संसद में पारित तीन कृषि बिलों पर राजनीति इस हद तक गर्मा गई है कि पंजाब में तो विधान सभा चुनाव 2020 का मैदान ही बन गया है। पिछले 22 वर्षों से भाजपा के साथ चल रहे गठबंधन को शिरोमणी अकाली दल ने तोड़ दिया है। केंद्र सरकार में अकाली दल की मंत्री हरसिमरत कौर बादल के इस्तीफा देने के बाद एनडीए से नाता तोड़ने के बाद पंजाब की दो अन्य पार्टियां सत्तापक्ष कांग्रेस व आम आदमी पार्टी किसान मुद्दों पर सक्रिय हो गई हैं, अब देखना यह है कि इस जंग में किसानों का क्या लाभ होगा, यह तो भविष्य ही बताएगा। इसके अलावा राजनीतिक पार्टियां कृषि वर्ग को लेकर चिंतित भी हैं। पंजाब कृषि प्रधान राज्य है और किसानों का वोट बैंक सत्ता प्राप्त करने में अहम भूमिका रखता है।
शिरोमणी अकाली दल का मुख्य आधार किसानी रहा है, जो अपने आधार को दोबारा प्राप्त करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने के लिए चल पड़ा है। कांग्रेस द्वारा 2017 में किसानों का कर्ज माफी का वायदा पूरा कर सरकार बनाने में सफल रहना अकाली दल के लिए बड़ी चुनौती है। भाजपा ने 117 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कह दी है। इस माहौल में चिंता वाली बात यह है कि कृषि एक बार फिर से राजनीति का मुद्दा बन गई है। विवेक व चिंतन कहीं नजर नहीं आ रहे। कृषि विशेषज्ञों व अर्थशास्त्रियों के विचारों, दृष्टिकोणों का किसी पार्टी में जिक्र तक नहीं। राजनीतिक पार्टियां कृषि मुद्दों पर एकजुट होने की बजाय अपने पार्टी विंगों को मजबूत करने में जुट गई हैं।
पंजाब में कोई ऐसा सांझा मंच नहीं बन सका जिसमें सभी पार्टियों के नुमायंदे, किसान नेता, अर्थशास्त्री, समाज शास्त्री शामिल हों लेकिन वह सभी चर्चा कर अपनी राय केंद्र तक पहुंचाएं। पंजाब के किसानों को दुर्दशा से बचाने के साथ-साथ बौद्धिक कंगाली से भी बचाने की जरूरत है। कृषि संबंधी गहराई से होने वाली चर्चा राजनीतिक नारों में खो गई है। किसान को चिंतन, सावधान, तकनीक व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदलाव लाकर खुशहाल बनाने का कहीं जिक्र तक नहीं। किसान राजनीतिक हितों की लड़ाई से अलग होकर अपने हित के बारे में सोच सकेंगे, यह सवाल अभी चुनौती बना हुआ है। डर इस बात का है कि कहीं किसानों की आवाज राजनीतिक शोर में दबकर न रह जाए।
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