंथी विचार रखे उसे चीन समर्थक तथा अपने प्रत्येक विरोधी या आलोचक को कांग्रेसी या कम्युनिस्ट बताने का चलन चल पड़ा है। और अपने इस नापाक मिशन को कामयाब करने के लिए सत्ता ने मीडिया को अपना गुलाम बना लिया है।
बुद्धिजीवियों,साहित्यकारों,लेखकों व फिल्म जगत को विभाजित करने की कोशिश की गयी है।और अब यही प्रयास किसान आंदोलन को लेकर भी किया गया है । सत्ता से जुड़े, इनकी भाषा बोलने तथा पद व ‘सत्ता शक्ति’ की उम्मीद पाले अनेक नेता व फिल्मी सितारे किसान आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश ठीक उसी तरह करने लगे जैसे शाहीन बाग के एनआरसी व सी ए ए विरोधी आंदोलन को किया गया था। किसी ने इसे खालिस्तानी आंदोलन बताया तो कोई ‘एनआरसी व सीएए गैंग’ का आंदोलन बताने लगा। कोई किसानों के आंदोलन की फंडिंग विदेशी बताने लगा तो कोई उनके खाने को ‘बिरयानी’ बताने लगा।
आश्चर्य है कि मंत्री व सांसद स्तर के लोगों ने इस तरह की गैर जिम्मेदाराना व तथ्यहीन बातें करनी शुरू कर दीं। इन अनर्गल आरोपों का नतीजा यह निकला की दिन प्रतिदिन किसान आंदोलनकारियों की शक्ति और अधिक बढ़ती गयी। तथाकथित ‘खालिस्तानी’ किसानों के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, राजस्थान व हरियाणा के किसानों ने भी शामिल होकर सत्ता को यह आईना दिखा दिया कि वे आंदोलनकारियों की धर्म व उनके ‘कपड़ों से पहचान’ करना बंद कर दें। और यह आंदोलन किसी एक धर्म या राज्य का नहीं बल्कि यह उन भारतीय किसानों का आंदोलन है जो पूरे देश का अन्न दाता है। उन सत्ताधीशों,सत्ता के दलालों व कृषक समाज के विरोधियों का भी जो इन्हें खालिस्तानी पाकिस्तानी या एनआरसी व सीएए गैंग’ या बिरयानी खाने वालों का आंदोलन बता रहे हैं।
दरअसल अपने प्रत्येक विरोधियों, आलोचकों व विपक्ष को बदनाम करने की साजिश के पीछे इनका खास मकसद यही होता है कि इनकी गलत नीतियों, वास्तविक मुद्दों व असली समस्याओं से लोगों का ध्यान भटकाया जा सके। उदाहरण के तौर पर किसानों को खालिस्तानी बताने की इनकी ताजातरीन साजिश के पीछे भी यही रणनीति काम कर रही है।
निश्चित रूप से किसानों तथा कृषक समाज के प्रति पूरे देश द्वारा दिखाई जा रही एकजुटता ने सरकार व उसके अहंकार को घुटनों के बल खड़ा कर दिया है। देश का समूचा विपक्ष तथा सभी किसान संगठन एकमत होकर किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं। उधर अहंकारी सत्ता कृषक अध्यादेश को वापस लेने के बजाए उसमें संशोधन करने के लिए तैयार भी हो गयी है परन्तु सत्ता के अहंकार ने किसानों में भी इस बात की जिद पैदा कर दी है कि सरकार उन तीनों अध्यादेशों को रद्द करे जिन्हें वह किसानों की सलाह के बिना लागू करना चाह रही है।
जिस प्रकार किसानों ने तमाम बाधाओं व शक्तियों को धत्ता बताते हुए लगभग पूरी दिल्ली घेर ली और सरकार के अहंकार व उसके मुगालते को चकनाचूर कर दिया उससे एक बात तो स्पष्ट हो ही गयी है कि जिस कुटिलता का इस्तेमाल करते हुए सरकार ने अपने विरुद्ध उठने वाले अनेक स्वरों को कुचलने का प्रयास किया था वह चालें तथा सत्ता के वह ‘कुटिल शस्त्र’ किसान आंदोलन को रोक पाने में कामयाब नहीं हो सके।
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